''दरिद्र नारायण उन लाखों नामों में से एक है जिसके द्वारा मानवता उस ईश्वर को जानती है जो मानव समझ से अज्ञात और अथाह है। इसका अर्थ है गरीबों का ईश्वर, गरीबों के दिलों में प्रकट होने वाला ईश्वर। आप भूखों के पास खाना लेकर जाएंगे और वे आपको अपना भगवान मानेंगे। मैं उन लाखों-करोड़ों भूखे-नंगे, बदहाल और बेरोजगार लोगों के स्वराज के लिए काम कर रहा हूं जिन्हें दिन में एक वक्त का खाना भी नहीं मिलता और जिन्हें बासी रोटी और चुटकी भर नमक खाकर गुजारा करना पड़ता है। उन्हें भगवान सिर्फ रोटी और मक्खन के रूप में ही दिखाई दे सकते हैं। अगर मैं आज लंगोटी में दिखाई देता हूं तो इसलिए कि मैं अनेक आधे भूखे, आधे नंगे, फिर भी मूक लोगों का एकमात्र प्रतिनिधि हूं। 24 घंटे मैं उनके साथ रहता हूं। वे मेरी पहली और आखिरी चिंता हैं क्योंकि मैं उस ईश्वर को छोड़कर किसी और ईश्वर को नहीं पहचानता जो इन मूक लोगों के दिलों में पाया जाता है। मैं इन लोगों की सेवा के माध्यम से उस ईश्वर की पूजा करता हूं जो सत्य है या सत्य जो ईश्वर है।''
महात्मा गांधी के इन विचारों से आसानी से समझा जा सकता है कि उनके निकट आजादी की लड़ाई का ध्येय इतना भर नहीं था कि अंग्रेज इस देश को छोड़कर चले जाएं। उन्हें कतई गवारा नहीं था कि अंग्रेज तो यह लड़ाई हारकर अपने देश वापस चले जाएं लेकिन गुलामी के अन्य बहुत से रूप जस के तस बने रहकर 'दरिद्र-नारायण' को सताते रहें।
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इसलिए वे अंग्रेजों के खिलाफ सत्य और अहिंसा के अपने अस्त्रों का प्रयोग करते हुए उन देसी राजे-महाराजाओं को भी नहीं बख्शते थे। उनके अनुसार, जिनकी रोज-रोज सीमाएं तोड़ती विलासिता के रहते न भारत का उद्धार संभव था, न ही दरिद्र नारायण की दुर्दशा का अंत। दरिद्र-नारायणों में भी वे सबसे ज्यादा उनको लेकर चिंतित थे जिनकी गुलामी इस मायने में दोहरी-तिहरी थी कि वे ऊंच-नीच और छुआछूत के भी शिकार थे।
महात्मा को अपना ये विचार सीधे राजे-महाराजाओं के सामने व्यक्त करने से भी गुरेज नहीं था जिसकी एक मिसाल चार फरवरी 1916 को भारत के तत्कालीन वायसराय लार्ड हार्डिंग द्वारा काशी हिंदू विश्वविद्यालय की आधारशिला रखने के बाद आयोजित भव्य समारोह में दिया गया उनका ऐतिहासिक भाषण भी है।
इतिहास में दर्ज है कि अनेक राजे-महाराजाओं की उपस्थिति में उनका यह भाषण शुरू हुए कुछ ही मिनट हुए थे कि हड़कंप मच गया। इसलिए कि पहले उन्होंने समारोह में अंग्रेजी भाषा के प्रभुत्व पर उंगली उठाई, फिर काशी विश्वनाथ मंदिर के चारों ओर फैली गंदगी और वायसराय की सुरक्षा के लिए शहर पर थोपी गई अनेक अलंघ्य दीवार जैसी पाबंदियों पर जो उनके अनुसार वायसराय और उनकी सरकार के भारतीयों पर अविश्वास की परिचायक थीं। फिर बिना देर किए राजे-महाराजाओं की विलासिता की आलोचना करने लगे। उनके शब्द थे, मेरे सामने जो महाराजा बैठे हैं, हीरे-जवाहरात से लदे हुए हैं। एक गरीब देश में उनका इस तरह अपने धन का दिखावा करना शोभा नहीं देता। आखिर उनकी सारी दौलत गरीबों के खून से पैदा की गई है। जब भी मैं किसी भव्य महल के निर्माण के बारे में सुनता हूं, मेरा मन जलने लगता है क्योंकि वह सारा धन किसानों का होता है। मैं जब भी आभूषणों से लदे भद्र लोगों और करोड़ों दरिद्र नारायणों की तुलना करता हूं, तो इन भद्र लोगों के लिए मेरे दिल से यही आवाज आती है कि जब तक आप लोग अपनी इन सजी-धजी पोशाकों और जवाहरातों को उतारकर नहीं फेंकेंगे, तब तक भारत का उद्धार संभव ही नहीं है।
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गौरतलब है कि तब तक महात्मा का आभामंडल इतना बड़ा नहीं हुआ था, न ही वह देश की राजनीति में इतने स्वीकार्य हुए थे कि उनकी ऐसी गुस्ताखियां चुपचाप सुन ली जातीं या उनके लिए उन्हें माफ कर दिया जाता। इसके बावजूद उन्होंने साफ-साफ यह सब कहने का जोखिम उठाया तो उस पर भरपूर प्रतिक्रिया स्वाभाविक थी और वह हुई भी।
पहले कांग्रेस की वरिष्ठ नेता श्रीमती एनी बेसेंट ने उन्हें अपना भाषण रोक देने के लिए कहा। तुर्शी से भरकर बोलीं, ‘बस, बहुत हो गया। स्टॉप मिस्टर गांधी..स्टॉप नाऊ।’ लेकिन विश्वविद्यालय के छात्र उनके आड़े आ गए और उन्होंने महात्मा के बोलते रहने के पक्ष में शोर आरंभ कर दिया।
