देश के करीब 14 करोड़ प्रवासी निजी क्षेत्र के श्रमिकों की बदहाली की चिंता किए बिना अचानक लॉकडाउन कर उन्हें अपने ठिकानों पर बंद रहने की नसीहत को कितना संवेदनशील कहा जाएगा। ऊपर से लॉकडाउन के बाद पीएम मोदी का यह ऐलान कि सरकार उनके खाने पीने का पूरा बंदोबस्त कर रही है, वाकई उनके साथ क्रूर मजाक साबित हुआ।
24 घंटे के भीतर ही 80 प्रतिशत प्रवासी श्रमिकों को मालिकों ने काम से हटा दिया और ज्यादातर को मकान मालिकों ने अगली सुबह ही कमरे खाली करने को कह दिया। वे कुछ भोजन पानी के लिए बाजार निकलें तो पुलिस की लाठियां और भीतर रहें तो भूखों मरने की नौबत। इसी डर ने मौत से भी उनका खौफ खत्म कर दिया। उन्हें साधन न मिलने के बाद भी पैदल ही सैकड़ों मील दूर अपने गांवों को पैदल चलने को विवश किया। यह तो देश में सब मानते हैं कि सरकार ईमानदार हो तो क्या नहीं कर सकती। केरल ने यह साबित कर दिखाया। अधिकांश प्रवासी श्रमिकों को केरल सरकार ने सारी सहूलियतें देकर राज्य में रोक लिया। दूसरी ओर केंद्र की ओर से बाकी राज्यों को इन लाखों श्रमिकों की सुध लेने की हवाई बातें इतनी देर से हुईं कि तब तक दर्जनों भूख बीमारी और दुर्घटनाओं में जान गवां चुके थे।
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लकीर अब पीटी जा रही है जब लाखों बेकसूर श्रमिकों ने सरकारी काहिली की कीमत चुका दी। अब उन्हें गांव पहुंचने पर 5 किलो अनाज एक किलो चना देने का ढांढस बंधाया जा रहा है। मनरेगा में 202 रुपये वह भी महीने में चंद रोज की मजदूरी देने का लॉलीपॉप दिखाया जा रहा है। पूरे देश में लाखों श्रमिकों का सैलाब अब भी गांवों की ओर है। 20 लाख हजार करोड़ के बजट में प्रवासी श्रमिकों के लिए मात्र 3500 करोड़ रुपये का मनरेगा कोष बढ़ाकर इन करोड़ों में कितनों को रोटी मिलेगी। कांग्रेस, विपक्षी पार्टियां ही नहीं विश्व विख्यात अर्थशास्त्री सरकार को कहते कहते थक गए कि उनके हाथ में पैसा पहुंचाओ ताकि वे खुद जरूरत का सामान ले सकें। इसके पीछे थ्योरी बहुत साफ थी कोरोना काल के बीच जब तक उनके पास रोजगार नहीं सो उनके बैंक खातों में 7500 रुपये हर महीने सरकार डाले। वे अपनी जरूरत की चीजें खरीदेंगे तो बाजार में अपने आप मांग बढ़ेगी। इससे किसी न किसी तरह यही बजट बाजार की इकॉनमी को ऊपर रखेगा।
सरकार को प्रवासी श्रमिकों की कोई परवाह नहीं। यह बात पिछले 50 दिन में कई बार प्रमाणित हुई। प्रवासी श्रमिकों का कोई संगठन नहीं। ज्यादातर श्रमिक तो ग्रामीण गरीबी के मारे ही पलायन को विवश होते हैं। चुनाव चाहे संसद, विधानसभाओं या पंचायतों के हों, प्रवासियों में औसतन 2-4 प्रतिशत ही वोट डालने के लिए अपने मूल गांव कस्बे में उपलब्ध रहते होंगे। प्रायः वोटिंग के बाद बूथों पर सभी पार्टियां मूल्यांकन करती हैं तो ज्यादातर जो प्रवासी श्रमिक रोजगार के काम से गांव या कस्बों से दूसरे प्रदेशों में रहते हैं उनका वोट नहीं डलता। अनिच्छा पूर्वक वोट न डालने वालों से कई ज्यादा प्रतिशत प्रवासी श्रमिकों के कीमती वोट का होता है जो सत्ता बदलने के कोई काम नहीं आता।
