पूरी दुनिया गांधी मार्ग के जरिए रास्ता तलाश रही है। लेकिन, अपने ही देश में लोकतंत्र पर जिस तरह से खतरे बढ़ते जा रहे हैं, उसमें महात्मा गांधी के संदेश पहले से कहीं अधिक महत्वपूर्ण हो गए हैं। हमने अपने साप्ताहिक समाचार पत्र संडे नवजीवन के दो अंक गांधी जी पर केंद्रित करने का निर्णय लिया। इसी तरह नवजीवन वेबसाइट भी अगले दो सप्ताह तक गांधी जी के विचारों, उनके काम और गांधी जी के मूल्यों से संबंधित लेखों को प्रस्तुत करेगी। इसी कड़ी में हम आज प्रस्तुत कर रहे हैं गांधी शांति प्रतिष्ठान के अध्यक्ष <b>कुमार प्रशांत</b> का लेख। इस लेख में वे बता रहे हैं कि कैसे हमने गांधी की आंखें ही छोड़ दी हैं, तो फिर ऐसे में उन्हें भला कहां खोंजे।
दिल्ली भी अजीब है! यह देश की राजधानी है लेकिन देश यहां कहीं नजर नहीं आता। यह रोज-रोज देश से बेगाना होता जा रहा है। हर महानगर का कुछ ऐसा ही हाल है, लेकिन दिल्ली तो कोई वैसा ही महानगर नहीं है। देश की राजधानी है, मतलब इसे ऐसा आईना होना चाहिए जिसमें देश खुद को देख सके। लेकिन नई चर्चा तेज है कि हमारी संसद छोटी पड़ती जा रही है और हमें दिल्ली की शान के अनुकूल एक नई और आधुनिक संसद चाहिए! हम भी, पता नहीं कब से, कहते रहे हैं कि हमारी संसद छोटी पड़ती जा रही है, लेकिन संसद के छोटे होने से हमारा मतलब इसके बौनेपन से हुआ करता था, इसके रूप-स्वरूप से नहीं! अब तो फिक्र संसद के बौनेपन की है ही नहीं, सारी फिक्र उसकी बाहरी आभा को चमकाने की है।
यह भी चर्चा है कि नॉर्थऔर साउथ ब्लॉक की अद्भुत स्थापत्य वाली इमारतें, वहां का वह ऐतिहासिक लैंडस्केप सब बदला जाएगा क्योंकि यह सारा कुछ भूकंप के खतरों को ध्यान में रख कर नहीं बनाया गया है। यह भूकंप आए, इससे पहले हम याद कर लें कि कितने साल पहले लुटियंस की यह दिल्ली बनी थी? उतने सालों में कितने ही भूकंप इन इमारतों ने पार कर लिए। ये इमारतें हमारे राजनीतिक-सामाजिक जीवन में आए भूकंपों का भी तो प्रतीक हैं।
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बहुत भद्दा लगता है कि इंडिया गेट के पास की सारी खुली जगहें बंद होती जा रही हैं, हरियाली खत्म हो रही है, वहां के विस्तार, खुलेपन, हरियाली का दम घोंटकर कोई युद्ध-स्मारक या वार मेमोरियल बनाया गया है। क्या पूरा इंडिया गेट और वहां का सारा विस्तार युद्ध-शहीदों की स्मृति में ही खड़ा हुआ नहीं है?
