गणतंत्र दिवस समारोह में मुख्य अतिथि के रूप में एक निरंकुश तानाशाह को आमंत्रित करने की विडंबना को दरकिनार कर दें तो भी पिछला एक महीना बीजेपी या उसके ‘भक्तवीरों’ के लिए अच्छा नहीं रहा है। लोगों को यह उम्मीद रही होगी कि विदेश मंत्रालय के बुद्धिमान लोग प्रधानमंत्री को सलाह देंगे कि एक ऐसे व्यक्ति जिसने अपने ही देश के संविधान की चिंदियां कर डाली हों, उसे किसी और देश के संविधान (बेशक उसके किनारे छीज गए हों) अपनाने के समारोह में पलक-पांवड़े पर बैठाना सही नहीं होगा। लेकिन मुझे लगता है कि हमारी नई ‘भेड़िया-मानव’ वाली डिप्लोमेसी से ऐसी उम्मीद बेमानी ही है।
हालांकि, इससे भी अहम बात बीबीसी के दो-भाग वाले डॉक्यूमेंट्री ‘द मोदी क्वेश्चन’ पर अफसरों का पिल पड़ना है। विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता ने जल्दबाजी में भगवा चोला ओढ़ लिया और डॉक्यूमेंट्री को देखने की परवाह किए बिना मीडिया से कह दिया कि यह भारत के खिलाफ एक साजिश और औपनिवेशिक मानसिकता का सूचक है।
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इसे मैं आमतौर पर सुस्त ‘ऑगमेंटिन’ प्रतिक्रिया कहता हूं। ऑगमेंटिन एक ‘ब्रॉड स्पेक्ट्रम एंटीबायोटिक’ है और जब कोई डॉक्टर संक्रमण की वजह नहीं पहचान पाता तो वह इस उम्मीद में एक ब्रॉड स्पेक्ट्रम एंटीबायोटिक लिख देता है कि यह उस वायरस के संक्रमण में भी काम कर जाएगा। यह एक क्लस्टर बम की तरह है और लगता है कि विदेश मंत्रालय का रवैया भी कुछ वैसा ही है।
यहां तक कि ट्विटर पर मौजूद लोग भी इस बात को स्वीकार करेंगे कि चाहे कुछ भी हो, बीबीसी की विश्वसनीयता हमारे सरकारी प्रवक्ता, कंगना रनौत या अमित मालवीय से तो अधिक ही है। बीबीसी ब्रिटिश करदाता के पैसे से चलता है और वह ब्रिटेन की जनता के प्रति जवाबदेह है, सरकार के प्रति नहीं। ब्रिटिश सरकार तो उस पैसे को बीबीसी तक पहुंचाने का सिर्फ एक जरिया है। हालांकि यहां के ज्यादातर ‘राष्ट्रवीर’ इस बारीक फर्क को नहीं समझ सकेंगे।
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कुछ साल पहले बीबीसी ने 1940 के बंगाल के अकाल पर एक डॉक्यूमेंट्री जारी किया था जिसमें चर्चिल और तत्कालीन औपनिवेशिक सरकार को जिम्मेदार ठहराया गया था। जब बोरिस जॉनसन प्रधानमंत्री थे, तो बीबीसी ने उनसे भी रियायत नहीं बरती और बराबर उनकी पार्टियों में शरारत पर रिपोर्ट दी। इसलिए वह हमारे उन ‘टीआरपीवीर’ टीवी एंकरों के मुकाबले कुछ तो बेहतर है जो ऊंची बोली लगाने वालों के हाथ अपने जमीर को बेचकर हमें भाषण पिलाते हैं कि बीबीसी बिक गया है और उसकी कोई विश्वसनीयता नहीं है।
‘पूर्व-वैदिक काल’ में पत्रकार रह चुके स्वपन दासगुप्ता प्रधानमंत्री के माडिया सलाहकार हैं और उन्हें बीबीसी की डॉक्यूमेंट्री में जरूरत से ज्यादा वक्त दिया गया। जब सरकार ने इस डॉक्यूमेंट्री को डिजिटल प्लेटफॉर्म पर बैन किया, तो सबसे पहले स्वपन दासगुप्ता को बाहर का रास्ता दिखाया जाना चाहिए था। यदि श्री दासगुप्ता ने अपना सारा समय ऐसे व्यक्ति को बचाने में नहीं लगाया होता जिसे बचाया नहीं जा सकता तो शायद उन्हें ‘स्ट्रीसंड प्रभाव’ का पता होता।
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बात वर्ष 2003 की है। कैलिफ़ोर्निया कोस्टल प्रोजेक्ट की जो रिपोर्ट अपलोड की गई, उसमें समुद्र तट की एक तस्वीर थी जिसमें अभिनेत्री बारबरा स्ट्रीसंड की मालिबू हवेली भी दिखाई दे रही थी। अभिनेत्री ने इसे निजता के हनन का मामला माना और पांच करोड़ डॉलर का दावा करते हुए मुकदमा दायर कर दिया। इसका असर यह हुआ कि पहले जहां उस फोटोग्राफ के केवल छह डाउनलोड थे, बारबरा की कार्रवाई के बाद कुछ महीनों में उसके 4,20,000 डाउनलोड हो गए!
