हमारे देश में विभूति-पूजा चलती है। बात-बात में महापुरूष को दिव्य स्वरूप में देखने की हमारी आदत ही पड़ गयी है। गांधीजी का भी ऐसा ही देवीकरण करने की कोशिश हो रही है। बहुत-से लोग उनका इस तरह गुणगान करते हैं, मानो वे भगवान ही थे। उनकी राय में वे कृष्ण की कोटि में ही थे। यह ठीक नहीं है।
मानव-देह में एक आकांक्षा रही है कि भगवान के गुणों का साक्षात्कार इस शरीर में हो। इसलिए कोई महापुरूष अवतार स्वरूप होकर पूर्ण ब्रम्ह का एक आधार बनता है। इस दृष्टि से उसका मूल्य भी है, लेकिन ऐसा आधार तो हमें राम और कृष्ण में काफी मिल चुका है। अब तीसरे की जरूरत ही क्या है?
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दूसरों को राम और कृष्ण की कोटि में रखने में कोई लाभ नहीं, हानि ही होगी। नये-नये मनुष्यों को अतिमानव बनाने का नये सिरे से प्रयत्न हो रहा है। ऐसा होने पर वे सब पुराण काल की अनेक कवि कल्पनाओं से समृद्ध राम और कृष्ण के चरित्रों की कोटि में टिकने योग्य न बन पायेंगे। उनकी तुलना में ये फीके पडेंगे और विज्ञान के जमाने में ऐसा प्रयत्न हास्यास्पद भी होगा।
‘भारत को स्वतंत्र करने के लिए भगवान का जन्म हुआ’ - ऐसा कहकर हम गांधीजी का चरित्र लिखने बैठेंगे, तो यह भागवत की हास्यास्पद नकल जैसी बात होगी। भागवत जैसे निरन्तर पढ़ा जाता है, वैसे यह निरन्तर नहीं पढ़ा जाएगा, बल्कि वह हास्यरस ही पैदा करेगा। ‘क्विगझोटिक’ या शेखचिल्लीपन हो जाएगा।
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उन्हें मानव ही रहने दें, गांधीजी के प्रति हम ऐसी मूढ़ भक्ति न रखें। वे एक मानव थे और मानव ही रहने चाहिए, उन्हें वैसा रहने देने में हमारा ही लाभ है। ऐसा करने से एक सज्जन का चित्र हमारे सामने रहेगा और आज जिसकी खूब आवश्यकता है, ऐसा नैतिक आदर्श संसार को मिलेगा।
इसके बदले उन्हें देव बना देंगे, तो उससे देवों का तो कोई फायदा होने वाला नहीं, बल्कि हम मानवता का एक आदर्श खो बैठेंगे। भक्तिभाव के लिए हमारे पास चाहे जितनी सामग्री पड़ी हो, उसके लिए नये देव की जरूरत नहीं है। जीवन शुद्धि के लिए पवित्र दृष्टांत नये जितना काम नहीं देते। बापू के रूप में हमें ऐसा नया दृष्टांत मिला है।
उन्हें देव बना देंगे तो हम घाटे में रहेंगे और लाभ कुछ नहीं होगा। अनेक सम्प्रदायों के बीच एक सम्प्रदाय और पैदा करेंगे और उससे हम क्या पायेंगे? इससे बेहतर है कि हम गांधी जी को भगवान की कोटि में न बैठायें। उन्हें देव बना देने के बदले आदर्श मानव ही रहने दें।
बड़ी खुशी की बात है कि गांधी जी जैसे बड़े महापुरुष हमारे लिए हो गये, फिर भी भगवान की कृपा है कि वे अलौकिक पुरुष के रूप में पैदा नहीं हुए। शुकदेव जन्म से ही ज्ञानी थे। कपिल महामुनि जनमते ही मां को उपदेश देने लगे थे। शंकराचार्य आठ वर्ष की उम्र में वेदाभ्यास पूरा करके भाष्य लिखने लगे, लेकिन गांधीजी ऐसी कोटि में पैदा नहीं हुए। वे सामान्य मानव थे और इस जीवन में उन्होंने जो कुछ प्राप्त किया, अपनी प्रत्यक्ष साधना और सत्यनिष्ठा से किया। इसलिए उनका जीवन हमारे लिए अधिक अनुकूल पड़ेगा, अनुसरण करने योग्य ठहरेगा।
एक बार एक भाई ने मुझसे पूछा कि उन्हें ‘गांधी’ कहा जाये या ‘गांधीजी?’ मैंने कहा : आप यदि उन्हें व्यक्ति मानते हैं, एक पूज्य पुरुष के रूप में देखते हैं तो ‘गांधीजी’ कहिये, लेकिन यदि उन्हें विचार मानते हैं तो ‘गांधी’ कहना चाहिए। तब तो ‘गांधी था’ इस तरह बोलना पडेगा। गांधीजी मेरे लिए आज एक व्यक्ति नहीं विचार हैं।
