विचार

देश में पूंजीवाद के अंतर्विरोध दिखने पर याद आए गांधी

गांधीजी ने लिखा था कि भारत में जहां अस्सी फीसदी आबादी खेती करने वाली है और दूसरी दस फीसदी उद्योगों में काम करने वाली है, शिक्षा को केवल साहित्यिक बना देने तथा लड़कों और लड़कियों को उत्तर-जीवन में हाथ के काम के लिए अयोग्य बना देना गुनाह है।

फोटोः सोशल मीडिया
फोटोः सोशल मीडिया 

अर्थव्यवस्था को लेकर हम गांधीजी की धारणाओं पर विचार करते तो नहीं हैं, पर आज जब समाजवाद के बाद पूंजीवाद के अंतर्विरोध सामने आ रहे हैं, तो हमें गांधी याद आते हैं। हमने गांधी की ज्यादातर भूमिका स्वतंत्रता संग्राम में ही देखी। स्वतंत्र होने के बाद देश के सामने जब प्रशासनिक-राजनीतिक समस्याएं आईं, तब तक वे चले गए। फिर भी गांधी की प्रशासनिक समझ का जायजा उनके लेखन और गतिविधियों से लिया जा सकता है। देखने की जरूरत है कि कौन-से ऐसे क्षेत्र हैं जिनमें हमने गांधी की सरासर उपेक्षा की है।

कम-से-कम तीन विषय ऐसे हैं जिनमें गांधी की उपेक्षा हुई हैः 1. स्त्रियां, 2. भाषा और 3. शिक्षा। गांधी के दक्षिण अफ्रीका से भारत आने से पहले तक आजादी की लड़ाई पूरी तरह पुरुष केंद्रित थी। गांधी ने स्त्रियों को स्वाधीनता आंदोलन से जोड़ा। नतीजा यह हुआ कि महिलाओं ने शराबबंदी के साथ विदेशी कपड़ों की होली जलाने में बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया। राष्ट्रीय आंदोलन को देशव्यापी बनाने में स्त्रियों की बड़ी भूमिका थी। उसी गांधी के देश में संसद और विधायिकाओं में स्त्रियों को न्यूनतम भागीदारी देने वाली व्यवस्था ठंडे बस्ते में पड़ी है।

वहीं अंग्रेजी शिक्षा के गैर-भारतीय और मशीनी स्वरूप को लेकर गांधी के मन में गहरी पीड़ा थी। खासतौर से भाषा के संदर्भ में। ‘हिंद स्वराज’ में उन्होंने अंग्रेजों की थोपी शिक्षा पद्धति का विरोध किया। उन्होंने कहा, ‘करोड़ों लोगों को अंग्रेजी शिक्षण देना उन्हें गुलामी में डालने-जैसा है।’ ऐसा नहीं कि वे अंग्रेजी के शैक्षिक महत्व को जानते-समझते नहीं थे, पर इस विषय पर रवींद्रनाथ ठाकुर के साथ उनकी असहमति सर्वज्ञात है।

‘इंडियन ओपीनियन’ के 1908-1910 के अंक में उन्होंने लिखा, ‘हम लोगों में बच्चों को अंग्रेज बनाने की प्रवृत्ति पाई जाती है। मानो, उन्हें शिक्षित करने का और साम्राज्य की सच्ची सेवा के योग्य बनाने का वही उत्तम तरीका है।’ फरवरी, 1916 में काशी हिंदू विश्वविद्यालय के उद्घाटन समारोह में उन्होंने कहा था, ‘‘इस महान विद्यापीठ के प्रांगण में अपने ही देशवासियों से अंग्रेजी में बोलना पड़े, यह अत्यंत अप्रतिष्ठा और लज्जा की बात है। आप मुझसे यह कहें कि हमारी भाषाओं में उत्तम विचार अभिव्यक्त किए ही नहीं जा सकते, तब तो हमारा संसार से उठ जाना ही अच्छा है।’

आजादी के बाद शुरुआती दशकों में चीन और भारत की यात्राएं समांतर चलीं, पर बुनियादी मानव-विकास में चीन हमें पीछे छोड़ता चला गया। बावजूद इसके कि आर्थिक विकास की हमारी गति बेहतर थी। आज भारत सॉफ्टवेयर, फार्मास्युटिकल्स या चिकित्सा के क्षेत्र में आगे है, तो इसके पीछे हमारी नीतियां हैं, पर असली भारत पीछे है, तो उसके पीछे भी हमारी नीतियां ही हैं। साल 2011 में नेशनल यूनिवर्सिटी ऑफ एजुकेशनल प्लानिंग एंड एडमिनिस्ट्रेशन से डॉक्टरेट की मानद उपाधि ग्रहण करते हुए अमर्त्य सेन ने कहा था कि भारत समय से प्राथमिक शिक्षा पर निवेश न कर पाने की कीमत आज अदा कर रहा है।