आपने कभी सोचा है कि देश की राजधानी दिल्ली में कहीं एक जगह भी ऐसी है नहीं जहां पीस मेमोरियल हो। गांधी की शांति-अहिंसा-सिविल ना-फरमानी की उस जंग में अनजान जगहों पर, अनजान और अनाम लोगों ने ऐसे-ऐसे करतब किए हैं साहस के, विवेक के, संगठन के और अहिंसक प्रतिबद्धता के, कि सहसा विश्वास न हो। मैं महात्मा गांधी की बात नहीं कर रहा हूं, उन्हें महात्मा मानकर चलने वाले करोड़ों अनाम-अनजान लोगों की बात कर रहा हूं। इनका इतिहास कहीं दर्ज हो, स्कूल-कॉलेज के युवा, देश भर से दिल्ली घूमने आए लोग उसे देखें-समझें तो देश का भविष्य एक नई दिशा ले सकता है। लेकिन शासन का मन और उसका ध्यान तो कहीं और ही है।
कभी गहरी पीड़ा और तीखे मन से जय प्रकाश नारायण ने कहा थाः ‘दिल्ली एक नहीं, कई अर्थों में बापू की समाधि-स्थली है!’ आइए, हम देखें कि यह समाधि कहां है और कैसे बनी है, एक तो यही कि गांधी की हत्या इसी दिल्ली में हुई थी। लेकिन कहानी 30 जनवरी, 1948 के पहले से शुरू होती है।
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यही दिल्ली थी जहां प्रार्थना करते गांधी पर 20 जनवरी, 1948 को बम फेंका गया था लेकिन वह बम उनका काम तमाम नहीं कर सका। हत्या-गैंग के मदनलाल पहवा का निशाना चूक गया। उसका फेंका बम गांधी जी तक पहुंच नहीं पाया। गांधी की हत्या की यह पांचवीं कोशिश थी। गांधी इन सबसे अनजान नहीं थे। उन्हें पता था कि उनकी हत्या की कोशिशें चल रही हैं।
ऐसे में ही आई थी 29 जनवरी, 1948! नई दिल्ली का बिरला भवन। सब तरफ लोग-ही-लोग थे। थके-पिटे-लुटे और निराश्रित!! दिल्ली तब संसार की सबसे बड़ी शरणार्थी नगरी बन गई थी। उन्होंने बेमन से बिड़ला भवन में रहना स्वीकार किया। 80 साल का बूढ़ा आदमी जिसका क्लांत शरीर अभी उपवास के उस धक्के से संभला भी नहीं है जो लगातार 6 दिनों तक चल कर, अभी-अभी 18 जनवरी को समाप्त हुआ है। 20 जनवरी को उस पर बम फेंका जा चुका है।
तन की फिक्र फिर भी हो रही है लेकिन ज्यादा गहरा घाव तो मन पर लगा है। ऐसा ही मन लिए वह अपने राम की प्रार्थना-सभा में बैठा। और फिर उसकी वही थकी लेकिन मजबूत, क्षीण लेकिन स्थिर आवाज उभरीः “कहने के लिए चीजें तो काफी पड़ी हैं, मगर आज के लिए 6 चुनी हैं। 15 मिनट में जितना कह सकूंगा, कहूंगा। एक आदमी थे। मैं नहीं जानता कि वे शरणार्थी थे या अन्य कोई, और न मैंने उनसे पूछा ही। उन्होंने कहा, ‘तुमने बहुत खराबी कर दी है। क्या और करते ही जाओगे? इससे बेहतर है कि जाओ। बड़े महात्मा हो तो क्या हुआ! हमारा काम तो बिगड़ता ही है। तुम हमें छोड़ दो, हमें भूल जाओ, भागो!’ मैंने पूछा, ‘कहां जाऊं?’ तो उन्होंने कहा, ’हिमालय जाओ!’ मैंने हंसते हुए कहा, ’किसकी बात सुनूं? कोई कहता है, यहीं रहो, तो कोई कहता है, जाओ! कोई डांटता है, गाली देता है, तो कोई तारीफ करता है। तब मैं क्याक रूं? इसलिए ईश्वर जो हुक्म करता है, वही मैं करता हूं। किसी के कहने से मैं खिदमतगार नहीं बना हूं। ईश्वर की इच्छा से मैं जो बना हूं, बना हूं। उसे जो करना है, करेगा। मैं समझता हूं कि मैं ईश्वर की बात मानता हूं। मैं हिमालय क्यों नहीं जाता? ऐसी बात नहीं कि वहां मुझे खाना-पीना, ओढ़ना नहीं मिलेगा। वहां जाकर शांति मिलेगी। लेकिन मैं अशांति में से शांति चाहता हूं। नहीं तो उसी अशांति में मर जाना चाहता हूं। मेरा हिमालय यहीं है।”
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अगले दिन हमने उनकी हत्या कर दी! हमने अपने गांधी से छुटकारा पा लिया। उसके बाद शुरू हुई आजाद भारत की ऐसी यात्रा जिसमें कदम-कदम पर उनकी हत्या की जाती रही। यह उन लोगों ने किया जो गांधी के दाएं-बाएं हुआ करते थे। गांधी का रास्ता इतना नया था, और शायद इतना जोखिम भरा था कि उसे समझने और उस पर चलने का साहस और समझ कम पड़ती गई, लगातार छीजती गई और फिर एकदम से चूक ही गई! गांधी ग्रामाधारित विकेंद्रित योजना, स्थानीय साधन और देशी मेधा की शक्ति एकत्र करने की वकालत करते हुए सिधारे थे। सरकार ने उसकी तरफ पीठ कर दी।
