इस साल केंद्र सरकार ने जो बजट पेश किया है उसकी दो बातों के लिए तारीफ हुई। पहली तो यह कि सरकार सही जगह खर्च करने वाली है, यानी दीर्घ अवधि में मूल्य पैदा करने वाला कैपिटल एक्सपेंडिचर। और दूसरी यह कि इस बजट कुछ हद तक पारदर्शी है। सरकार का घाटा जितना होना चाहिए था, उससे तीन गुना हो चुका है, लेकिन अच्छी बात है कि सरकार ने इसे स्वीकार किया है। शायद यही दो बातें हैं जिनके आधार पर इस बारे के बजट को अच्छा कहा जा सकता है, लेकिन क्या यही हकीकत है। मुझे याद नहीं पड़ता कि कोई ऐसा बजट पेश हुआ हो जिसने देश के ज्यादातर लोगों की जिंदगी पर कोई खास असर डाला हो, हां 1991 का बजट एक अपवाद जरूर है।
लेकिन, इस बार के बजट में कुछ ऐसी मदों को नजरंदाज कर दिया गया है जो काफी अहम हैं। इसे समझने के लिए सरकार द्वारा किए गए 2019-20 के नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वे को समझना होगा, जिसके आंकड़े भयावह तस्वीर पेश करते हैं।
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जिन चार पैमानों पर बच्चों के पोषण की स्थिति पता चलती है, उसमें सामने आया है कि राज्यों के रिकॉर्ड 2015-16 से भी बदतर हैं। गुजरात, महाराष्ट्र और पश्चिम बंगाल जैसे राज्यों में खून की कमी और औसत वजन और लंबाई वाले बच्चों की संख्या 15 साल के यानी 2005-06 के स्तर से भी ज्यादा है। इससे पता चलता है कि बीते 15 साल में जो प्रगति इस मोर्चे पर हुई थी, वह खत्म हो चुकी है। यहां तक कि केरल जैसे राज्य भी जो इन आंकड़ों में शीर्ष पर होते थे, उनकी स्थिति भी 2015-16 के स्तर पर पहुंच चुकी है।
सर्वे में 22 राज्यों और केंद्रशासित प्रदेशों की स्थिति को 10 मुख्य शहरों में किए गए सर्वे के आधार पर सामने रखा गया है। सभी 10 राज्यों में बच्चों में खून की कमी यानी एनीमिया के लक्षण 2015-16 के स्तर पर हैं। गुजरात, हिमाचल, महाराष्ट्र और पश्चिम बंगाल में तो स्थिति और खराब है।
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इसके अलावा कम वजन और लंबाई वाले बच्चों की संख्या भी बाकी के 10 राज्यों में अधिक है। असम, गुजरात, कर्नाटक, महाराष्ट्र और पश्चिम बंगाल सर्वाधिक बच्चे कम वजन और लंबाई के पाए गए जो कि 2005-06 के स्तर से भी बुरी स्थिति है। इन 10 में से 7 राज्यों में उम्र के लिहाज से बच्चों का वजन काफी कम पाया गया।
सर्वे बताता है कि आंध्र प्रदेश, बिहार, गुजरात, महाराष्ट्र और पश्चिम बंगाल में बच्चों में डायरियाके मामले अधिक बढ़े हैं। बिहार में ये मामले 2015-16 के 10.4 फीसदी से बढ़कर 2019-20 में 13.7 फीसदी पर पहुंच गए हैं।
यह वह स्थिति है जिस पर बहस हो सकती है कि ऐसा क्यों हुआ। लेकिन समस्या यह है कि बजट में इस पहलू को नजरंदाज कर दिया गया और इसे समाधान का कोई जरिया भी सामने नहीं रखा गया।
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देश के करोड़ों बच्चों को कम से कम एक वक्त का पौष्टिक भोजन देने वाली मिडडे मील योजना का बजट इस बार 13,400 करोड़ से घटाकर 11,500 करोड़ कर दिया गया। इस तरह यह बीते 7 साल का सबसे कम बजट इस मद का रहा। अगर इसमें महंगाई की दर को जोड़े तो इस मद के बजट में 38 फीसदी की कटौती की गई। बच्चों को स्कूल से पहले भोजन, शिक्षा, प्राथमिक स्वास्थ्य, टीकाकरण, स्वास्थ्य जांच और 6 साल से कम उम्र के बच्चों और उनकी मांओं को अन्य सेवाओं का लाभ देने वाली एकीकृत बाल विकास योजना का बजट भी कम कर दिया गया। इसी तरह आंगनवाड़ी केंद्रों और बालगृहों के लिए दी जाने वाली मदद भी कम की गई। इस कार्यक्रम के लिए भी मंहगाई जोड़कर देखें तो बजट में जब से मोदी सरकार ने शासन संभाला है 36 फीसदी की कटौती की गई है।
पोषण का लक्ष्य 2022 तक हासिल करने वाला प्रोग्राम पोषण अभियान भी कम बजट का शिकार हुआ है। इस मद में सरकार ने इस बार के बजट में 27 फीसदी की कटौती की है। पिछले साल के बजट में जितने पैसे का प्रावधान इस मद में था उसका महज 46 फीसदी ही अक्टूबर तक जारी हुआ है।
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इसके अलावा पेयजल और स्वच्छता विभाग का बजट अधिकारिक तौर पर 21,000 से बढ़कर 60,300 करोड़ हुआ है, लेकिन इसमें से 50,000 करोड़ तो केंद्रीय सड़क और ढांचा फंड के हैं। लेकिन इस आंकड़े को छिपा लिया गया। इस तरह ऐसे आंकड़े पेश कर दिए गए जिन्हें पिछले आंकड़े से तुलना करने में ही दिक्कत हो। बाल विकास योजना को पोषण अभियान के साथ जोड़ दिया गया, किशोर लड़कियों की योजना और राष्ट्रीय बाल गृह योजना को मिलाकर सक्षम नाम दे दिया गया। इस तरह पिछले बजट के मुकाबले इन मदों का बजट काट दिया गया।
गर्भवकी महिलाओं की योजना प्रधानमंत्री मातृ वंदना योजना को बेची बचाओ बेटी पढ़ाओ योजना के साथ जोड़ दिया गया, महिला शक्ति केंद्र और अन्य मदों की योजनाओं को सामर्थ्य नाम दे दिया गया। इस तरह इसके बजट में भी पिछले प्रावधान के मुकाबले 2858 करोड़ की कटौती कर दी गई।
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आयुष्मान भारत के लिए कोई बढ़ोत्तरी नहीं की गई और इस मद में 6400 करोड़ का ही प्रावधान है। न्यूनतम मजदूरी और आंगवाड़ी और मान्यता प्राप्त सामाजिक स्वास्थ्य कार्यकर्ता यानी आशा वर्करों के को स्वास्थ्य बीमा का लाभ नहीं दिया गया, जबकि प्रधानमंत्री मोदी इन्हें कोविड वॉरियर कहते नहीं थकते।
आंकड़े खुद नहीं सुधरते। उसके लिए सरकारी प्रयास करने होते हैं, लेकिन इस बजट में ऐसा नहीं हुआ। सरकार के इस कदम का क्या असर हुआ, इसका अनुमान तो अगले सर्वे के आंकड़े सामने आने के बाद ही लगाया जा सकेगा।
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