महात्मा ने मुड़कर समारोह की अध्यक्षता कर रहे दरभंगा नरेश की ओर देखा। आशय यह था कि अगर वह भी उन्हें भाषण खत्म करने के लिए कहें, तो अध्यक्षीय व्यवस्था का आदर करते हुए वह वैसा ही करें। लेकिन नरेश चुप रहे और उनकी चुप्पी से उत्साहित महात्मा बोलते रहे। इस पर उनके आगे बैठे राजा-महाराजा थोड़ी देर तो एक दूजे का मुंह देखते रहे, फिर ‘जली-कटी’ सुनते रहने के बजाय महात्मा के भाषण का बहिष्कार कर जाने लगे। अंततः दरभंगा नरेश भी उनके साथ हो लिए।
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हालात ऐसे हो गए कि विश्वविद्यालय के संस्थापक महामना मदनमोहन मालवीय उन्हें मनाने के लिए उनके पीछे दौड़ पड़े। उनसे कहा कि ‘महाराज, वापस आइए। गांधी को चुप करा दिया गया है।’ लेकिन तब तक सभा भंग हो चुकी थी। अलबत्ता, एक प्रेक्षक के अनुसार, समारोह में ज्यों-ज्यों तनाव बढ़ रहा था, महात्मा का भाषण मुक्तचक्र-सा घूमता जा रहा था। वह कह रहे थे, ‘हमें ईश्वर को छोड़कर किसी से डरने की जरूरत नहीं है, न महाराजाओं से, न वायसरायों से, यहां तक की खुद सम्राट से भी नहीं।’
कई मिसालें बताती हैं कि बाद में जो राजे-महाराजे उनके दृष्टिकोण को स्वीकार कर उनके साथ आ गए, उनको आईना दिखाने से भी वह परहेज नहीं करते थे। 1929 में महात्मा ट्रेन से गोंडा जिले के मनकापुर (जो भगवान राम की राजधानी अयोध्या की उत्तर दिशा में बहने वाली सरयू नदी के उस पार गोंडा जिले में स्थित है) रेलवे स्टेशन पहुंचे, तो वहां के राजा राघवेंद्र प्रताप सिंह ने उन्हें अपने राजमहल में आमंत्रित कर उन्हें लाने के लिए अपनी राजसी बग्घी भेजी। बाद में वह कांग्रेस में शामिल होकर उसके आंदोलनों की अगुआई करने लगे। उन्होंने स्वतंत्रता संघर्ष के लिए उन्हें चार हजार रुपयों की थैली भी भेंट की।
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लेकिन एक दिन राजसी पोशाक में अपने बच्चों को महात्मा का आशीर्वाद दिलाने ले गए, तो महात्मा ने छूटते ही कहा, ‘राजा साहब, यह राजसी ठाठ छोड़े बगैर न अंग्रेजों से लड़ाई हो सकेगी, न ही आजादी का कोई मतलब होगा।'
उनकी बात का असर हुआ और राजा तन-मन दोनों से इतने गांधीवादी हो गए कि उनकी प्रजा उन्हें ‘गांधी राजा’ कहने लगी। जब तक बापू और राजा इस संसार में रहे, बापू उनकी कुशलता के लिए उन्हें पत्र लिखते और उन्हें ‘बापू का आशीर्वाद’ देते रहे।
प्रतापगढ़ जिले की कालाकांकर रियासत भी 15 नवंबर 1929 को महात्मा के हाथों अपने राजभवन पर तिरंगा फहरवाकर ही कृतकृत्य हुई। इससे एक दिन पहले 14 नवंबर को उसने महात्मा से राजभवन के चबूतरे पर सभाकर विदेशी कपड़ों की होली भी जलवाई। अनेक स्वयंसेवक आसपास के क्षेत्रों से विदेशी कपड़े इकट्ठा कर बैलगाड़ियों पर लादकर वहां ले आए। उन दिनों लोगों में कुछ ऐसा जज्बा था कि जिस लकड़ी से महात्मा ने उन कपड़ों को जलाया, बाद में उसकी पांच सौ रुपयों में नीलामी हुई।
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रामपुर के आखिरी नवाब रजा अली खां तो महात्मा की कथनी और करनी की एकता के ऐसे मुरीद थे कि उनकी हत्या के बाद अपनी रियासत में तीन दिन का राजकीय शोक घोषित किया था। दरअसल, उस वक्त तक रामपुर रियासत का भारतीय संघ में एकीकरण नहीं हुआ था और नवाब ही उसके शासक थे।
उन्होंने अपने मुख्यमंत्री कर्नल वशीर हुसैन जैदी और दरबारी पंडितों को महात्मा की अस्थियां लाने दिल्ली भेजा, तो वहां पहले तो तकनीकी कारणों से उन्हें अस्थियां देने से इनकार कर दिया गया लेकिन बाद में उनकी मांग मान ली गई। तब 11 फरवरी 1948 को रामपुर लाकर अस्थि कलश को एक कालेज के मैदान में लोगों के दर्शनार्थ रखा गया। बाद में नवाब ने अस्थियों का एक अंश कोसी नदी में विसर्जित कर दूसरा चांदी के कलश में दफन किया और उस जगह समाधि बनवा दी।
कोई दस साल पहले उत्तर प्रदेश सरकार ने करीब 22 करोड़ की लागत से इस समाधिस्थल का सुंदरीकरण करवाया। अफसोस कि कम ही लोग जानते हैं कि राजघाट के अलावा महात्मा की समाधि रामपुर में भी है।
कृष्ण प्रताप सिंह वरिष्ठ पत्रकार हैं।
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