उपराष्ट्रपति और राज्यसभा के सभापति वेंकैया नायडू यह बताते हुए रो पड़े कि इस सम्मानित सदन की मर्यादा तार-तार हो रही है क्योंकि सांसद अपनी संसदीय जिम्मेदारियों का निर्वहन करने के बजाय मेज पर चढ़कर हंगामा कर रहे हैं और आसन के ऊपर रूलबुक फेंक रहे हैं। भारत-जैसे वयस्क लोकतंत्र के लिए ऐसे दृश्य निश्चित रूप से चिंताजनक हैं। लेकिन लोकसभा अध्यक्ष और राज्यसभा के सभापति के लिए यह भी चिंता की बात होनी चाहिए कि भारतीय लोकतंत्र की बुनियाद से जुड़े एक मसले- पेगासस जासूसी कांड पर एक भी कायदे का बयान सरकार अभी तक क्यों नहीं दे पाई है। लोकसभा अध्यक्ष ओम बिड़ला ने इस मामले में अपनी मजबूरी जताई है कि वह सरकार को बयान देने के लिए विवश नहीं कर सकते। यह विवशता अगर वेंकैया नायडू भी समझते तो शायद संसद में आए व्यवधान का दूसरा पक्ष भी उन्हें दिखाई देता और इसको लेकर वह इतने भावुक न होते।
इस मसले पर अगर हम संसद में और सुप्रीम कोर्ट में सरकार द्वारा अपनाए गए रुख पर अलग-अलग नजर डालें तो स्थिति और स्पष्ट हो जाती है। संसद में सरकार इस बात को ही खारिज करती आ रही है कि पेगासस जासूसी कांड एक जरूरी मुद्दा है। वह और उसके जरखरीद टीवी चैनल देश को यह बताने में लगे हुए हैं कि विपक्ष संसद को चलने ही नहीं देना चाहता। सरकारी बयान के नाम पर रक्षा मंत्रालय द्वारा कहलवाया जाता है कि उसने पेगासस सॉफ्टवेयर का उपयोग नहीं किया है जबकि किसी नागरिक की जासूसी कराने-जैसी गतिविधि उसके अधिकार क्षेत्र में ही नहीं आती। इसके विपरीत सुप्रीम कोर्ट में सरकार के प्रतिनिधि के रूप में सॉलिसिटर जनरल अदालत को तरह-तरह की कहानियां सुना रहे हैं।
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अदालत ने जब सरकार से इस बारे में हलफनामा देने को कहा कि उसने जासूसी के लिए पेगासस का सॉफ्टवेयर इस्तेमाल किया है या नहीं, तो सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने बताया कि ‘मान लीजिए, मैं एक आतंकी संगठन हूं, तो जैसे ही सरकार यह घोषणा करेगी कि वह पेगासस का इस्तेमाल नहीं करती, वैसे ही मैं स्लीपर सेल्स से संवाद के लिए ऐसे तरीके काम में लाना शुरू कर दूंगा जो पेगासस के अलावा किसी और जासूसी उपकरण की पकड़ में आ ही नहीं सकते!’ यह दलील एक सुपरिचित तर्क प्रणाली की याद दिलाती है।
विपक्ष ने जब संसद में सरकार से राफेल लड़ाकू विमानों की कीमत बताने को कहा था तो सरकार की तरफ से दलील दी गई थी कि ‘जैसे ही इन विमानों की कीमत बताई जाएगी, चीन-पाकिस्तान आदि शत्रु देशों को इनका सारा कॉन्फिगरेशन पता चल जाएगा और वे इनसे मुकाबले के लिए तैयारी करना शुरू कर देंगे।’ जाहिर है, छोटी से छोटी सूचना मांगने पर भी मोदी सरकार इसी तरह की भयातुर पवित्रता का प्रदर्शन करती है और इसके लिए राष्ट्रीय सुरक्षा को मोहरा बनाती है।
