तय तो यही किया था कि सुरों की इस देवी पर कोई शोक लेख (मृत्यु लेख) नहीं लिखूंगा। मृत्यु लेख तो मृत लोगों के लिए लिखे जाते हैं। देवी की मृत्यु नहीं हो सकती। जब तक उनका एक भी गीत हमारे जहन में है, वह जीवित हैं। हजारों नहीं, उनका कोई एक गीत चुन लीजिए… रैना बीती जाए, आज सोचा तो आंसू भर आए, ऐ दिलरुबा, कितनी दर्द भरी ये रात है, अबके ना सावन बरसे, सावन के झूले पड़े… -इनमें से हर गीत संभवतः इस ब्रम्हाण्ड में गाए गए सारे गीतों पर भारी है। मंगेशकर एकाधिकार की बात करने वालों को अब इन्हें फिर से सुनना चाहिए। मैं उनके 200 गानों की सूची दे सकता हूं जिनमें कोई भी पिकासो की मोनालिसा या कोहिनूर से कम नहीं है।
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आरडी बर्मन निर्देशित ‘आजाद’ का गाना ‘मैं हूं तेरी प्म दीवानी, मेरे सैंया रे मेरा राजा दिलजानी’ उनके रत्नों में भले न शामिल करूं लेकिन 1978 में पहली बार रिलीज होने के बाद कम-से-कम 500 बार तो इसे सुन ही चुका हूं। पता नहीं, उन्होंने इसे कैसे गाया होगा लेकिन जैसे वह दो पंक्तियों के बीच ठहराव लेती हैं, मध्यम से उच्च सप्तम में जाती हैं, मुझे नहीं लगता कि दुनिया का कोई भी गायक, यहां तक कि तानसेन और भीमसेन जोशी या लुसियानो पावारोत्ती भी कर पाते। वह उत्कृष्टता की किसी भी मानवीय व्याख्या से परे हैं।
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उनके जाने के बाद उनकी प्रशंसा करने में संकोच हो रहा है। तय किया था कि नहीं करूंगा। उनकी विदाई के किसी ‘कोरस’ में शामिल नहीं होऊंगा। लेकिन फिर जब पंडित नेहरू के लिए गाने के बाद भगवा हो जाने जैसे आरोपों वाली कुछ निहायत घटिया टिप्पणियां देखीं, उनकी राजनीतिक प्रतिबद्धता पर सवाल उठते देखे, तो मन बदल गया। लताजी का ‘अल्लाह तेरो नाम/ईश्वर तेरो नाम’ महज एक शब्दाडंबर नहीं है। उनके निधन पर अगर पाकिस्तान भी शोक मनाता है तो महज इसलिए कि उन्होंने समस्त मानवता के लिए गाया, न कि महज इतिहास में दर्जकराने के लिए। उनके गीतों में न भगवा रंग था, न हरा, इनके तो अपने रंग थे। वे अपने आप में एक धर्म हैं, जीवंत रंगों और भावनाओं की अतल गहराइयों के साथ। इनकी मानवीय परिभाषा संभव नहीं। उनके निधन के बाद वाणी जयराम, हेमलता, प्रीति सागर और सुमन कल्याणपुर जैसी कितनी ही गायिकाओं के कॅरियर खराब करने के आरोप लगे। इन सभी के प्रति सम्मान के साथ कहना चाहूंगा कि लताजी की प्रतिस्पर्धा में तो इस दुनिया में कोई नहीं हो सकता। वह इस दुनिया की थीं ही नहीं। हम ‘लता भक्त’ तो यही मानते हैं कि यह सरस्वती का पुनर्जन्म था।
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उन्होंने मंगेशकर एकाधिकार स्थापित किया… बहन को नहीं गाने दिया… मूडी थीं, रिकार्डिंग रद्द कर देती थीं… जाने कितनी गलफहमियां फैलाई गईं। महज इसलिए कि उन्होंने कभी इस सबकी परवाह नहीं की। अब समय आ गया है कि भावी पीढ़ी के लिए ही सही, इन्हें दुरुस्त किया जाए।
वह नई प्रतिभाओं को हतोत्साहित करती थीं? यह सवाल किसी ने उन नई प्रतिभाओं से क्यों नहीं पूछा जो हतोत्साहित हुईं? मसलन, सुमन कल्याणपुर के बारे में कहते हैं कि लताजी के कारण उनका कॅरियर खराब हो गया लेकिन उन्होंने तो लताजी के लिए हमेशा सर्वोच्च सम्मान बनाए रखा। मंगेशकरवाद की एक और ‘शिकार’ बताई जाने वाली अनुराधा पौडवाल को उनका पहला शहकार गीत ‘तू मेरा जानू है’ लताजी की ही सिफारिश पर सुभाष घई की ‘हीरो’ में मिला। सुलक्षणा पंडित फिल्मी परदे पर अपने सारे गाने खुद गाना चाहती थीं लेकिन लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल और कल्याणजी-आनंदजी जैसे संगीतकारों ने लताजी को तरजीह दी। रूना लैला कल्याणजी-आनंदजी के लिए गाने भारत आईं तो लताजी जे उन्हें व्यक्तिगत तौर पर बधाई दी।
