‘तीन तलाक’ पर राज्य सभा में बिल पास होने के बाद जब प्रधानमंत्री अपनी पीठ थपथपा रहे थे और आत्ममुग्ध होकर देश में लैंगिक बराबरी का नारा दे रहे थे, उसी समय बहुचर्चित उन्नाव बलात्कार कांड की पीड़िता की मौत से जंग चल रही थी, जिसके लिए प्रधानमंत्री के पास शब्द नहीं थे। देश में लैंगिक बराबरी इस सरकार के सत्ता संभालने के बाद से एक व्यंगात्मक नारा बन कर रह गया है।
तथ्य तो यह है की साल 2014 तक इस दिशा में जितनी प्रगति हुइ थी, उसके बाद से हम उससे पीछे ही जा रहे हैं। जब आप काम नहीं कर पाते हैं, तभी नारे गढ़ने की जरूरत पड़ती है और आज, बेटी बचाओ-बेटी पढाओ, उज्ज्वला योजना और ट्रिपल तलाक के बारे में सुनकर ऐसा ही लगता है। जिस प्रधानमंत्री को ट्रिपल तलाक एक मध्ययुगीन और बर्बर परंपरा लगती है, उन्हें उन्मादी समूह की जातिवादी हिंसा और बलात्कार तो न्यू इंडिया की घटनाएं समझ में आती होंगी।
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देश में तीन तलाक के आंकड़े और भी ज्यादा चौंकाने वाले हैं। 12 दिसंबर 2018 को संसद में रविशंकर प्रसाद द्वारा दिए गए बयान के आधार पर 1 जनवरी 2017 से 12 दिसंबर 2018 तक, यानि पूरे दो साल में, ट्रिपल तलाक के कुल 477 मामले सामने आए। जरा सोचिये, इससे ज्यादा मामले तो बलात्कार, भ्रूण हत्या, चेहरे पर तेजाब फेंकने या फिर पति द्वारा पत्नी और बच्चों की हत्या के दर्ज हो जाते हैं। इससे कई गुना अधिक मामलों में तो पति ने अपनी पत्नी को घर से बाहर निकाल दिया होगा।
जिस लैंगिक समानता पर सरकार इतरा रही है, उसका असली स्वरुप तो सस्टेनेबल डेवलपमेंट गोल्स जेंडर इंडेक्स नामक रिपोर्ट में बताया गया है। इस इंडेक्स के अनुसार 129 देशों की सूची में भारत 95वें स्थान पर है और इसे 56.2 अंक दिए गए हैं। यहां यह जानना आवश्यक है कि 59 तक अंक पाने वाले कुल 60 देश लैंगिक समानता के सबसे निचले सिरे पर है। अंक के अनुसार भारत तो 129 देशों के औसत अंक, 65.7 के आसपास भी नहीं पहुंचता है। चीन, श्रीलंका और भूटान क्रमशः 74, 80 और 90वें स्थान पर हैं, यानि भारत से अच्छी स्थिति में हैं। म्यांमार, नेपाल, बांग्लादेश और पाकिस्तान भारत से भी नीचे हैं और इनका स्थान क्रमशः 98, 102, 110 और 113वां है।
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इक्वल मीजर्स 2030 नामक एक गैर-सरकारी संस्था ने सस्टेनेबल डेवलपमेंट गोल्स जेंडर इंडेक्स नामक रिपोर्ट को जून, 2019 में प्रकाशित किया है। सयुक्त राष्ट्र के सस्टेनेबल डेवलपमेंट गोल्स में लैंगिक समानता भी शामिल है और 193 देशों ने, जिसमें भारत भी शामिल है, इसपर हस्ताक्षर किये हैं। इसके अनुसार साल 2030 तक हरेक देश को अपने यहां लैंगिक असमानता समाप्त करना है।
इक्वल मीजर्स 2030 ने इसी सन्दर्भ में साल 2018 के दौरान 129 देशों में लैंगिक समानता के आकलन के आधार पर एक इंडेक्स तैयार किया है। इसमें लैंगिक समानता की स्थिति के आधार पर देशों को 0 से 100 के बीच अंक दिए गए हैं- 100 अंक सबसे अधिक समानता और 0 कोई समानता नहीं दर्शाता है।
हमारे देश की ऐसी हालत तब है, जब प्रधानमंत्री अपने आप को लगातार महिलाओं का मसीहा साबित करते हैं। लगभग हरेक भाषण में बेटी बचाओ-बेटी पढ़ाओ, उज्ज्वला योजना और तीन तलाक की चर्चा करना नहीं भूलते। अफ्रीका में एक देश है- टोंगा। टोंगा दुनिया के सबसे पिछड़े देशों में शुमार है। दूसरी तरफ भारत है, जहां की बढ़ती अर्थव्यवस्था के चर्चे दुनिया में हैं।
