पत्रकारिता का एक परम्परागत नियम है- किसी भी खबर को लिखते समय दोनों पक्षों की बात को जनता तक पहुंचाना। पूरी दुनिया में अधिकतर पत्रकार इसी आधार पर समाचार लिखते हैं। पर, इस नियम में एक समस्या है- कुछ विषयों, खास तौर पर विज्ञान से जुड़े विषय, के तथ्यात्मक तौर पर दो पक्ष नहीं होते, बल्कि केवल एक पक्ष होता है। हाल के वर्षों में यह समस्या अनेकों बार सामने खड़ी रही है। जलवायु परिवर्तन और तापमान बृद्धि का भी विज्ञान और तथ्यों पर आधारित केवल एक पक्ष होता है, जबकि तथाकथित दूसरा पक्ष अफवाह और झूठ पर आधारित है। जब पत्रकार जलवायु परिवर्तन की खबर दोनों पक्षों के आधार पर लिखते हैं, तब इसे पढ़ने वाले भ्रमित होते हैं, और जलवायु परिवर्तन और इसके प्रभावों पर पक्का विचार नहीं बना पाते हैं। जलवायु परिवर्तन एक फैक्ट है, जबकि इसके विरुद्ध लिखना एक तरीके का फिक्शन है।
जर्नल ऑफ़ एप्लाइड रिसर्च इन मेमोरी एंड कॉग्निशन में नार्थवेस्टर्न यूनिवर्सिटी के स्कूल ऑफ़ एजुकेशन एंड सोशल पालिसी के मनोवैज्ञानिकों के एक दल का शोधपत्र इस विषय पर प्रकाशित किया गया है। इसके अनुसार दोनों पक्षों की राय प्रस्तुत करने के मामले में कोविड 19 से बदतर स्थिति जलवायु परिवर्तन की है। कोविड 19 के दौर में विज्ञान और चिकित्सकों के अनुसार मास्क लगाने से कोविड 19 के संक्रमण को काफी हद तक रोका जा सकता था। दुनियाभर की सरकारों ने इसे अनिवार्य किया था। दूसरी तरफ अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प और ब्राज़ील के राष्ट्रपति जैर बोल्सेनारो ने लगातार मास्क का विरोध किया और जनता को भी मास्क नहीं पहनने की सलाह देते रहे। इनकी सलाह के बाद भी कम से कम स्वास्थ्य सेवाओं से जुड़े विशेषज्ञों ने लगातार मास्क पहनने की सलाह दी। कोविड 19 के सन्दर्भ में इस विषय पर रिपोर्टिंग में जब भी दोनों पक्षों की बात आई, तभी भ्रम की स्थिति पैदा हो गयी और इन समाचारों को पढ़ने वाली या देखने वाली जनता मास्क के मामले में लापरवाह होती चली गयी। फिर भी गनीमत यह थी कि 100 स्वास्थ्यकर्मियों में से महज एक ने ही मास्क नहीं पहनने की सलाह दी।
Published: undefined
यहां मीडिया से मतलब भारत को छोड़कर वैश्विक मीडिया से है। हमारे देश में मीडिया के लिए केवल एक पक्ष है, वही पक्ष जो प्रधानमंत्री जी या फिर बीजेपी सामने रखती है। कोविड 19 के सन्दर्भ में यह थाली बजाओ, मोमबत्तियां जलाओ, गोबर से नहाओ, गौ-मूत्र पीयो, ऑक्सीजन की कमी नहीं हुई थी, या फिर उतने लोगों की ही मृत्यु हुई जितना सरकार ने बताया- के तौर पर हमें मीडिया दिखा चुका है। इन सबके दूसरे पक्ष को मीडिया ने कभी बताया ही नहीं। हमारे देश के मीडिया को मीडिया कहना ही मीडिया शब्द का अनादर है। जलवायु परिवर्तन के सन्दर्भ में भी देखें तो मीडिया हमें नहीं बताता कि तापमान, भू-स्खलन, बाढ़ और सूखा जैसी आपदाएं जलवायु परिवर्तन के कारण बढ़ रही है, बल्कि वह ऐसी आपदाओं को सरकारी लहजे में महज प्राकृतिक आपदाएं करार देता है।