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एक बार बातचीत में उनसे ‘मंगेशकर एकाधिकार’ को लेकर सवाल कर दिया- “लता ही क्यों?”, बोलीं- “इसका जवाब तो संगीतकार ही दे सकते हैं। बताया कि एक बार एक बहुत बड़े गायक ने मदन मोहन भैय्या से यही सवाल पूछा। उन्होंने जवाब दिया, ‘जब तक लता है कोई और नहीं’। मैंने कभी किसी संगीतकार को किसी आवाज का इस्तेमाल करने से नहीं रोका।” बल्कि इसके विपरीत कई बार तो मैंने ऐसे कई गीतों के लिए दूसरे नाम सुझाए जो जो मेरे पास आते थे। एक घटना तो याद भी है जब महान अभिनेता-निर्माता ओम प्रकाश चाहते थे कि मैं उनकी एक फिल्म के लिए गाऊं। मैं खाली नहीं थी तो मैंने किसी दूसरी गायिका का नाम सुझाया। कुछ दिन बाद ओमप्रकाश जी से मुलाकात पर मैंने पूछा- रिकार्डिंग कैसी रही? वह थोड़ी देर चुप रहे फिर बोले- ‘गाना तो ठीक गाया लेकिन गायिका ने आपके लिए बहुत बुरा-भला कहा।’ मैं हंसी, और ओम प्रकाश जी से कहा, आप परेशान न हों! मुझे इस सब की आदत है। नेकी करो और कुएं में डालो। मैंने खुद लताजी को अलका याज्ञनिक, कविता कृष्णमूर्ति, सुनिधि चौहान और श्या घोषाल स रे हित कई गायिकाओं की प्रशंसा करते सुना है।
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कहा तो यह भी जाता है कि बहन आशा भोंसले के कॅरियर में वह बड़ी बाधा थीं, यह कितना हास्यास्पद है क्या ही कहें! मुझे तो रोना आता है। इस तथाकथित प्रतिद्वंद्विता के बारे में एक सच्चाई यह भी है कि लताजी ने वास्तव में अपनी इस बहुमुखी प्रतिभाशाली बहन के लिए रास्ता कुछ इस तरह संवारा कि सारे धूम- धड़ाका वाले, पाश्चात्य गाने आशाजी की ओर स्वतः जा सकें।
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लताजी संगीतकारों से खुद कहती थीं कि कैबरे या डांस वाले गाने उनके अनुकूल नहीं हैं जो कि सच नहीं था। अगर आपने उन्हें हेलेन के लिए ‘आ जान-ए-जान’ और बिंदू के लिए ‘इस कदर आप हमको जो तड़पाएंगे’ गाते सुना है तो आपको मेरी बात का मतलब समझ में आ जाएगा। और यही कारण था कि ऐसे गाने आशा जी के पास गए। अगर लता जी अपनी बहन के लिए जगह बनाने को राजी न होतीं तो आशा जी के कॅरियर की गाड़ी इस तरह कभी न चल पाती। यह तथाकथित दुश्मनी पेशागत प्रतिद्वंद्विता का मामला नहीं था, यह उन ‘शुभचिंतकों’ द्वारा आशाजी के मन में मां जैसी बहन के लिए जहर घोलने का नतीजा था।
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लताजी ने एक बार बहुत दुखी होकर मुझसे कहा था- “हम प्रतिद्वंदी कैसे हो सकते हैं? मैं उसका कॅरियर क्यों रोकंगी? वह मेरी अपनी बहन है! हमारे अपने मतभेद थे। मैंने उसे बहुत जल्दी शादी के खिलाफ चेताया था, दुर्भाग्य से जो सही साबित हुआ। लेकिन जहां तक हमारी पेशागत प्रतिद्वंद्विता का मामला है, वह कभी रहा ही नहीं।आशा जो कर सकती थी, वह मैं कभी नहीं कर पाई। कुछ अराजक लोगों ने उसे विश्वास दिलाया था कि ‘ऐ मेरे वतन के लोगों’ मैंने उससे छीना है। ऐसा नहीं था।”
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