सूचना को दबाने या छिपाने का जितना प्रयास किया जाता है, वह उतना ही अधिक लोगों का ध्यान खींचता है। बीबीसी की डॉक्यूमेंट्री के मामले में भी ऐसा ही हो रहा है और इस वजह से ‘भक्तवीरों’ को खासी शर्मिंदगी उठानी पड़ रही है।
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कुछ ऐसा ही फिल्म ‘पठान’ के साथ हुआ। कुछ समय से यह बात साफ हो गई है कि दक्षिणपंथी शाहरुख खान के कट्टर विरोधी हैं। ऐसा क्यों है, इसका जवाब उन्हीं के पास होगा क्योंकि शाहरुख ने सार्वजनिक रूप से खुद को एक ऐसे भले इंसान के तौर पर पेश किया है जो राजनीति से दूर रहता है और किसी की आलोचना नहीं करता। मुझे लगता है कि यही बात कुछ लोगों को गुस्सा दिलाती है। शाहरुख उस ‘दुश्मन’ की छवि जैसे नहीं हैं जिसे ये लंपट निशाना बनाते हैं। लेकिन वह भारत के सबसे बड़े सुपरस्टार हैं और इसलिए उन्हें खींचकर नीचे लाया जाना चाहिए, शायद केवल उनके समुदाय के लोगों को यह बताने के लिए इस ‘नए राष्ट्र’ में उन्हें कामयाब होने की इजाजत नहीं दी जा सकती।
राजकपूर से लेकर एआर रहमान के समय तक अंतरराष्ट्रीय स्तर पर बॉलीवुड भारत की सॉफ्ट पावर का अहम चेहरा रहा है। बॉलीवुड जिस चेहरे को दुनिया के सामने पेश करता है, वह देश की फलती-फूलती बहु-धार्मिक, बहु-समुदायिक सांस्कृतिक विविधता का प्रतिनिधित्व करने वाला शख्स होता है चाहे वह लेखक हो, गीतकार हो, संगीतकार हो, गायक हो, निदेशक हो या फिर हीरो-हीरोइन। लेकिन मौजूदा सत्ता और उसके समर्थकों को यह मंजूर नहीं। वे पूरी शिद्दत से चाहते हैं कि भारत को केवल एक ही धार्मिक और सांस्कृतिक चश्मे से देखा जाए। चूंकि शाहरुख खान उसी बॉलीवुड का चेहरा हैं, इसलिए उन्हें खींचकर नीचे विवेक अग्निहोत्रियों और अक्षय कुमारों के बराबर लाना होगा।
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पिछले साल शाहरुख के बेटे को ड्रग्स के झूठे मामले में निशाना बनाया गया लेकिन यह मामला पलटकर सरकार पर ही तमाचे की तरह पड़ा था। लिहाजा पांच साल बाद आ रही उनकी फिल्म 'पठान' को किसी भी सूरत में सफल नहीं होने देना था। इसी वजह से विवाद खड़ा किया गया। टीवी पर चर्चा कराई गई कि जनमत उनके खिलाफ बने। सोशल मीडिया पर ‘बॉयकाट पठान’ अभियान चलाया गया। सत्ता से जुड़े छुटभइये मंत्री तक धमकी देने में आगे रहे। लेकिन एक बार फिर ‘स्ट्रीसंड प्रभाव’ हो गया और नतीजा यह है कि शाहरुख की फिल्म ‘पठान’ भारतीय ‘टाइटैनिक’ या ‘अवतार’ बनने की राह पर है।
क्या राष्ट्रवाद का विषैला विषाणु कोविड की तरह कमजोर हो रहा है, या हम इसके प्रति अधिक प्रतिरोधक क्षमता विकसित कर रहे हैं? यह तो समय बताएगा, लेकिन हाल-फिलहाल के ये घटनाक्रम उम्मीद जगाने वाले हैं।
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जब मैं यह आलेख लिख रहा हूं तो हिंडनबर्ग की रिपोर्ट के कारण अडानी समूह की संपत्ति के बाजार मूल्य हमारे टीवी एंकरों के नैतिक मूल्यों की तुलना में कहीं तेजी से गिर चुका है। यह कहानी अभी आकार ही ले रही है और हमेशा की तरह, रिपोर्ट का मुकाबला करने के लिए ‘षड्यंत्र’ और ‘भारत-विरोधी’ पत्तों को चल दिया गया है। हाल ही में अडानी इंटरप्राइजेज के सीएफओ ने टेलीविजन संबोधन में खुद को राष्ट्रीय ध्वज में लपेट लिया और अपने शेयरों के ‘संहार’ की तुलना जलियांवाला बाग हत्याकांड से कर दी!
सवाल यह नहीं है कि पहले कौन पलक झपकाएगा (अडानी पहले ही अपना एफपीओ रद्द करके पलकें झपका चुके हैं), असली सवाल यह है: पहले कौन बोलेगा? मुझे पता है कि इस रिपोर्ट में या बीबीसी की डॉक्यूमेंट्री में प्रस्तुत तथ्य गलत हो सकते हैं (हालांकि मुझे लगता है कि वे गलत नहीं हैं) लेकिन इतना तय है कि इस महान राष्ट्र की बराबरी इन दो लोगों से कतई नहीं की जा सकती।
‘अमृतकाल’ या हमारे बहुप्रतीक्षित जी-20 प्रेसीडेंसी की यह कोई बहुत शुभ शुरुआत तो नहीं है।
(लेखक सेवानिवृत्त आईएएस अधिकारी हैं)
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