पिछले साल की सर्दियों की बात है, हिमालय की पहाड़ियों में बसे शिमला में पानी नहीं था। दूसरी ओर, 2019 की गर्मियों में तमाम नदियों के दूसरे छोर पर स्थित चेन्नै को ऐसे समय का सामना करना पड़ा जब वहां पानी नहीं था।
केवल ये शहर ही नहीं हैं जो इस तरह के जल संकट का सामना कर रहे हैं। नीति आयोग के 2018 के समग्र जल सूचकांक के मुताबिक 60 करोड़ लोग, यानी मोटे तौर पर देश की आधी आबादी, गंभीर जल संकट का सामना कर रही है। इससे भी गंभीर बात यह है कि उपलब्ध पानी का 70 फीसदी दूषित है। साल 2020 तक दिल्ली, बेंगलुरु, चेन्नै और हैदराबाद में भूजल स्तर खतरनाक तरीके से गिर जाएगा और 2030 तक भारत के 40 प्रतिशत हिस्से में पीने का पानी नहीं होगा।
लेकिन यह ऐसा भविष्य है, जिसे हम बदल सकते हैं। पानी ऐसा संसाधन है जिसकी हर साल बर्फ के पिघलने और बारिश से आपूर्ति होती रहती है। राहत की बात है कि कृषि को छोड़कर हम पानी को उपयोग में लाकर खत्म नहीं कर देते। हम पानी का उपभोग करते हैं और फिर इसे बहा देते हैं। इसलिए इसका शोधन और फिर दोबारा इस्तेमाल हो सकता है।
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एजेंडा एकदम साफ हैः सबसे पहले हर जगह हर बूंद को बचाकर उपलब्ध पानी की मात्रा बढ़ाएं। भारत जैसे अनिश्चित मौसम वाले देश में जब जमकर बारिश हो तो इसके पानी को रोककर इससे भूजल के स्तर को बढ़ाने के उपाय करने होंगे। दूसरा सबसे अहम एजेंडा है पानी का अधिकतम सूझ-बूझ के साथ इस्तेमाल होना चाहिए। पानी की एक-एक बूंद का इस्तेमाल उपज बढ़ाने में हो और जहां भी इसका उपभोग हो, विवेकपूर्ण तरीके से हो।
इसका मतलब है कि हमें पानी की खपत को कम करना होगा। खेती के पैटर्न को भी हमें बदलना होगा यानी चावल, गेहूं, गन्ना जैसी ज्यादा पानी की खपत वाली फसलों को वैसी जगहों पर उगाने से बचना होगा जहां पानी कम हो। इसी बात को ध्यान में रखते हुए किसानों को फसलों के विविधीकरण के लिए प्रोत्साहित करना होगा और खान-पान में वैसी फसलों को बढ़ावा देना होगा जिन्हें कम पानी की जरूरत होती है। अगर खेती के लिए पानी की कम खपत वाली फसलों को बढ़ावा देना एजेंडा होना चाहिए तो शहरों और उद्योगों के लिए पानी के पुनर्शोधन पर ध्यान केंद्रित होना चाहिए।
यह याद रखना होगा कि हमारे पास ऐसा कोई आंकड़ा नहीं जो बताए कि आज शहरों और उद्योगों में कितना पानी इस्तेमाल हो रहा है। इस बारे में पिछली बार 1990 के दशक के मध्य में कोशिश की गई थी जिससे पता चलता है कि तब उपलब्ध पानी का 75-80 फीसदी खेती में इस्तेमाल हो रहा था। लेकिन आज के संदर्भ में तो यह आंकड़ा बेकार ही हो गया होगा।
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जब भी किसी शहर का विस्तार होगा, इसे और पानी की दरकार होगी। पानी की इस बढ़ी मात्रा की आपूर्ति शहर के बाहर से की जाएगी और इससे लागत तो बढ़ती ही है, पानी की बर्बादी भी अधिक हो जाती है। इसलिए, शहरों में जो भी पानी है, महंगा है। इसे वहां रहने वालों को उपलब्ध कराया जाता है। जहां लोगों को कम पानी मिलता है, या नहीं मिलता है, वे जमीन के अंदर से पानी निकालते हैं और इस तरह भू-जल का स्तर गिरता जाता है।
