पूरे चार दशक, अर्थात चालीस वर्ष बीत गए। जी हां, स्वयं मुझे पत्रकारिता करते-करते इस माह पूरे चालीस वर्ष बीत गए। मुझे आज भी याद है कि ठिठुरती दिल्ली की ठंड में चालीस वर्ष पूर्व दिसंबर, 1981 में मैं दिल्ली पत्रकार बनने आया था। दूसरे ही रोज लिंक हाउस में प्रसिद्ध स्वतंत्रता सेनानी अरुणा आसफ अली की मैगजीन लिंक में मैं नौकरी की तलाश में उपस्थित था। टेस्ट और इंटरव्यू के बाद पांच सौ रुपये पर बतौर ट्रेनी नियक्ति हो गई। बस, गाड़ी चल पड़ी और हम देखते-देखते पत्रकार हो गए।
परंतु यह चालीस वर्ष कैसे बीत गए, पता नहीं चला। यूं तो चालीस वर्षों की अवधि लंबी होती है। परंतु पत्रकारिता एक ऐसा धंधा है, जिसमें हर रोज एक नया हंगामा होता है और इन हंगामों के बीच समय कैसे सरक जाता है, यह पता ही नहीं चलता है। दरअसल, पत्रकार का जीवन राजनीति से इतना जुड़ा होता है और वह अपने सक्रिय जीवन में इतना कुछ करीब से देखता है कि वह एक तरह से इतिहास का साक्षी बन जाता है। मैंने भी इन चालीस वर्षों में भारत का इतिहास बनते-बिगड़ते देखा। और अब जब पीछे मुड़कर देखता हूं, तो यह विश्वास नहीं होता कि भारत इतना बदल गया।
Published: 10 Dec 2021, 8:15 PM IST
जब मैं सन 1981 में दिल्ली आया, तो यह देश आपातकालीन समय भूल इंदिरा गांधी के शरण में वापस आ चुका था। स्वयं संजय गांधी उस समय तक सक्रिय थे। परंतु भारत पर आतंक के काले बादल मंडराना शुरू हो गए थे। जल्द ही पंजाब में भिंडरावाले ने अंगड़ाई लेनी शुरू कर दी थी। उधर, असम और उत्तर-पूर्वी राज्यों में देश विरोधी तत्वों ने सिर उठाना आरंभ कर दिया था। देखते-देखते भिंडरावाले का आतंक पंजाब ही नहीं, दिल्ली में भी छा चुका था। अब दिल्ली वह दिल्ली नहीं रह गई थी कि जहां चाहो, बेधड़क चले जाओ। देखते-देखते दिल्ली में चारों ओर सेक्यूरिटी चेकपोस्ट छा गए और दिल्ली अपना भोलापन और आपसी विश्वास खो बैठी।
आतंक ने पंजाब को ऐसा घेरा कि ‘ऑपरेशन ब्लू स्टार’ का समय आया और भिंडरावाले का अंत हुआ। परंतु सिख बिगड़ गया और अंततः स्वयं प्रधानमंत्री के अपने निवास में उनके ही सेक्यूरिटी गार्ड ने इंदिरा गांधी की निर्मम हत्या कर दी। देश भर में सिखों के विरोध में लावा फूट पड़ा। हे भगवान, मुझे सिख विरोधी दंगों से धधकती वह दिल्ली आज भी याद है। हमने वह दिल्ली के रोंगटे खड़े कर देने वाले दंगे रिपोर्ट किए और उस समय हम अपनी लंबी दाढ़ी के कारण सिख होने के धोखे में मरते-मरते बचे।
Published: 10 Dec 2021, 8:15 PM IST
सन 1984 में इंदिरा गांधी के युग का अंत हो गया। अब भारत को नया युवा प्रधानमंत्री राजीव गांधी मिल गया। भोले-भाले और ईमानदार राजीव गांधी से मानो भारत को प्रेम हो गया हो। इंदिरा गांधी की हत्या के बाद जनता ने राजीव गांधी को चार सौ से अधिक लोकसभा सीटों के साथ संसद भेजा। इतना बड़ा बहुमत तो स्वयं उनके नाना जवाहरलाल नेहरू को भी कभी प्राप्त नहीं हुआ था। परंतु राजनीति के जरा उतार-चढ़ाव तो देखिए, वह राजीव जिनको ‘मिस्टर क्लीन’ कह कर देश निछावर हो गया था, वही भारत वर्ष सन 1986 आते-आते बोफोर्स खरीदी मामले में ऐसे भड़का कि अब राजीव गांधी के विरुद्ध भड़क उठा।