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लेकिन हैरान करने वाला तथ्य यह है कि दुनिया में भारत और टोंगा, दो ही ऐसे देश हैं, जहां पांच साल से कम उम्र के बच्चों के सन्दर्भ में लड़कियों की मृत्यु दर लड़कों की तुलना में अधिक है। इसका सीधा सा मतलब है कि पांच साल से कम उम्र में लड़कियों की मौत लड़कों से अधिक होती है। इस विश्लेषण को लंदन के क्वीन मैरी यूनिवर्सिटी ने दुनिया के 195 देशों के आंकड़ों के आधार पर किया है।
इंस्टिट्यूट वैक्सीन एक्सेस सेंटर की ‘न्युमोनिया एंड डायरिया प्रोग्रेस रिपोर्ट’-2018 के अनुसार विश्व में किसी भी देश की तुलना में न्युमोनिया एंड डायरिया से बच्चों की मौत के मामले में भारत सबसे आगे है। दुनिया में न्युमोनिया और डायरिया से जितने बच्चों की मृत्यु होती है, उसमें से 70 प्रतिशत से अधिक मौतें केवल 15 देशों में होती हैं और भारत भी उनमें से एक है। शेष 14 देश हैं- नाइजीरिया, पाकिस्तान, कांगो, इथियोपिया, चाड, अंगोला, सोमालिया, इंडोनेशिया, तंजानिया, चीन, नाइजर, बांग्लादेश, यूगांडा और कोटे द आइवरी।
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न्युमोनिया और डायरिया से बच्चों की मृत्यु के सन्दर्भ में भी लिंग की महत्वपूर्ण भूमिका है। हमारे देश में ऐसी मृत्यु के सन्दर्भ में लड़कियां लड़कों की तुलना में बहुत आगे हैं। साल 2016 के दौरान देश में 2.6 करोड़ बच्चे पैदा हुए और लगभग 2.61 लाख बच्चों की मृत्यु हो गयी। हमारे देश में तो टीकाकरण के मामले में भी लड़के और लड़कियों में भेद किया जाता है। औसतन 100 में से 78 बच्चों का पूर्ण टीकाकरण किया जाता है जिसमें से 41 लड़के होते हैं और 37 लड़कियां।
लांसेट मेडिकल जर्नल में प्रकाशित एक रिपोर्ट के अनुसार हमारे देश में प्रतिवर्ष पांच वर्ष से कम उम्र में 240000 लड़कियों की मृत्यु केवल इसलिए होती है क्योंकि लड़कियां होने के कारण उनके परवरिश में लापरवाही बरती जाती है। यह संख्या गर्भ में पल रहे बच्चे के लिंग निर्धारण के बाद की जाने वाली भ्रूण हत्या के अतिरिक्त है। इसका सीधा सा मतलब यह है कि हरेक 10 वर्ष के बाद की जनगणना में 24 लाख लड़कियों की कमी केवल उनके लड़की होने के कारण हो जाती है।
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ऑस्ट्रिया के इंटरनेशनल इंस्टिट्यूट ऑफ एप्लाइड सिस्टम्स द्वारा प्रकाशित एक रिपोर्ट के अनुसार भारत में पांच साल से कम उम्र की जितनी लड़कियां मरतीं हैं, उनमें से 22 प्रतिशत मौतें केवल इसलिए होती हैं कि वे लड़कियां थीं इसलिए घर-परिवार और समाज ने उन्हें पूरी तरह से उपेक्षित किया। जाहिर है, पूरी दुनिया में किये गए तमाम अध्ययन यही बताते हैं कि हमारे देश में लड़कियों की उपेक्षा इस हद तक की जाती है कि वे जिंदा भी नहीं रह पातीं। इन सबके बाद भी समाज का और सरकार का रवैया नहीं बदल रहा है।
ट्रिपल तलाक पर वाहवाही लूटने वालों को लड़कियों और महिलाओं की वास्तविक स्थिति पता ही नहीं है। जिस उज्ज्वला योजना की बात प्रधानमंत्री बार-बार करते हैं उसकी ब्रांड एम्बेसडर अब लकड़ी और उपले पर खाना पकाती हैं। एक अध्ययन के मुताबिक उज्ज्वला योजना के लाभार्थी सामान्य ग्रामीण परिवारों की तुलना में आधी संख्या में ही गैस सिलिंडर खरीदते हैं और बाकी समय लकड़ी से ही काम चलाते हैं। लैंगिक बराबरी की चर्चा करने से पहले प्रधानमंत्री बलात्कार के मामलों में नामजद अपने सभी सांसद और विधायकों को पार्टी से बाहर का रास्ता दिखाते तो अच्छा रहता।
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