हमने तकनीकी शिक्षा के महत्व को पहचाना जिसके कारण आईआईटी- जैसे शिक्षा संस्थान खड़े हुए, पर प्राइमरी शिक्षा के प्रति हमारा दृष्टिकोण ‘निराशाजनक’ रहा। गांधी ने शिक्षा में अक्षर ज्ञान से ज्यादा शारीरिक श्रम की प्रतिष्ठा को महत्व दिया। 1-9-1921 के ‘यंग इंडिया’ में उन्होंने लिखा, “भारत में- जहां अस्सी फीसदी आबादी खेती करने वाली है और दूसरी दस फीसदी उद्योगों में काम करने वाली है, शिक्षा को केवल साहित्यिक बना देने तथा लड़कों और लड़कियों को उत्तर-जीवन में हाथ के काम के लिए अयोग्य बना देना गुनाह है।... क्यों एक किसान का बेटा किसी स्कूल में जाने के बाद खेती के मजदूर के रूप में निकम्मा बन जाए।”

22-23 अक्टूबर, 1937 को वर्धा में हुए अखिल भारतीय शैक्षिक सम्मेलन की अध्यक्षता गांधीजी ने की। इसमें नई तालीम पर हुई चर्चा में विनोबा भावे, काका कालेलकर तथा जाकिर हुसैन सहित अनेक विद्वानों ने भाग लिया। इसके प्रस्तावों में कहा गयाः बच्चों को सात साल तक राष्ट्रव्यापी, निःशुल्क एवं अनिवार्य शिक्षा दी जाय, शिक्षा का माध्यम मातृभाषा हो। मतलब यह नहीं कि गांधी ने उच्च शिक्षा पर ध्यान नहीं दिया। वे इस बुनियाद पर ही उच्च शिक्षा का भवन खड़ा करना चाहते थे।

माना जाता है कि गांधी जी यंत्रों के विरोधी थे। वे विरोधी इसलिए नहीं थे कि तकनीकी विकास से उनका बैर था बल्कि इसलिए कि वे तकनीक को सामाजिक जरूरत के रूप में देखते थे जो वास्तव में तकनीक का उद्देश्य है। तकनीक के बारे में उनकी समझ का पता महादेव देसाई के एक लेख से मिलता है। उन्होंने गांधी और एक व्यक्ति के बीच हुए संवाद का उदाहरण दिया है- ‘क्या आप तमाम यंत्रों के खिलाफ हैं?’ रामचंद्रन ने सरल भाव से पूछा। गांधीजी ने मुस्कराते हुए कहा, ‘वैसा मैं कैसे हो सकता हूं, जब मैं जानता हूं कि यह शरीर भी एक नाजुक यंत्र ही है? खुद चरखा भी एक यंत्र ही है, छोटी दांत कुरेदनी भी यंत्र है। मेरा विरोध यंत्रों के लिए नहीं है बल्कि यंत्रों के पीछे जो पागलपन चल रहा है, उसके लिए है...समय और श्रम की बचत तो मैं भी चाहता हूं, परंतु वह किसी खास वर्ग की नहीं, बल्कि सारी मानव जाति की होनी चाहिए।

गांधी के ट्रस्टीशिप के विचार को लोग हवाई परिकल्पना मानते हैं। लेकिन क्या वास्तव में कॉरपोरेट मैनेजर अपने मालिकों का ट्रस्टी नहीं होता? दुनिया की कम्पनियां अब जनता के अंशदान (शेयर पूंजी) के सहारे खड़ी होती हैं। वैश्विक पूंजीवाद जिस कॉरपोरेट लोकतंत्र और शेयर होल्डर के अधिकारों की बात करता है, उससे गांधी के विचारों का टकराव नहीं है। 31 दि संबर, 1999 का ‘टाइम’ पत्रिका का अंक सदी के महान व्यक्तियों पर केंद्रित था। उसमें नेल्सन मंडेला ने लिखा, गांधी ने अहिंसा को हथियार तब बनाया जब हिरोशिमा और नगासाकी की हिंसा हम पर फटी नहीं थी। मैं भरसक गांधी की अहिंसक रणनीति पर चला। पर मेरे जीवन में ऐसा क्षण भी आया जब मैंने महसूस किया कि उत्पीड़क की हिंसा अब सहन नहीं होती। तब हमने अपने संघर्ष को एक सैनिक आयाम दिया और उमकोंतो वेसिज्वे (राष्ट्र की बरछी) नाम से संगठन बनाया। गांधी ने कभी हिंसा को पूरी तरह खारिज नहीं किया। उनके अनुसार जब हिंसा और कायरता के बीच फैसला करना होगा तो मैं हिंसा की सलाह दूंगा.... मैं चुपचाप बेइज्जती को स्वीकार करने के बजाय सम्मान की रक्षा के लिए हथियार उठाने को कहूंगा...।

मंडेला के अनुसार, दुनिया पर आज हावी विकसित औद्योगिक समाज की अवधारणा के अकेले आलोचक गांधी-विचार हैं। वे चाहते थे कि औजार उसके प्रयोक्ता के नियंत्रण में रहे, वैसे ही जैसे क्रिकेट का बैट या कृष्ण की बांसुरी। और उत्पादन प्रक्रिया में नैतिकता हो। ऐसे दौर में जब मार्क्स ने पूंजीपति और मजदूर के बीच टकराव देखा, गांधी दोनों के झगड़े निपटा रहे थे। उन्होंने इस दावे का भी भंडाफोड़ किया कि सिर्फ कठोर श्रम से कोई भी अमीर और सफल हो सकता है। उन्होंने लाखों-करोड़ों लोगों का उदाहरण दिया जो हाड़-तोड़ काम करते हैं और भूखे रह जाते हैं।

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