दुनिया में ग्रीनहाउस गैसों का तीसरा सबसे बड़ा उत्सर्जक होने के बाद भी प्रधानमंत्री जी कहते हैं कि जलवायु परिवर्तन में हमारे देश का कोई योगदान नहीं है और मीडिया भी यही साबित करने में लगा रहता है। मीडिया को देश में नवीनीकृत उर्जा स्त्रोतों में बढ़ोत्तरी नजर आती हैं, पर कोयले के बढ़ते उपयोग पर मीडिया खामोश रहता है।
Published: undefined
इस शोधपत्र के अनुसार जलवायु परिवर्तन से सम्बंधित दोनों पक्षों पर आधारित समाचार महज एक छलावा है क्योंकि ऐसे विषयों पर तथ्य केवल एक तरफ ही रहता है, दूसरा पक्ष तो कपोर कल्पना होती है। विज्ञान पिछले चार दशकों से लगातार जलवायु परिवर्तन और तापमान बृद्धि के बारे में सचेत करता रहा है – इसका कारण मानव की गतिविधियों से उत्सर्जित ग्रीनहाउस गैसें हैं, इन गैसों की वायुमंडल में सांद्रता लगातार बढ़ रही है, इसके चलते चरम आपदाओं की संख्या बढ़ रही है, दुनियाभर के ग्लेशियर पिघल रहे हैं और महासागरों का तल बढ़ता जा रहा है। दूसरी तरफ दुनिया में समाज और राजनेताओं का एक बड़ा वर्ग यह सब एक कपोर कल्पना मानता है।
ऐसी कल्पना को मूर्त रूप देने में बड़ी पेट्रोलियम कंपनियों की बड़ी भूमिका है। इन पेट्रोलियम कंपनियों को पता है कि दुनिया में ग्रीनहाउस गैसों का सबसे अधिक उत्सर्जन वही करती हैं और यदि सरकारों ने और जनता ने इस वैज्ञानिक तथ्य को समझ लिया तो उनका कारोबार बंद हो जाएगा। इसीलिए ये पेट्रोलियम कम्पनियां समाज में सरकारों द्वारा और मीडिया द्वारा जलवायु परिवर्तन के विरुद्ध बड़े पैमाने पर अफवाह फैलाने का काम करती हैं। सोशल मीडिया के दौर में यह काम पहले से भी अधिक आसान हो गया है। हाल में ही यूनाइटेड किंगडम के साथ ही यूरोप के दूसरे देश रिकॉर्डतोड़ गर्मी झेल रहे थे, वैज्ञानिक लगातार इसे जलवायु परिवर्तन का प्रभाव बता रहे थे, जबकि अनेक प्रतिष्ठित समाचार पत्र दोनों पक्षों की बात रखने के क्रम में जलवायु परिवर्तन जैसी कोई चीज नहीं है, यह मानव की देन नहीं है, यह प्राकृतिक आपदाएं हैं जो पहले भी आती रही हैं- जैसी भ्रांतियों का प्रसार कर रहे थे।
Published: undefined
पिछले कुछ दिनों के दौरान कुछ खोजी पत्रकारों ने इनमें से अधिकतर पत्रकारों के पेट्रोलियम कंपनियों से सम्बन्ध स्थापित किये हैं। जलवायु परिवर्तन की तथ्यात्मक और वैज्ञानिक रिपोर्टिंग पाठकों पर असर डालती है और वे इसके बारे में और इसे रोकने के सरकारी प्रयासों के बारे में गंभीरता से सोचते हैं। पर, अफ़सोस यह है कि यह गंभीरता कुछ दिनों में ही ख़त्म हो जाती है। यह निष्कर्ष प्रोसीडिंग्स ऑफ़ नेशनल एकेडमी ऑफ़ साइंसेज नामक जर्नल में प्रकाशित एक शोधपत्र का है। इस अध्ययन