अब उत्तरी भारत वीपी सिंह के मोह में डूब गया और देश ‘राजा नहीं फकीर है, भारत की तकदीर है’ के नारों से गूंज उठा। देखते-देखते ऐसा लगा, मानो वीपी सिंह देश में ‘स्वच्छ राजनीति’ का ऐसा युग आरंभ करेंगे कि देश में स्वच्छता की गंगा बह चलेगी। और लीजिए सन 1989 के लोकसभा चुनाव में राजीव गांधी से खफा उत्तरी भारत ने राजीव को गद्दी से उतार दिया और वीपी सिंह को देश की बागडोर थमा दी। परंतु राजीव गांधी जाते-जाते देश को कंप्यूटर थमा गए और इस प्रकार भारतवासियों के लिए ई-क्रांति का मार्ग खोल गए।
Published: 10 Dec 2021, 8:15 PM IST
लीजिए, इस प्रकार पत्रकारिता के जीवन में हमारा एक दशक बीत गया और भारत वर्ष स्वतंत्रता के बाद के बनाए रास्तों से निकलकर सन 1990 के एक नए दशक में दाखिल हो गया। निस्संदेह यह एक नया युग था। गांधी एवं नेहरू की पार्टी कांग्रेस लड़खड़ा रही थी। वीपी सिंह के शासन में नई राजनीतिक शक्तियां अपना स्थान बनाने को मचल रही थीं। स्वयं वीपी सिंह की सरकार दक्षिणपंथी बीजेपी और वामपंथी कम्युनिस्ट पार्टियों के सहयोग से चल रही थी। देखते-देखते वीपी सिंह के जनता दल में स्वयं उनके विरोध में बगावत फूट पड़ी और देवीलाल तथा चंद्रशेखर ने उनकी सरकार को अपंग बना दिया। सन 1990 आते-आते यह स्पष्ट हो गया कि वीपी सिंह सरकार अब कुछ ही समय की मेहमान है।
ऐसे में वीपी सिंह को चरण सिंह के समय की मंडल कमीशन की रिपोर्ट याद आ गई। इस रिपोर्ट ने पिछड़ी जातियों को सरकारी नौकरियों और सरकारी शिक्षण संस्थानों में 27 प्रतिशत आरक्षण की सिफारिश की थी। वीपी सिंह को यह प्रतीत हुआ कि अब सरकार तो जाने ही वाली है। ऐसे में देश के 52 प्रतिशत पिछड़ों को 27 प्रतिशत आरक्षण देकर अपने लिए पिछड़ा वोट बैंक पक्का कर लें। वीपी सिंह ने मंडल की सिफारिशें लागू कर दीं। पिछड़ों को केवल 27 प्रतिशत आरक्षण ही नहीं मिला बल्कि देश में पिछड़ों की राजनीति का एक नया युग भी आरंभ हो गया। भारतवर्ष में सामाजिक न्याय दरवाजा खटखटाने लगा। उधर, देखते-देखते सन 1990 में ग्यारह माह के भीतर वीपी सिंह सत्ता से बाहर हो गए। चंद्रशेखर चार माह के लिए देश के प्रधानमंत्री हो गए। सन 1990 के दशक का आरंभ मंडल क्रांति से हुआ।
Published: 10 Dec 2021, 8:15 PM IST
हिन्दू समाज अगड़ों और पिछड़ों में बंट गया। देश में मानो राजनीतिक ही नहीं, सामाजिक बंटवारा भी हो गया। हिन्दू जाति व्यवस्था के विरुद्ध यह एक क्रांति थी। जाहिर है, इसकी एक प्रतिक्रिया होनी ही थी। परंतु इस प्रतिक्रिया से पहले उत्तर भारत के हृदय उत्तर प्रदेश और बिहार की सत्ता पर मुलायम सिंह और लालू प्रसाद यादव के माध्यम से पिछड़ों का राजपाट हो गया। उच्च जातीय व्यवस्था के लिए यह सबसे बड़ी चुनौती थी। इस आदिकालीन सामाजिक और धार्मिक उच्च जातीय व्यवस्था ने अगड़ों और पिछड़ों की खाई को पाटने के लिए एक नई चाल चली। जाति कलह और फूट पाटने के लिए अब संघ के नेतृत्व में राम मंदिर के नाम पर बीजेपी के झंडे तले भारत में धर्म की राजनीति का आरंभ हुआ। यह एक नई राजनीति ही नहीं बल्कि भारतीय इतिहास का एक नया युग था जो हम रिपोर्ट कर रहे थे। परंतु हिन्दुत्व आधारित इस काउंटर रिवोल्यूशन (प्रति क्रांति) से पहले सन 1990 के दशक में और भी बहुत महत्वपूर्ण राजनीतिक उथल-पुथल हुई जिसका वर्णन यहां आवश्यक है।
