बिना किसी चर्चा के भारी विरोध वाले कृषि बिलों को जिस दुस्साहसी और क्रूर तानाशाही तरीके से सरकार ने पारित कराने का ऐलान किया है वह देश की लोकतांत्रिक प्रक्रिया के इतिहास में काले अध्याय के रूप में दर्ज हो गया है। संसद को बंधक बनाकर बिना चर्चा के पास किए गए कानून की लोकतांत्रिक और नैतिक वैधता ही सवालों के घेरे में आ गई है।
विधायी प्रक्रिया को धता बताकर जिस जल्दबाजी में इन कानून को पास कराने की जल्दबाजी दिखाई गई है उससे साबित हो गया कि सत्तापक्ष को न तो संसद की गरिमा की ही परवाह है और न ही किसी भी किस्म की असहमति की। अपने अस्तित्व और जीवनयापन स जुड़े कानून पर आंदोलनकारी किसानों की आवाज के प्रति असंवेदनशीलता, न सिर्फ पूरे किसान समुदाय को स्थाई रूप से अलग-थलग करने का कदम है बल्कि इस विश्वास में भी सेंध है कि शिकायतों के निवारण के लिए लोकतांत्रिक विरोध एक तरीका है। पंजाब जैसे संवेदनशील सीमावर्ती राज्य में, किसानों का असंतोष शांति और आंतरिक सुरक्षा को खतरे में डाल सकता है।
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इस कानून के गंभीर निहितार्थों को नजरअंदाज करने और नए कानून के खिलाफ विरोध प्रदर्शन को रोकने के लिए, केंद्र सरकार ने एक जिम्मेदार और जवाबदेह शासन के बुनियादी सिद्धातों की ही बलि दे दी। किसानों के साथ जंग के मूड में उतरी सरकार इसे मिले जनादेश का अपमान कर रही है।
यह साफ है कि एक कार्यशील लोकतंत्र में कोई भी ऐसा कानून, जिसे समाज या समुदाय का समर्थन नहीं मिलता है और समाज की संवेदनाओं को नजरंदाज करने वाली सरकार उसे फिर भी लागू कर देती है, तो ऐसे कानून को न तो मान्यता मिलती है और न ही लोग इसे मानने को तैयार होते हैं। स्वतंत्रता आंदोलन में महात्मा गांधी के नेतृत्व में हुए विरोध इसी निर्विवाद दार्शनिक आधार किए गए थे। विडंबना है कि औपनिवेशिक दौर में सीखे गए सबक को वर्तमान सत्तापक्ष ने हमारे बहादुर और सम्मानित किसान समुदाय पर आघात कर याद दिलाया है।
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हम जानते हैं कि कोई भी कानून कितना प्रभावी है वह इस बात पर निर्भर करता है कि वह कितना न्यायिक है और उसे ऐसा किस हद तक माना जाता है। कोरोना वायरस के इन कठिन समय में भी इन कृषि कानूनों के खिलाफ सड़कों पर उतरे किसानों का विरोध साफ जाहिर करता है कि ये कानून कम से कम उनके हितों के लिए तो नहीं ही है जिनके नाम पर इन्हें बनाया गया है।
पंजाब के मुख्यमंत्री का यह कथित बयान कि संसद में मनमानी कर पास कराए गए विधेयक को अदालत में चुनौती दी जाएगी, हमारी संघीय राजनीतिक व्यवस्था के कामकाज पर बड़ा सवाल उठाएगा। एक चुना हुआ है मुख्यमंत्री खुद को एक संवेदनशील मुद्दे पर गैर-जिम्मेदार केंद्र सरकार के खिलाफ कानूनी सहारा लेने के लिए मजबूर पाता है, तो साफ है कि हमारी संघीय व्यवस्था का भविष्य अच्छा नहीं है।
इन कानून के खिलाफ पंजाब में जोर पकड़ता किसानों का विरोध चिंता की बात है। एक ऐसे सीमावर्ती राज्य में जहां आंतकवाद का साया रहा है और जिसमें पाकिस्तान की तरफ से लगातार घुसपैठ की कोशिशें होती रहती हैं, वहां की प्रमुख आबादी का विरोध में सड़कों पर उतरना शांति को अस्थिर कर सकता है और राष्ट्रीय सुरक्षा पर प्रतिकूल प्रभाव डाल सकता है।
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यह मान भी लिया जाए कि इन बिलों के जरिए किसानों के हितों की रक्षा की गई है, तो फिर सरकार को इस सिलसिले में सभी हितधारकों और विरोध करने वाली राज्य सरकारों के साथ संवाद या चर्चा करने से कौन रोक रहा है? निश्चित रूप से भारत की राजनीतिक वास्तविकताओं की न्यूनतम समझ रखने वाला कोई भी व्यक्ति यह स्वीकार करेगा कि कोई भी पार्टी किसानों के हितों के खिलाफ खड़ी नहीं दिखेगी।
इन कानून को किसानों के हितों के लिए क्रूर और मौत का वारंट बताकर विरोध करने की मुख्य वजह यही है कि इससे किसानों को मिलने वाले फसलों के न्यूनतम समर्थन मूल्य की गारंटी खतरे में पड़ गयी है जो किसानों के अस्तित्व और रोजी-रोटी से जुड़ा मुद्दा है। पंजाब और हरियाणा जैसे राज्यों में इस कानून के जरिए मंडी व्यवस्था और न्यूनतम समर्थ मूल्य की समाप्ति की आहट मानते हुए किसानों ने अपना रुख बता दि. है। भले ही कानून के प्रति जनता की धारणा गलत हो, काननून की स्वीकृति के लिए आवश्यक शर्त के रूप में गलत धारणा को सही करना सरकार का दायित्व है। ऐसा नहीं किया गया है। इसके बजाय, हुआ यह कि एक अभिमानी सरकार ने विवादित कानून पर चर्चा कराना तो दूर, इसके लिए कोशिश तक नहीं की।
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देश की आबादी के एक बड़े हिस्से किसानों के साथ युद्ध में उतरकर सरकार ने शासन करने का अपना अधिकार को दिया है। निश्चित रूप से सरकार के लिए यह एक विघटनकारी और विघटित क्षण है।
(लेखक पूर्व केंद्रीय कानून मंत्री और राज्यसभा के पूर्व सदस्य हैं। व्यक्त किए गए विचार व्यक्तिगत हैं)
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