विचार

गांधी जयंती विशेष: सामाजिक-आर्थिक विषमता और शोषण के रहते समाज में शांति सम्भव नहीं

1977-78 में हम गांधी की इज्जत तो करते थे लेकिन उनको क्रांतिकारी नहीं मानते थे। लेकिन जब सामाजिक वास्तविकताओं से रुबरु होने लगे और जमीनी संघर्षों से जूझने लगे तो समझ में आने लगा कि जिस रास्ते पर हमलोग बढ़ रहे हैं वह तो गांधी का ही रास्ता है।

फोटो: सोशल मीडिया
फोटो: सोशल मीडिया हमलोग गांधी के रास्ते पर ही बढ़ रहे हैं

कई लोगों को गांधी का रास्ता अव्यवहारिक लगता है। जब मैं स्कूल का छात्र था तभी मैंने गांधी जी की आत्मकथा (सत्य के प्रयोग) पढ़ी थी और उससे बहुत प्रभावित हुआ था। उस वक्त मैंने उनकी सीख को जीवन में उतारने की कोशिश की तो असफलता, उपहास और निराशा झेलनी पड़ी। तब मुझे भी ऐसा लगने लगा था कि गांधी का रास्ता शायद व्यवहारिक नहीं है। मेरा किशोर मन समाज परिवर्तन के सपने लिए नए रास्ते की तलाश में जुट गया। 1968-69 का साल रहा होगा। मैं कॉलेज की पढ़ाई के लिए गांव से मुजफ्फरपुर आ चुका था। तब मुजफ्फरपुर (बिहार) का मुशहरी प्रखंड और मुंगेर जिले के सूर्यगढ़ा प्रखंड में सशस्त्र नक्सलबाड़ी आंदोलन चरम पर था। नक्सलवादियों ने जब कुछ सर्वोदयी कार्यकर्ताओं की हत्या करने का इरादा जाहिर किया और उनकी सूची जारी की तो जयप्रकाश नारायण अपनी पत्नी प्रभावती देवी के साथ मुशहरी पहुंचे। उनकी तरुण शांति सेना भी पहुंची। ये लोग अहिंसक क्रांति का संदेश देने लगे। तब मुजफ्फरपुर की दीवारों पर दो तरह के नारे लिखे होते थे। नक्सलवादी सशस्त्र क्रांति में विश्वास करनेवालों का नारा था, “खून खून पूंजीपतियों का खून।”

दूसरी ओर जेपी की तरुण शांति का नारा लिखा होता था, “जुल्म करो मत, जुल्म सहो मत।” उस समय हमारा किशोर मन इन दोनों प्रकार के नारों से प्रभावित हुआ था। जयप्रकाश नारायण ने सशस्त्र संघर्ष में लगे लोगों से से बात शुरू की। वे गांव-गांव घूमने लगे, जमीनी सच्चाइयों को अपनी आंखों से देखा। उन्होंने महसूस किया कि सामाजिक आर्थिक विषमता और शोषण के रहते समाज में शांति सम्भव नहीं है। परिवर्तन के लिए शांतिमय जन संघर्ष जरूरी है। मुशहरी के अनुभव से जेपी को भी एक नया रास्ता मिला और उन्होंने ‘फेस टू फेस’ (आमने सामने) नामक एक पुस्तिका लिखी। नई पीढी केे लोग यह जानकर चौंक सकते हैं कि जेपी की उस पुस्तिका की भूमिका श्रीमती इंदिरा गांधी ने लिखी थी। इस पुस्तिका से मेरे जैसे युवाओं को आगे का रास्ता दिखाई पड़ा था। इस प्रसंग को अभी यहीं विराम देते हैं।

1977-78 में हम गांधी की इज्जत तो करते थे लेकिन उनको क्रांतिकारी नहीं मानते थे। लेकिन जब सामाजिक वास्तविकताओं से रुबरु होने लगे और जमीनी संघर्षों में जूझने लगे तो समझ में आने लगा कि जिस रास्ते पर हमलोग बढ़ रहे हैं वह तो गांधी का ही रास्ता है। बिहार में भूमि पर उन भूमिपतियों का नाजायज कब्जा रहा है जो खुद खेती नहीं करते। बिहार में चली आ रही जातिवादी मानसिकता और सामंती शोषण का यह बड़ा आधार रहा है। बिहार की आर्थिक तरक्की में भी यह बहुत बड़ी बाधा रही है। आजादी की लड़ाई के दौरान स्वामी सहजानन्द सरस्वती ने भूमिहीन किसानों की लड़ाई शुरू की थी। समाजवादियों और कम्युनिस्टों ने भी जमीन की लड़ाई में बड़ी भूमिका निभाई थी। तब ये सब लोग कांग्रेस के अंदर ही स्वतन्त्रता के आंदोलन के महत्वपूर्ण हिस्से थे। आजादी के बाद भी पूरे बिहार में भूमि आंदोलन चला लेकिन भूमि का पुनर्वितरण बहुत कम हुआ। पूर्णिया में नक्षत्र मालाकार ने शोषक जमींदारों की नाक में दम कर रखा था। उस समय भूमि आंदोलन का विरोध करने वाले मजाक उड़ाते थे, “धन और धरती बंट के रहेगी, हम्मर तोहर छोड़कर।” यह एक कड़वी सच्चाई है कि उस जमाने में भूमि आंदोलन चलाने वाले बड़े नेताओं ने अपनी खुद की सीलिंग से फाजिल जमीन भूमिहीन किसानों के बीच नहीं बांटी। एक अपवाद जयप्रकाश नारायण थे। आजादी के काफी पहले एकबार उन्हें बिहार के गया जिले में भूमि आंदोलन का नेतृत्व करना था। पहले वे अपने गांव गए। उन्होंने अपनी 400 बीघे पुस्तैनी जमीन अपने गांव के 400 भूमिहीन किसानों के बीच बांट दी उसके बाद ही वे भूमि आंदोलन का नेतृत्व करने गए।