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गनीमत है कि सुप्रीम कोर्ट इस बार उसके झांसे में नहीं आया। अदालत ने सॉलिसिटर जनरल से साफ कहा कि राष्ट्रीय सुरक्षा से जुड़ी कोई भी सूचना उसे चाहिए ही नहीं। सरकार यह सुनिश्चित करे कि ऐसी कोई सूचना बाहर न जाने पाए। लेकिन आगे अदालत ने कहा कि कुछ नागरिकों की यह सीधी दरख्वास्त है कि उनके फोन नंबरों के जरिये उनकी जासूसी कराई गई है। यह काम किसके आदेश पर हुआ या सरकार की जानकारी के बगैर ही किसी ने इसको कर डाला, सरकार अदालत को इसके ब्यौरे दे। आगे क्या करना है, यह उसके जवाब देखने के बाद ही तय होगा। इस आशय का ‘नोटिस बिफोर एडमिशन’ अदालत की ओर से जारी कर दिया गया है। जवाब में सरकार अदालत को कुछ तो बताएगी। सवाल यह है कि वही बात वह संसद को क्यों नहीं बता सकती थी? अगर वह ऐसा करती तो विपक्ष के पास हंगामा करने का कोई तर्क नहीं रह जाता। जाहिर है कि तब लोकसभा अध्यक्ष को अपनी विवशता नहीं जतानी पड़ती और उपराष्ट्रपति के कीमती आंसू भी व्यर्थ नहीं जाते।
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यहां पेगासस को लेकर कुछ गलतफहमियां दूर कर लेना भी जरूरी है जो संभवतः जान-बूझकर पैदा की गई हैं। करीब पंद्रह साल पहले देश में एक बड़े टेलीफोन-टैपिंग कांड का खुलासा हुआ था जिसकी कुछेक सीडी सीमित दायरे में वितरित हुईं लेकिन सुप्रीम कोर्ट के आदेश से उसके प्रकाशन और प्रसारण पर रोक लग गई। कुछ लोगों को लगता है कि यह भी उसी तरह का कोई और टेलीफोन टैपिंग कांड है और जैसे वह मामला रफा-दफा हो गया, वैसे ही यह भी हो जाएगा। विपक्ष खामखा इसे तिल का ताड़ बनाए हुए है।
ऐसे भलेमानसों के लिए कुछ बिंदु स्पष्ट कर दिए जाने चाहिए। एक तो यह कि पिछले टेलीफोन-टैपिंग कांड का सरकार से कोई लेना-देना नहीं था। सरकार की जवाबदेही तब इतनी ही बनती थी कि नागरिकों की निजता की सुरक्षा वह क्यों नहीं कर पाई। इसके विपरीत इस बार पेगासस सॉफ्टवेयर बेचने वाली कंपनी शुरू से ही कह रही है कि स्थापित सरकारों के अलावा किसी और को वह इसे बेचती ही नहीं। ऐसे में, सरकार अगर ऐसा हलफनामा देती है कि उसने नागरिकों के खिलाफ पेगासस का इस्तेमाल नहीं किया तो इसका अर्थ यह होगा कि यह काम किसी और सरकार ने किया है जो ज्यादा खतरनाक बात है।
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दूसरी, और ज्यादा बड़ी बात यह कि यह मामला टेलीफोन टैपिंग का है ही नहीं। पेगासस के जरिये फोन टैप नहीं किए जाते, बाकायदा हैक किए जाते हैं। मतलब यह कि फोन के जरिये हैकर आपके ईमेल, वाट्सएप, एसएमएस, मैसेंजर और बाकी ऐप्स स्टोरेज में भी घुस सकता है। वहां वह न सिर्फ आपके हर वार्तालाप की टोह ले सकता है बल्कि अपनी तरफ से कोई अत्यंत आपत्तिजनक सामग्री आपके मेल बॉक्स और इन ऐप्स के स्टोरेज में प्लांट भी कर सकता है।
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आज जब हम देश के कई महत्वपूर्ण बुद्धिजीवियों और सामाजिक कार्यकर्ताओं को उनके कंप्यूटर में मौजूद आपत्तिजनक सामग्री के आधार पर ही साल-दर-साल जेल में सड़ते हुए पा रहे हैं, तो अदालत को यह जरूर सोचना होगा कि पेगासस के जरिये जासूसी न केवल लोगों के निजता के अधिकार से बल्कि उनके जीवन के अधिकार से भी जुड़ा हुआ मामला है। और अगर सरकार की इस मामले में रत्ती भर भी भूमिका पाई जाती है, तब तो यह उसके द्वारा लोकतंत्र की जड़ों पर कुठाराघात जैसा ही होगा, जिसके सामने अमेरिका का वाटरगेट कांड भी बच्चों के खेल जैसा लगने लगेगा!
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