इधर, वीपी सिंह की सरकार गिरी और सन 1991 में लोकसभा चुनाव की घोषणा हो गई। चुनाव अभी तक वीपी सिंह की जनता दल और राजीव गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस के बीच ही दिखाई पड़ता था। प्रचार अपने शिखर पर था कि यकायक 21 मई, 1991 को प्रचार के बीच तमिलनाडु की एक चुनावी सभा में राजीव गांधी की हत्या का दुखद समाचार आया। राजीव गांधी की हत्या जिस प्रकार हुई, उससे यह आभास हुआ, मानो दिल्ली में व्यवस्था को यह पता था कि राजीव गांधी की हत्या हो सकती है परंतु व्यवस्था ने उसको रोकने की चेष्टा नहीं की। राजीव गांधी की हत्या से देश में कांग्रेस के लिए सहानुभूति लहर चल गई और चुनावी नतीजे जब आए तो पता चला कि कांग्रेस के लिए सत्ता का रास्ता पुनः खुल गया।
Published: 10 Dec 2021, 8:15 PM IST
सोनिया गांधी ने उस समय सत्ता में आने से इनकार कर दिया। इस प्रकार अब नरसिंहराव को प्रधानमंत्री पद मिल गया। नरसिंह राव के 1991-95 काल में भारत में तीन राजनीतिक और सामाजिक शक्तियां आपस में टकरा रही थीं। एक ओर राव और मनमोहन सिंह के नेतृत्व में बाजार पर आधारित नई आर्थिक नीति का चलन शुरू हुआ जिसमें भारतीय बाजार-आधारित नई पूंजीवादी क्रांति हुई। इस क्रांति में अंबानी-जैसै पूंजीपति उभरे तो जनता को भी देश की दौलत का कुछ हिस्सा मिला। परंतु जब राव सरकार का ध्यान देश की आर्थिक व्यवस्था संभालने पर था, उसी समय देश में अगड़ों और पिछड़ों के बीच एक युद्ध चल रहा था। पिछड़ों की राजनीति अब लालू, मुलायम, कांशीराम और मायावती-जैसों के हाथों में थी।
उधर, सामाजिक व्यवस्था पिछड़ों को रोकने के लिए संघ और बीजेपी पूरी शक्ति से जुट चुकी थी। संघ ने हिन्दू समाज की खाई पाटने को हिन्दू-मुस्लिम खाई पैदा करने की रणनीति अपनाई। इस प्रकार देश में 1991 में अयोध्या राजनीति का आरंभ हुआ और देखते-देखते लालकृष्ण आडवाणी के नेतृत्व में देश राम मंदिर और बाबरी मस्जिद विवाद में हिन्दू-मुस्लिम में बंट गया। देश में सांप्रदायिक दंगे फूट पड़े। आडवाणी जी की रथ यात्राओं से देश ‘मंदिर वहीं बनाएंगे’ जैसे नारों से गूंज उठा और देखते-देखते ‘बच्चा-बच्चा राम का’ हो गया। मानो संघ और बीजेपी को मुंह मागी मुराद मिल गई।
Published: 10 Dec 2021, 8:15 PM IST
