पिछले महीने सुप्रीम कोर्ट ने 103वें संविधान संशोधन को मंजूरी दे दी। उसे हिंदुत्व के कट्टर समर्थक हमारे मध्य वर्ग ने सराहा है। उनका मानना है कि जाति पर ध्यान दिए बिना सभी हिंदुओं के लिए आरक्षण खोलना के दरवाजे खोलना यह जाहिर करता है कि हिंदुत्व समावेशी है और अन्य दल जातिवाद की प्रवृत्ति के कारण विभाजनकारी हैं, लेकिन वे ऐसा मानते हैं कि भारतीय जनता पार्टी जाति से ऊपर है।
लेकिन क्या ऐसा है? क्या इससे जाति व्यवस्था को अस्वीकार किया गया है और अगर नहीं, तो इसका हिंदू समाज में प्राथमिक दोष रेखा से किस तरह का रिश्ता है?
राष्ट्रवाद और धर्म पर आधारित अन्य विचारधाराओं की तरह हिंदुत्व भी विचारकों की ऐसी जमात पैदा नहीं करता है जितने कि इसे मानने वालों को और इसीलिए इस मामले में कुछ खास सामग्री की कमी है। दरअसल बौद्धिक रूप से सिर्फ एक व्यक्ति एम एस गोलवलकर की सोच पर आधारित है, जिन्होंने 1940 से लेकर 30 से अधिक वर्षों तक आरएसएस का नेतृत्व किया और इसकी विचारधारा और इसकी सफलता के लिए मुख्य रूप से श्रेय उन्हें ही दिया जाता है।
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प्रधानमंत्री ने गोलवलकर की एक जीवनी लिखी है, जिसे सिवाए चापलूसी के कुछ नहीं कहा जा सकता, इसमें उन्होंने उनकी तुलना बुद्ध, महावीर और बी आर अंबेडकर से की है। यदि जाति के बारे में हिंदुत्व का कोई दृष्टिकोण है, तो वह सिर्फ गोलवलकर से आता है। आइए इसकी थोड़ी पड़ताल करते हैं।
गोलवलकर की मुख्य कृति ‘बंच ऑफ थॉट्स’ नामक पुस्तक है। जैसा कि नाम से ही पता चलता है, यह विशेष रूप से एकीकृत नहीं है और काफी बिखरा हुआ विवरण है, इसमें कई बातों पर उनकी राय सामने आती है, ज्यादातर इस बारे में कि वह अल्पसंख्यकों को कितना नापसंद करते हैं, और उनके मुताबिक अल्पसंख्यक जन्म से ही भारत के दुश्मन हैं।
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वह हिंदुओं को ऐसे लोगों के रूप में परिभाषित करते हैं जिनमें "ईश्वर की प्राप्ति की ललक" है। हालांकि, यह वह ईश्वर नहीं है जिसे एक खास रूप में लोग पहचानते हैं। गोलवलकर ने लिखा है, कि यह ईश्वर एक जीवित भगवान है, न कि एक मूर्ति या उसका अभौतिक रूप। "निराकार और निर्गुण (यानी बिना गुण के) और वह सब जो हमें कहीं नहीं ले जाता।" मूर्ति पूजा "हमें संतुष्ट नहीं करती है क्योंकि इसमें कई गतिविधियां हैं।" हम एक 'जीवित' ईश्वर चाहते हैं, जो हमें गतिविधि में तल्लीन करे और हमारे भीतर शक्तियों का आह्वान करे।" यह जीवित ईश्वर भारतीय राष्ट्र है, लेकिन गोलवलकर के अनुसार राष्ट्र-देवता में सभी समुदाय शामिल नहीं हैं, बल्कि केवल एक है। उनके शब्दों में:
"हमारे लोग ही हमारे ईश्वर है, ऐसा हमें हमारे पूर्वजों ने बताया है। लेकिन सभी लोग नहीं। रामकृष्ण परमहंस और विवेकानंद ने कहा था 'मनुष्य की सेवा करो'। लेकिन मानवता के अर्थ में 'मनुष्य' बहुत व्यापक है और इसे समझा नहीं जा सकता। यह कुछ सीमाओं के साथ सर्वशक्तिमान होना चाहिए। यहाँ 'मनुष्य' का अर्थ हिन्दू लोग हैं। हमारे पूर्वजों ने हिंदू शब्द का प्रयोग नहीं किया था, लेकिन उन्होंने कहा था कि सूर्य और चंद्रमा उनकी आंखें हैं, सितारे और आकाश उनकी नाभि से निर्मित हैं और वह ब्राह्मण उसका शीश (सिर) हैं, हाथ उसके राजा हैं, उसकी जांघ वैश्य हैं और उसके पैर शूद्र हैं। वह इसे आगे लिखते हैं: "इसका मतलब यह है कि जिन लोगों के बीच चार स्तरीय व्यवस्था है, यानी हिंदू लोग, हमारे भगवान हैं।" इस समाज की सेवा तो ईश्वर की सेवा है।”
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वे तर्क देते हैं कि इस जाति आधारित समाज की पूजा की जानी चाहिए। गोलवलकर के अनुसार जाति के माध्यम से सामाजिक व्यवस्था की रचना भेदभाव नहीं है। जाति में ऊँच-नीच की भावना हाल ही में पैदा हुई है, जो "अंग्रेजों की फूट डालो और राज करो" की नीति का परिणाम है। गीता कहती है कि जो लोग अपने निर्धारित जाति कर्तव्य करते हैं वे भगवान की पूजा कर रहे हैं।”