को ऑहियो स्टेट यूनिवर्सिटी के राजनीति विज्ञान के प्रोफ़ेसर थॉमस वुड की अगुवाई में किया गया है। इस शोधपत्र में कहा गया है कि मीडिया की नीति केवल नए समाचार दिखाने की है, इसलिए जलवायु परिवर्तन और तापमान बृद्धि के समाचार या विश्लेषण लम्बे अंतराल के बाद आते हैं। यदि, इससे सम्बंधित तथ्यात्मक समाचार और विश्लेषण बार-बार भी दिखाए जाएं या प्रकाशित किये जाएं, तब जलवायु परिवर्तन से खतरे पर लोग अधिक भरोसा करेंगें और इसका कारण मानव की गतिविधियां हैं, इसपर अधिक भरोसा करेंगें।
इस तरह की पत्रकारिता से एक वैज्ञानिक तथ्य पर भी जनता गुमराह होने लगती है और फिर जनता मानने से इनकार कर देती है कि जलवायु परिवर्तन मानव अस्तित्व के लिए एक बड़ी चुनौती है। जाहिर है, एक गंभीर समस्या जिसपर त्वरित ध्यान देने की आवश्यकता है, एक हल्की-फुल्की समस्या बन कर रह जाती है। जब जनता के लिए यह समस्या गंभीर नहीं रहती, तब सरकारें भी जलवायु परिवर्तन नियंत्रित करने के लिए लचर रवैय्या अपनाती हैं और यही पूरी दुनिया में हो रहा है।
Published: undefined
इस अध्ययन के मुख्य लेखक मनोवैज्ञानिक डेविड रप्प के अनुसार पिछले दो महीनों से पूरा यूरोप और अमेरिका बाढ़, जंगलों की आग और रिकॉर्डतोड़ गर्मी के तौर पर जलवायु परिवर्तन के प्रभाव झेल रहा है, और इस दौरान अधिकतर समाचारपत्रों ने दोनों पक्षों के विचार के नाम पर अपने पाठकों के मन में जलवायु परिवर्तन से सम्बंधित शंकाएं डाल दी हैं। अब तो जंगलों की आग से बेघर हो रहे लोग भी यह प्रश्न करने लगे हैं कि जलवायु परिवर्तन और तापमान बृद्धि क्या मानव की देन है। इस अध्ययन के अनुसार दोनों पक्षों की रिपोर्टिंग के नाम पर मीडिया ने कोविड 19 की तुलना में अधिक बड़ी शंकाएं जलवायु परिवर्तन से सम्बंधित खड़ी की हैं। स्वास्थ्य सेवाओं से जुड़े महज एक प्रतिशत लोग मास्क को गैर-जरूरी बताते थे, पर पेट्रोलियम लॉबी के असर के कारण वैज्ञानिकों में भी लगभग 50 प्रतिशत जलवायु परिवर्तन के नाम पर अफवाह और अवैज्ञानिक विवेचना को बढ़ावा देते हैं।
इस अध्ययन के अनुसार जलवायु परिवर्तन की रिपोर्टिंग में दूसरे पक्ष की कोई भूमिका ही नहीं है, इसलिए इसपर रिपोर्टिंग के दौरान केवल वैज्ञानिक तथ्यों को ही प्रस्तुत करना चाहिए। पर, यदि आप दोनों पक्षों के आधार पर रिपोर्टिंग करना ही चाहते हैं तब दूसरे पक्ष को अपेक्षाकृत कम शब्दों में प्रस्तुत करना चाहिए। यदि आप ऐसा नहीं कर रहे हैं, तब निश्चित ही एक पत्रकार के तौर पर महज अफवाहों को और भ्रामक विचारों को आप जनता के बीच फैला रहे हैं।
Published: undefined
Google न्यूज़, नवजीवन फेसबुक पेज और नवजीवन ट्विटर हैंडल पर जुड़ें
प्रिय पाठकों हमारे टेलीग्राम (Telegram) चैनल से जुड़िए और पल-पल की ताज़ा खबरें पाइए, यहां क्लिक करें @navjivanindia
Published: undefined