इससे बुरा और आपराधिक कृत्य यह है कि शहर प्रकृति को वापस साफ पानी नहीं देते, वे पानी का उपभोग करने के बाद 80 फीसदी गैर-शोधित गंदा पानी प्रकृति को देते हैं। इस गैर-शोधित पानी की काफी मात्रा को साफ करके फिर इस्तेमाल में लाया जा सकता है। हम यह कर सकते हैं, लेकिन नहीं करते। इसकी जगह हम इसका इस्तेमाल करते हैं, बहा देते हैं और भूल जाते हैं। नतीजा, प्रकृति के पास जो शुद्ध पानी होता है, उसे भी अशुद्ध कर देते हैं।
शोचालय गंदगी का बड़ा स्रोत होते हैं। जब फ्लश चलाते हैं, या पानी डालते हैं, मल बहकर पाइप में चला जाता है। यह पाइप सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट (एसटीपी) से जुड़ा हो सकता है और नहीं भी। एसटीपी चालू हो सकता है और नहीं भी। शौचालयों को बनाने में इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि ये ऐसी प्रणाली से जुड़े हों जो मल को सुरक्षित तरीके से शोधित करे, जिससे शौचालय प्रदूषण के स्रोत न बनें और मनुष्य के स्वास्थ्य के लिए खतरा पैदा न करें।
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इसलिए शौचालय बनाना जितना भी जरूरी क्यों न हो, इसे स्वच्छता के उपाय मानकर भ्रमित नहीं होना चाहिए। लेकिन हम जिस तरह से अपने सीवेज का ट्रीटमेंट करते हैं, उसे नए सिरे से परिभाषित करना होगा- सबसे पहले हमें पानी को प्रदूषित होने से बचाना होगा और फिर गंदे पानी को दोबारा इस्तेमाल के लायक बनाना होगा। इसी से बदलाव आ सकता है।
शहरों में सबसे पहले तो पानी की आपूर्ति का मामला उठता है। जितनी दूर से पानी लाया जाता है, उसपर उतना ही ज्यादा खर्च आता है। और जितना ज्यादा पानी इस्तेमाल होता है, उतना ही ज्यादा गंदा पानी निकलता है। इसलिए अगले चरण में भूमिगत पाइप लाइन बिछाकर शौचालय से निकलने वाले मल को दूर सीवेज प्लांट तक ले जाकर साफ करना होगा और उसके बाद ही इस द्रव को छोड़ना होगा। लेकिन इतना ही काफी नहीं। सच्चाई तो यह है कि हमारी नदियों की ऐसी स्थिति है कि वे इस शोधित द्रव को भी झेलने की हालत में नहीं हैं। इसका मतलब है कि सीवेज के द्रव को नदी में डालने से पहले पानी को कम से कम नहाने लायक बनाना होगा। लेकिन ऐसा नहीं होता है।
दिक्कत की बात यह है कि हमारे यहां कोई भी ऐसा शहर नहीं जो शौच की गंदगी को सुरक्षित तरीके से निपटाता हो। दूसरी समस्या यह है कि शहरों के ज्यादातर शौचालय भूमिगत पाइपलाइन से जुड़े नहीं हैं। इन्हें सेप्टिक टैंक से जोड़ दिया जाता है। यह मौके पर ही ट्रीटमेंट जैसी व्यवस्था है जिसके महत्व को समझते हुए इसे अमल में लाया जाना चाहिए। अगर सेप्टिक टैंक तय दिशानिर्देशों के आधार पर बनाए गए और इससे पैदा होने वाले गाढ़े अवशेष को ट्रीटमेंट प्वाइंट तक ले जाकर इसे शोधित कर दिया जाए, तब ही यह दोबारा इस्तेमाल के लिए सुरक्षित हो सकता है।