दरअसल, उन्होंने जाति व्यवस्था को विनाशकारी न मानते हुए भारत के लिए फायदेमंद माना है। दलित बुद्धिजीवी चंद्र भान प्रसाद ने कहा है कि कई सहस्राब्दियों तक केवल ब्राह्मण ही ज्ञान के प्रभारी थे और फिर भी भारत में पृथ्वी पर सबसे अधिक निरक्षर हैं; कि क्षत्रिय रक्षा के प्रभारी थे लेकिन भारत पृथ्वी पर सबसे अधिक आक्रमण किए गए स्थानों में से एक है; और वैश्य वाणिज्य के प्रभारी थे और भारत अभी भी पृथ्वी पर सबसे गरीब देशों में से एक है।
गोलवलकर के विचार इसके विपरीत हैं। वह कहते हैं कि हमारे पतन के लिए जाति व्यवस्था जिम्मेदार नहीं है, वे लिखते हैं: "पृथ्वीराज चौहान अपने ही जाति वाले व्यक्ति जयचंद से हार गए थे। राणा प्रताप को मान सिंह ने परेशान किया था। 1818 में पूना में हिंदुओं की हार उनकी ही जाति के पेशवा से हुई, जिसका नाम नटू था जिसने ब्रिटिश झंडा फहराया था। गोलवलकर लिखते हैं कि भारत इस्लाम के हमले का सामना करने में सक्षम था, लेकिन अफगानिस्तान, जो बौद्ध और जाति-मुक्त था, मुस्लिम बन गया।
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उनका मानना था कि यह जाति ही है जिसने हिंदुओं के अस्तित्व को सुनिश्चित किया है। उन्हें लगता था कि जाति विभाजन ने आर्थिक शक्ति (वैश्यों) को राज्य (क्षत्रियों) के हाथों से दूर रखा। इसने उन लोगों को, जो धन संपदा पैदा कर रहे थे, सभी राजनीतिक शक्तियों से वंचित कर दिया। "और इन सबसे ऊपर, ये दो शक्तियाँ ऐसे निस्वार्थ पुरुषों की देखरेख के अधीन थीं जिनके पास कुछ करने का कोई शस्त्र नहीं था।" ये निस्वार्थ लोग अवश्य ही ब्राह्मण थे।
उन्होंने लिखा है कि, "आध्यात्मिक अधिकार का राजदंड धारण करने वाले ऐसे व्यक्तियों की निरंतर परंपरा है, जो इन दो शक्तियों में से किसी के द्वारा किए गए किसी भी अन्याय को समाप्त करने के लिए हमेशा सतर्क थे, जबकि वे स्वयं सत्ता या धन के सभी प्रलोभनों से ऊपर रहते थे। इसी ने हमारे प्राचीन राष्ट्र की महिमा और वास्तविक अमरता की स्थापना की।
जाति को लेकर हमारे मध्यवर्ग की आज जो सोच है, गोलवलकर की सोच भी वही थी। मसलन, गोलवलकर को लगता था कि अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति जैसे शब्दों से अलगाव पैदा होता है। तो फिर हर किसी को सिर्फ ‘हिंदू’ ही क्यों नहीं कहा जाता?
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गोलवलकर के लिए, मंदिर में प्रवेश की समस्या भेदभाव की नहीं है बल्कि इसे छिपाए रखने की थी। अगर दलित अपनी जाति की घोषणा नहीं करते हैं तो पुजारी उन्हें पूजा करने देंगे। लेकिन दलितों को तो उनके ऊपर हुए अत्याचारों की कहानियां बढ़ा-चढ़ाकर पेश की जाती रही हैं।
वे आगे लिखते हैं कि, उत्तर प्रदेश में, “ऐसे पर्चे बांटे गए कि हरिजन समुदाय पर हिंदू उच्च जातियों ने हमला कर दिया है, लेकिन जातीय हिंदुओं का एक भी परिवार वहां नहीं रहता था। जाहिर है कि मुस्लिमों द्वारा किए गए हमले को एक अलग रूप देकर अत्याचार का नाम दे दिया गया। मुझे संदेह है कि इस सिस्टेमैटिक प्रोपेगेंडा के पीछे विदेशी हाथ है। वरना तो कोई कारण नहीं है कि ऐसी खबर को इतनी प्रमुखता से सामने लाया जाए।”
यही वह सोच है जिसके आधार पर 103वें संविधान संशोधन की जमीन तैयार हुई, जिसमें जाति से ऊपर उठकर आरक्षण देने की बात की गई है। लेकिन तथ्य यह है कि हिंदुत्व चाहता है कि भारतीय जाति की अर्चना करें, लेकिन इस बारे में बात करने से बचता है।
(लेख में प्रस्तुत विचार लेखक के निजी विचार हैं।)
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