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गांधीजी पल-पल विकसित होते रहे, यह भली-भांति समझ लेने की बात है। अगर हम इसे नहीं समझेंगे तो गांधीजी को जरा भी नहीं समझ सकेंगे। वे तो रोज-रोज बदलते, पल-पल विकसित होते रहे हैं। यह आदमी ऐसा नहीं था कि पुरानी किताब के संस्मरण ही निकालता रहे। कोई नहीं कह सकता कि आज वे होते तो कैसा मोड़ लेते। उन्होंने अमुक समय, अमुक बात कही थी, इसलिए आज भी वैसे काम को आशीर्वाद ही देंगे, ऐसा अनुमान लगाना अपने मतलब की बात होगी। मैं कहना चाहता हूं कि ऐसा अनुमान लगाने का किसी को हक नहीं। ‘लोकोत्तराणा चेतांसि को हि विज्ञातु-मर्हति’- लोकोत्तर पुरुष के चित की थाह कौन पा सकता है? इसलिए गांधीजी आज होते तो क्या करते और क्या न करते, इस तरह नहीं सोचना चाहिए।
यदि हम यह नहीं समझते, तो हम गांधीजी के साथ बहुत अन्याय करेंगे। उनसे हमें एक विचार मिल गया है, ऐसा समझकर अब हमें स्वतंत्र चिन्तन करना है। यदि हम उनके विचार को उनके शब्दों में और उनके कार्यों से सीमित कर डालेंगे, तो उनके साथ अन्याय कर बैठेंगे। गुजरात में जिसे ‘वेदिया’ कहते हैं, वैसे ‘वेदिया’ अर्थात शब्द को पकड़कर रखने वाले हम बन जायेंगे, तो गांधीजी के साथ अन्याय करेंगे।
स्थूल छोड़ो, सूक्ष्म पकड़ो - हमें महापुरूषों के विचार ही ग्रहण करने चाहिए, उनके स्थूल जीवन को न पकड़ रखें। ऐसा एक शास्त्र-वचन भी है। उसमें कहा गया है कि हमें महापुरूषों के वचनों का चिन्तन करना चाहिए, उनके स्थूल चरित्र का नहीं। इतना ही नहीं, वचनों का भी, जो उतम-से-उतम अर्थ हो सके, वही ग्रहण करें। इससे साफ है कि वचनों का जो कुछ सूक्ष्म-से-सूक्ष्म और शुद्ध-से-शुद्ध अर्थ निकलता हो, वही ग्रहण करना चाहिए। आज के विज्ञान युग में पुराणकाल का मनु और पुराना मार्क्स नहीं चलेगा। मैं नम्रतापूर्वक कहना चाहता हूं कि गांधी भी आज ज्यों-का-त्यों नहीं चलेगा।
तब यह प्रश्न खड़ा होगा कि क्या आप गांधीजी से भी आगे बढ़ गये? तो हममें अत्यन्त नम्रतापूर्वक यह कहने का साहस होना चाहिए कि ‘हम गांधीजी के जमाने से आगे ही हैं।’ इसमें गांधीजी से आगे बढ़ जाने का
सवाल ही नहीं और न ऐसा करने की जरूरत ही है। बढ़े या घटे, यह तो भगवान तौलेगा। यह हमारे हाथ की बात नहीं। हमें उनसे बढ़ने की जरूरत नहीं, लेकिन हमारा जमाना उनके जमाने से आगे है। हमारे सामने नये दर्शन (क्षितिज) खड़े हो गये हैं। हमें यह समझना ही होगा। न समझेंगे तो जो काम करने की जवाबदारी हम पर आ पड़ी है, उसे हम निभा नहीं पायेंगे।
गांधीजी स्वयं तो इतने संवेदनशील थे कि नित्य-निरंतर परिस्थिति के अनुसार झट बदलते जाते थे। कभी भी एक शब्द से चिपके नहीं रहते थे। किसी को भी ऐसा भरोसा नहीं था कि आज गांधीजी ने यह रास्ता पकड़ा है, तो कल कौन-सा पकड़ेंगे, क्योंकि वे विकासशील पुरुष थे। उनका मन सदैव सत्य के शोध के विचार में ही रहता था। तो, मुझे कहना यह है कि गांधीजी सतत् परिवर्तनशील थे। इसलिए हमें आज की परिस्थिति के अनुसार स्वतंत्र चिंतन करते रहना चाहिए।
इस लेख के लेखक आचार्य विनोबा भावे हैं, वह भूदान आंदोलन के प्रणेता हैं।
(सप्रेस)
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