यह बात 1975 की शुरुआत में इस लेखक को वहां के गांववालों ने बताई थी। ज्यादातर नेताओं की कथनी और करनी का यह अंतर भूमि आंदोलनों की असफलता का एक महत्वपूर्ण कारण रहा है।विनोबा भावे के भूदान आंदोलन के दौरान बिहार(तब झारखण्ड भी बिहार में ही था) में लगभग 22 लाख एकड़ जमीन दान में मिली थी। लेकिन बहुत कम जमीन भूमिहीनों को मिल सकी। बहुत सी जमीन नदी या पहाड़ के रूप में थी, कुछ बंजर थी। आज भी लाखों भूदान किसान ऐसे हैं जिन्हें जमीन का पर्चा तो मिला लेकिन भूदाताओं ने अपना कब्जा नहीं छोड़ा या फिर से कब्जा कर लिया।ऐसी परिस्थिति में 1967 के आसपास पश्चिम बंगाल के नक्सलबाड़ी से सशस्त्र नक्सलवादी आंदोलन शुरू हुआ था जो बाद में बिहार और देश के अन्य हिस्सों में फैल गया था। लेकिन देश की जटिल सामाजिक,आर्थिक,सांस्कृतिक संरचना को न समझ पाने और उसके अनुरूप रणनीति विकसित न कर पाने के कारण यह सीमित प्रभाव ही डाल सका और धीरे धीरे सिमट गया। भारतीय समाज सशस्त्र संघर्ष का तनाव भी ज्यादा समय तक स्वीकार नहीं कर पाता। लेकिन यह धारणा भी सही नहीं है कि पुलिस की सख्ती से ही ऐसे संघर्षों को दबाया जा सकता है।

बिहार में मठों, मंदिरों के नाम पर भी लाखों एकड़ जमीन पर भूमिपतियों का कब्जा रहा है। ऐसा ही एक मठ है बोधगया का शंकर मठ। 1978 में इस मठ के महन्थ थे धनसुख गिरी। लेकिन मठ की असली सत्ता मठ के मैनेजर जयराम गिरी के हाथों में थी। जयराम गिरी बिहार सरकार में धार्मिक न्यास मंत्री रह चुके थे। उनका बड़ा रुतबा था। जब भी गया जिले में कोई नया एसपी या डीएम आता तो मठ में हाजिरी लगाता। मठ की ओर से उन्हें दूध पीने के लिए एक गाय दी जाती। इस मठ के कब्जे में लगभग 10 हजार एकड़ जमीन 22 जाली ट्रस्टों और 448 नकली नामों (बेनामी) पर थी।भूमिहीन मजदूर (जो ज्यादातर भुइयां जाति के थे) का भयानक शोषण हो रहा था। जैसे ही किसी की बेटी या बीटा 8-10 साल का होता उसकी शादी कर दी जाती। शादी के लिए मठ से कुछ अनाज और पैसा मिलता था जिसके एवज में लड़का लड़की दोनों को मठ का बंधुआ बना लिया जाता था।खेत में दिनभर की मेहनत के बाद 3 सेर ( कच्ची) यानी लगभग 450 ग्राम धान मिलता था। साथ में आधा सेर (कच्ची) यानी 225 ग्राम भूसे सहित धन का सत्तू मिलता था। इसके साथ महुआ खरीदकर शराब बनाने के लिए थोड़ा पैसा मिलता था जिसे पियांकी कहते थे। कड़ी धूप, बरसात या कड़ाके की ठंढ में दिनभर के कड़े परिश्रम के बाद भुइयां लोग मिट्टी की हंडिया में घर की बनी शराब पीकर अपनी पत्नियों, बच्चों को पीटते। अपने ऊपर हो रहे अन्याय शोषण पर सोचने की उनकी शक्ति कुंठित कर दी गई थी। इतना ही नहीं, हर गांव में मठ की ओर से भुइयां जाति का ही एक ओझा रखा जाता था। जब किसी के पेट में तेज दर्द होने लगता, उल्टी होती, किसी को तेज बुखार होता तो ओझा को बुलाया जाता। ओझा एक बोतल दारू और एक मुर्गा लेता और देवता या भूत खेलाने का नाटक करता। वह बताता कि इस आदमी ने मठ की जमीन से फसल चुराई है इसीलिए इसे देवता या भूत ने पकड़ लिया है। ओझा भूत छुड़ाता। ऐसा था मठ के शोषण का चक्रव्यूह।