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सच तो यह है कि इस गाढ़े अवशेष में काफी पोषक तत्व होते हैं। आज दुनिया में नाइट्रोजन चक्र बिगड़ गया है क्योंकि आदमी का मल, जिसमें नाइट्रोजन की मात्रा काफी अधिक होती है, पानी में बहा दिया जाता है। लेकिन अगर मल को अच्छे तरीके से ट्रीट कर दिया जाए तो इसे उर्वरक के रूप में खेतों में इस्तेमाल कर सकते हैं। इसके अलावा इसमें अन्य आर्गेनिक अवशेषों में मिलाकर इसका इस्तेमाल बायो गैस या फिर इथेनॉल बनाने में भी हो सकता है।
मूल बात ये है कि जब तक हमारी अवशेष प्रबंधन व्यवस्था कम लागत की नहीं होगी, इसे व्यापक रूप से अमल में नहीं लाया जा सकेगा। हमें ऐसा हल चाहिए जिससे सबको पानी मिले, गंदे मलयुक्त पानी को मौके पर ही साफ करने की व्यवस्था हो ताकि इसका दोबारा इस्तेमाल हो सके। इसका एक फायदा यह होगा कि सीवेज कारोबार नए अवतार में हमारे सामने होगा। इससे लोगों को रोजगार भी मिलेगा और इस तरह अवशेष, बेकार की चीज नहीं रह जाएगा बल्कि यह संसाधन बन जाएगा।
हमारे यहां का मौसम ऐसा होता है कि बाढ़ और सूखा एक साथ आते हैं। स्थिति यह होती है कि जहां 40 फीसदी जिले सूखे की मार झेल रहे होते हैं, 25 फीसदी ऐसी भारी बारिश से दो-चार हो रहे होते हैं कि चंद घंटों के भीतर ही सौ मिलीमीटर से अधिक बारिश हो जाती है। साल 2017 में खुले मैदानों का शहर चंडीगढ़ पानी में डूब गया था। जबकि उसी साल 21 अगस्त तक वहां बारिश बहुत कम हुई थी। और फिर 12 घंटे में ही 115 मिलीमीटर बारिश हो गई। दूसरे शब्दों में कहें तो चंडीगढ़ को पूरे मॉनसून के सीजन में जितना पानी मिलता, उसका 15 फीसदी केवल तीन घंटों में ही मिल गया था। इसी साल बेंगलुरू में मुश्किल से बारिश हो रही थी, लेकिन फिर एक दिन 150 मिलीमीटर बारिश, यानी सालाना होने वाली वर्षा का 30 फीसदी बरस गया। कोई आश्चर्य नहीं, शहर पानी में डूब गया।
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इसका मतलब यह है कि नदियों को तालाबों, झीलों आदि से जोड़ना जरूरी है ताकि पानी को बहने की जगह मिले। इससे बाढ़ जैसी स्थिति से छुटकारा तो मिलेगा ही, हर इलाके के लोगों को बराबर पानी मिलेगा। इससे भूजल स्तर भी बढ़ेगा और वैसे समय, जब पानी की उपलब्धता कम होगी, पीने और सिंचाई के लिए पानी मिल सकेगा। पानी और संस्कृति का चोली-दामन का साथ होता है। जल संकट केवल बारिश के न होने का मसला नहीं। यह मसला समाज की उस विफलता को भी दिखाता है कि वह जल संसाधन का मिलजुल कर इस्तेमाल नहीं कर सका।
पानी का संकट ऐसा है, जिसने हमें घेर रखा है। इससे निकलने के लिए तमाम बुनियादी काम करने होंगे। सबसे पहले तो दूषित पानी को यूं ही प्रकृति में छोड़ने की आदत बदलनी होगी। हम जितने पानी का उपयोग करते हैं, उसे कम से कम नहाने के स्तर तक शोधित करने के बाद ही छोड़ना होगा। अगर ऐसा नहीं किया तो यह थोड़ा पानी बाकी के पानी को भी दूषित करता रहेगा। आज पूरी दुनिया जिस तरह के जल संकट का सामना कर रही है, इस ओर से आंखें मूंदना खतरनाक साबित होगा।
(ये लेखक के अपने विचार हैं। लेखक जानी-मानी पर्यावरणविद हैं)
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