गांधी ने कहा था कि सरकार क्या करती है, इससे ज्यादा जरूरी है यह देखना कि वह कैसे रहती है और किसका काम करती है। इसलिए गांधी ने सलाह दी कि वाइसरॉय भवन को सार्वजनिक अस्पताल में बदल देना चाहिए और देश के राष्ट्रपति को मय उनकी सरकार के छोटे घरों में रहने चले जाना चाहिए। सारा मंत्रिमंडल एक साथ होस्टल नुमा व्यवस्था में रहे ताकि सरकारी खर्च कम हो और मंत्रियों की आपसी मुलाकात रोज-रोज होती रहे, वे आपस में सलाह-मश्विरा करते रह सकें। लेकिन हमने किया तो इतना ही किया कि नामों की तख्ती बदल दी। वाइसरॉय भवन का नाम बदल कर राष्ट्रपति भवन कर दिया, प्रधानमंत्री समेत सभी मंत्री सेवक कहलाने लगे और सभी सार्वजनिक सुविधा का ख्याल कर, बड़े-बड़े बंगलों में रहने लगे। उस दिन से सरकारी खर्च जो बेलगाम हुआ सो आज तक बेलगाम दौड़ा ही जा रहा है।
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विनोबा ने गांधी की याद दिलाई, पर वह अनसुनी रह गई। सामाजिक समता और आर्थिक समानता की गांधी की कसौटी थी- समाज का अंतिम आदमी ! उन्होंने सिखाया थाः जो अंतिम है, वही हमारी प्राथमिकताओं में प्रथम होगा। लेकिन गांधी का अंतिम आदमी न तो योजना के केंद्र में रहा और न योजना की कसौटी बन सका। गरीबी की रेखाएं भी अमीर लोग ही तय करने लगे। गांधी ने कहा कि शिक्षा सबके लिए हो, समान हो और उत्पादक हो। हमने उसका उलटा किया। आज, दुनिया का सबसे युवा देश ही दुनिया का सबसे बूढ़ा देश भी बन गया है। वह सब कुछ आधुनिक और वैज्ञानिक हो गया जो गांधी से दूर और गांधी के विरुद्ध जाता था। 2 अक्टूबर और 30 जनवरी से आगे या अधिक का गांधी किसी को नहीं चाहिए था।
और आज ? आज तो हमने गांधी की आंखें भी छोड़ दी हैं। रह गया है उनका चश्मा भर कागज पर धरा हुआ। गंदे मन से लगाया स्वच्छता का नारा सफाई नहीं, सामाजिक गंदगी फैला रहा है। अब नारा ‘मेड इन इंडिया’ का नहीं, ‘मेक इन इंडिया’ का है। अब बात ‘स्टैंडअप इंडिया’ की नहीं, ‘स्टार्टअप इंडिया’ की होती है। अब आदमी को नहीं, ‘एप’ को तैयार करने में सारी प्रतिभा लगी है। ‘नया गांव’ बनाने की बात अब कोई नहीं करता, सारी ताकतें मिल कर गांवों को खोखला बनाने में लगी हैं, क्योंकि बनाना तो ‘स्मार्ट सिटी’ है। देसी और छोटी पूंजी अब पिछड़ी बात बन गई है, विदेशी और बड़ी पूंजी की खोज में देश भटक रहा है। खेती की कमर टूटी जा रही है, उद्योगों का उत्पादन गिर रहा है, छोटे और मझोले कारोबारी मैदान से निकाले जा रहे हैं और तमाम आर्थिक अवसर, संसाधन मुट्ठी भर लोगों तक पहुंचाए जा रहे हैं। देश की 73 प्रतिशत पूंजी मात्र 1 प्रतिशत लोगों के हाथों में सिमट आई है। अब चौक- चैराहों पर कम, राजनीतिक हलकों में ज्यादा असभ्यता-अश्लीलता- अशालीनता दिखाई देती है। लोकतंत्र के चारो खंभों का हाल यह है कि वे एक-दूसरे को संभालने की जगह, एक-दूसरे से गिर रहे हैं, टकराते-टूटते नजर आ रहे हैं।
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ऐसे में गांधी को कहां खोजें और क्यों खोजें? खोजें इसलिए कि इस महान देश को अपनी किस्मत भी बनानी है और अपना वर्तमान भी संवारना है। आज गांधी भूत-भविष्य और वर्तमान के मिलन की मंगल-रेखा का नाम है। और गांधी को हम सब खोजें अपने भीतर! जो भीतर से आएगा, वही गांधी सच्चा भी होगा और काम का भी होगा। दिल्ली ने गांधी का बलिदान देखा है, हम निश्चय करेंगे तो यही दिल्ली उनका निर्माण भी देखेगी।
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