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ऐसी परिस्थिति में हमलोगों ने जब छात्र युवा संघर्ष वाहिनी और मजदूर किसान संघर्ष समिति की ओर से मठ के भूशोषन के खिलाफ आंदोलन की तैयारी शुरू की तो गांव में मीटिंग करना भी मुश्किल था। शाम में जब बैठक शुरू होती तो नशे में लोग आपस में लड़ाई झगड़ा करने लगते और मीटिंग भंग हो जाती। ऐसे में शराब के खिलाफ अभियान चलाना पहली जरूरत बन गई। महिलाएं और बच्चे शराब से त्रस्त थे। वे संगठित हुए और अपने अपने मिट्टी के घरों से शराब की हंडिया निकालकर फोड़ने लगे। बोधगया के बगल के गांव मस्तीपुर में जिस दिन यह शुरू हुआ तो शराब की लतवाले पुरुष अपनी अपनी पत्नी बच्चों को पीटने लगे थे लेकिन हंडिया का फोड़ना नहीं रुक।देखते ही देखते ही देखते हंडिया फोड़कर शराब बन्द करने का यह सिलसिला उस इलाके के सैंकड़ों गांवों में फैल गया। जल्दी ही हमारे साथियों की समझ में आ गया कि गांधी के नशाबंदी के कार्यक्रम को महज एक सुधारवादी काम समझते थे वह कितना क्रांतिकारी साबित हुआ। अगर शराबबंदी और ओझा गुनी के अंधविश्वास को समाप्त करने का सांस्कृतिक अभियान नहीं चला होता तो शोषण के शिकार लोग न तो संगठित हो पाते और न मठ के भूशोषन को उखाड़कर समाप्त कर पाते। इस शांतिमय भूमि आंदोलन में 167 मुकदमे हुए। बड़ी संख्या में लोग जेल गए।अहिंसक प्रतिरोध करते हुए रामदेव माझी और पांचू माझी मठ के गुंडों की गोली खाकर शहीद हुए, कई घायल भी हुए। लेकिन अंततः 10 हजार एकड़ जमीन पर भूमिहीन किसानों का कब्जा हुआ।बाद में सरकार ने पुरुषों के नाम जमीन के पर्चे दिए। इन सरकारी पर्चों को इस मांग के साथ वापस कर दिया गया कि महिलाओं के नाम दिए पर्चे ही स्वीकार होंगे।

कुछ दिनों की जद्दोजहद के बार सरकार हर महिलाओं के नाम जमीन के पर्चे दिए। छोटी उम्र में होने वाली शादियों पर सामाजिक रोक लगी। बाद में इस आंदोलन का प्रभाव यह हुआ कि पूरे गया जिले के भूमिहीन किसानों ने लगभग 15 हजार एकड़ अतिरिक्त भूमि बड़े भू-पतियों के कब्जे से मुक्त कराई। इस भूमि सत्याग्रह के दौरान यह भी समझ में आया कि जातियों की विविधता वाले हमारे समाज में अहिंसक संघर्ष का रास्ता ही व्यवहारिक है।

आज पूरी दुनिया ग्लोबल वार्मिंग से जूझ रही है। प्रकृति की खूबसूरती उसकी उसकी विविधता में अंतर्निहित है। भौगोलिक विविधता, मौसम की विविधता, वनस्पतियों और जीवों की जैव विविधता पर प्रकृति का अस्तित्व टिका है। प्रकृति के साथ छेड़छाड़ जब बहुत बढ़ जाती है तब उसका रौद्र रूप प्रकट होने लगता है। गांधी जी ने इसकी चेतावनी काफी पहले दी थी। इसके साथ ही भारत की सैकड़ों जातियों, धर्मों, समुदायों उनके रंग-रूप की विविधता में इसकी खूबसूरती और ताकत अंतर्निहित है। जो लोग इसे नहीं समझते वे इसे एक रंग में रंगने की नादान कोशिशें कर रहे हैं। आशा रखनी चाहिए कि लोग सचेत होकर देश और समाज को गड्ढे में जाने से बच लेंगे।

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