अब अल्पसंख्यक मुसलमान हिन्दू शत्रु की छवि ले रहा था। उधर, बाबरी मस्जिद की हठ की राजनीति ने मुसलमान को हिन्दू दुश्मन की छवि दे दी। इधर अयोध्या विवाद के बीच 6 दिसंबर, 1992 को आडवाणी जी के नेतृत्व में एकत्र लाखों की हिन्दू भीड़ ने अयोध्या में बाबरी मस्जिद ढहा दी। लगता था, भारत 1947 के समान पुनः हिन्दू-मुस्लिम बंटवारे में बंट गया। उधर, मस्जिद गिरी और वहीं पर राम मंदिर की नींव रख दी गई। यह केवल राम मंदिर की ही नींव नहीं थी अपितु इसी के साथ हिन्दू राष्ट्र की भी नींव रख दी गई और अब देश की राजनीतिक कमान संघ और बीजेपी के हाथों में दिखने लगी। परंतु अभी संपूर्ण रूप से हिन्दुत्व राजनीति का रंग देश पर नहीं छाया था।
सन 1996-98 के मंडल और कमंडल शक्तियों के बीच रस्साकशी रही जिसमें सन 1996 में देवगौड़ा के नेतृत्व में प्रांतीय क्षत्रपों के गठजोड़ की सरकार बनी जो अठारह माह चली। आपसी झगड़ों में चार माह इंद्र कुमार गुजराल भी इस क्षेत्रीय गठजोड़ के प्रधानमंत्री बन गए। अंततः पिछड़ों के सहयोग से चलने वाली इस सरकार का पतन हुआ और तेरह दिन की अटल बिहारी सरकार का उदय हुआ। फिर वह सरकार भी गिरी और 1998 में चुनाव के पश्चात बीजेपी सबसे बड़ा राजनीतिक दल बनकर उभरा। अटल बिहारी वाजपेयी ने एनडीए का गठन कर 2004 तक सरकार चलाई। 2004 में कांग्रेस के नेतृत्व में विपक्ष ने वाजपेयी सरकार को सत्ता से बाहर कर दिया।
Published: 10 Dec 2021, 8:15 PM IST
उधर, मंडल-कमंडल राजनीति के बीच सिमटती कांग्रेस पार्टी ने 1998 में सोनिया गांधी को राजनीतिक मैदान में उतारकर फिर अंगड़ाई ली। देखते-देखते 2004 में यूपीए गठबंधन के साथ सोनिया गांधी ने वाजपेयी-जैसे दिग्गज को मात दी। इस प्रकार 2004 से 2014 तक उनकी अध्यक्षता में मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री रहे। इन दस वर्षों में देश की राजनीति में मनमोहन सिंह ने देश की आठ प्रतिशत से अधिक की जीडीपी देकर देश को आर्थिक उन्नति के शिखर पर पहुंचाया। उधर, सोनिया गांधी ने मनरेगा-जैसी योजनाओं की बदौलत देश की लगभग 13 प्रतिशत जनता को गरीबी की रेखा से बाहर निकालकर इस देश में एक नया रिकॉर्ड कायम किया। सोनिया-मनमोहन दशक में देश हर क्षेत्र में प्रगति पर रहा।
परंतु उधर संघ अब भारत को पिछड़ों के हाथों से निकालने के लिए कमर कस चुका था। सन 2002 में मोदी के शासनकाल में गुजरात में जो मुस्लिम नरसंहार हुआ, उससे संघ को विश्वास हो गया कि देश भर में मुस्लिम विरोधी हिन्दू लहर पैदा की जा सकती है। संघ ने कमान नरेन्द्र मोदी के हाथों में सौंपी। गुजरात में मुसलमानों को सबक सिखाने वाले हिन्दू हृदय सम्राट नरेन्द्र मोदी ने सफलतापूर्वक देश में देशव्यापी हिन्दू वोट बैंक बनाकर देश में हिन्दू राष्ट्र की राजनीति का आरंभ कर दिया।
इस प्रकार सन 1981 से 2021 के बीच चार दशकों में स्वयं हमारी आंखों के सामने हमारी पत्रकारिता के दौरान भारत ऐसा बदला जिसकी कल्पना हम 1981 में नहीं कर सकते थे। तथापि हिन्दुत्व के चंगुल से निकालने में भी ऐसे ही चार-पांच दशक बीत सकते हैं। पर इस परिवर्तन को कलमबंद करने के लिए हम जीवित नहीं रहेंगे। हां, यह आशा अवश्य है कि परिवर्तन होगा और उसका नेतृत्व पिछड़े ही करेंगे।
Published: 10 Dec 2021, 8:15 PM IST
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Published: 10 Dec 2021, 8:15 PM IST