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देशव्यापी लॉकडाउन के स्वाद ने पराए प्रदेश में रोजगार और परिश्रम करके अपने परिवार का भरण पोषण करने वाले लाखों श्रमिकों ने पहली बार अपने ही देश की निर्वाचित सरकार के हाथों अपनी बदहाली का इतना कड़वा स्वाद चखा है।
यह भी एक हकीकत है कि जिस भी शहर या औद्योगिक क्षेत्र में जहां वे रहते हैं, सियासी पार्टियां चुनावी रैलियों में भीड़ जुटाने के लिए उनका इस्तेमाल करती हैं। दिनभर की दिहाड़ी देकर उन्हें अमुक पार्टी की टोपी और झंडा दे दिया जाता है और शाम को छुट्टी कर दी जाती है। मौजूदा वोट की राजनीति में यही उनका इस्तेमाल रह गया है। इसलिए राष्ट्रीय स्तर पर प्रवासी श्रमिकों के लिए कोई नीति नहीं बनती। ना ही उनके बच्चों की शिक्षा दीक्षा की कोई परवाह की जाती। केरल और एक दो कुछ राज्यों को छोड़ प्रवासी श्रमिकों के लिए वेलफेयर स्कीम नहीं है।
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प्रवासी श्रमिकों के लिए हॉस्टल, इलाज और सामाजिक सुरक्षा की बातें बेमानी मान ली जाती हैं। मीडिया उनकी बातों या मुद्दों को नहीं उठाता, क्योंकि वे चमक दमक वाली ग्लैमर और मायावी दुनिया का हिस्सा नहीं हैं। ऐसा नहीं है कि मोदी को पता नहीं क्योंकि प्रवासी मजदूर गुजरात में भी सबसे ज्यादा हैं। लेकिन मोदी ने जरा भी नहीं सोचा कि बिना रोजगार, पैसा और छत के वे कैसे जिंदा रहेंगे। क्या विडंबना है कि भूख के मारे अपने ठिकानों से बाहर निकलने वाले गरीब और बेबस श्रमिकों को बीजेपी शासित प्रदेशों में पुलिस ने ही सबसे ज्यादा बेरहमी से पीटा। लेकिन पीएम मोदी को यह फुर्सत कहां थी कि यह कड़ा संदेश देते कि भूखे प्यासे राह चलते श्रमिकों को पीटा न जाए। बल्कि उनके खाने पीने और रहने का प्रबंध हो।
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इन दिनों की तपती गर्मी में उनकी जान पर मुश्किलों की आफत को पीएम मोदी ने 12 मई को बेहद हल्के ढंग से यह कहकर निपटा दिया कि जो मुश्किलें लोग झेल रहे हैं वह तो तपस्या है। क्या किसी लोकतांत्रिक देश के संवेदनशील प्रधानमंत्री से ऐसी उम्मीद कोई कर सकता है क्या।
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इन पंक्तियों के लिखे जाने तक देश में करीब 516 प्रवासी श्रमिकों ने जान इसलिए गंवा दी, क्योंकि वे 24 मार्च की रात को मात्र तीन घंटे की पूर्व सूचना के बाद रोजगार और काम धंधा छूटने और नौकरी से निकाले जाने के बाद सबसे ज्यादा भूख से तड़पकर मर गए। क्योंकि चैतरफा तालाबंदी से वे काम नहीं तलाश पाए। जो रोज कमाकर खाने वाले थे, उन्हें भूखों मरने को छोड़ दिया गया। अपने घरों की ओर बदहवासी में पैदल चले। शराबबंदी के कारण वे नकली और जहरीली शराब पीने को विवश हुए। विभिन्न शहरों में जहरीली और मिलावटी शराब से चार दर्जन मौतें हुईं। बीमार और दुर्घटनाओं के दौरान वक्त पर इलाज न मिलने, परेशान और तनाव के कारण आत्महत्याओं, पुलिस पिटाई से हुई मौतें अलग हैं। किसान मजदूर शक्ति संगठन के संयोजक निखिल डे कहते हैं, "कई भागों व दूर दराज के क्षेत्रों से इन गरीब और बेबस श्रमिकों की मौत की सूचनाएं मीडिया तक नहीं पहुंचीं इसलिए अज्ञात मौतों का आंकड़ा और भी अधिक होने से इनकार नहीं किया जा सकता।"
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