अपने बहुचर्चित साप्ताहिक रेडियो कार्यक्रम ‘मन की बात’ में प्रधानमंत्री ने देश को सुप्रीम कोर्ट के अयोध्या मामले पर दिए फैसले को शांति और सद्भाव से स्वीकार करने के लिए धन्यवाद दिया, और इसे एक ऐसा मील का पत्थर बताया, जिससे देश में न्यायपालिका के लिए सम्मान बढ़ गया है। फिर उन्होंने एक एनसीसी कैडेट के सवाल के जवाब में कहा कि खुद उनकी राजनीति में आने की कभी इच्छा नहीं थी। और न कभी उन्होंने इस बाबत सोचा था। अब वह जहां भी हैं पूरी तरह जीवन जीना और देश के लिए काम करना चाहते हैं।
सुनते हुए लगता था कि हमारे प्रधानमंत्री अपनी दृष्टि में शायद राजा जनक जैसे विदेह दार्शनिक शासक हैं, जिनको अपने शासन का कोई पुण्य-पाप नहीं व्यापता। दंतकथाओं के अनुसार राजधानी में आग लगी है, खबर पाकर जनक ने बस इतना ही कहा था, काठ की मिथिला जल जाए तो भी मेरा क्या? अचरज कि कई बार राजनीति जिनकी फर्स्ट चॉयस नहीं थी, उनको शायद वह इतनी भी असहनीय नहीं प्रतीत हुई कि वे उससे छुटकारा पा लेते। शायद मोदीजी के इसी निष्कामता भाव को जाने-माने विज्ञापन निर्माता प्रसून जोशी ने लंदन में ‘एक फकीरी सी’ बताया था।
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हम नहीं जानते कि जनककालीन मिथिला का जीडीपी रेट क्या था, अलबत्ता आज जबकि देश की अर्थनीति तेजी से नीचे लुढ़ककर संभाले नहीं संभलती है, गोवा, मणिपुर और कर्नाटक के बाद अब देश की वित्तीय राजधानी मुंबई में दलों के निर्मम अंगभंग के द्वारा गढ़े गए एक मंत्रिमंडल को बनाने की कवायद जारी है, जिस पर ‘मन की बात’ में हमने कुछ नहीं सुना। नकाबपोश घुड़सवारों के जत्थों पर (नारायण राणे के अनुसार राजनीति के बाजार में) लगाई जा रही बोलियां, अफवाहें और कानूनी जिरहें सब आज की राजनीति की एक होमियोपैथी की शैली है। यह पहली कुछ खुराकों में बीमारी के लक्षण पहले इतने बढ़ा देती है कि एक बिंदु पर जरासीम थक कर स्वयं शांत हो जाते हैं।
गोवा, मणिपुर और कर्नाटक गवाह हैं कि अगर दलों की भीतरी बारीक दरारों को भांपकर उनको शक की कुदालों से खाई बना दिया जाए, भारी मेहनत और खर्चे से चुनाव जीते विधायकों को पुराने आरोपों के प्रेत दिखाकर जेल या राजनीतिक वनवास में चले जाने का डरावना विकल्प दिखाया जाए, तो अक्सर उनके ऊंचे सुर शिथिल पड़ जाते हैं। यह हुआ तो वे स्वयमेव किसी रिसॉर्ट में चले आते हैं, जहां अनेक तरह के आक बबूल धतूरे के साथ बड़े पेड़ और लतिकाएं सब सानंद फल फूलने को स्वतंत्र हैं। संकट खतम, पैसा हजम!
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26 नवंबर को संविधान दिवस था। संविधान की मर्यादाओं की चाहे जितनी भावुक आरती की जाए, सच तो यह है कि 2019 के लोकतांत्रिक भारत में राजनीतिक हलकों में उनकी कोई मान्यता नहीं रही। चुनाव वे जिस भी दल के टिकट पर लड़े हों, नतीजे आने के बाद भी तरखाने तकरीबन हर नेता उसी दल में घुसना चाहता है, जहां मेवा मिल रहा है। दुर्योधन के मेवे त्याग कर विदुर जनता के घर का साग आज कोई नहीं खाना चाहता। यह खेल गंदा है, पर उनको धंधा लगता है। इसीलिए हालिया चुनावों के बाद दलगत राजनीति बार-बार ऐसे जुआघर में तब्दील होती दिखती है जहां लोकतंत्र की इज्जत दांव पर लगी हुई है।
चुनावी प्रचार के समय युवाओं, खासकर छात्रों से मुखातिब होने पर सब कहते हैं कि इस जुआ घर में आग लगनी चाहिए। राष्ट्रभक्ति का तकाजा है, हम सब नि:स्वार्थी बनें। देश की धरती बलिदान चाहती है। प्लास्टिक का कचरा हटाना हो, कि सशस्त्र बल झंडा दिवस मनाना। भारत की आन, बान, शान बढ़ाने को युवाओं की भारी भागीदारी अनिवार्य है, आदि। लेकिन उनका यह क्रांति आह्वान काफी कुछ भक्त अजामिल के प्रभु स्मरण सरीखा है। प्रभु की दया से खुद अजामिल तो तर कर स्वर्ग चला जाएगा लेकिन मर्त्युलोक में हमारे लिए कुशासन के निस्तार, पांच ट्रिलियन की आर्थिक क्रांति और नई नौकरियों के सवाल जस के तस रहेंगे।
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संविधान की मर्यादाएं तोड़कर संविधान दिवस की ही तरह गांधी जयंती भी हमने बड़ी धूमधाम से मनाई। गांधी ने कभी राम नाम के सहारे आध्यात्मिकता को एक वज्र का सत्याग्रही रूप दिया था। सदियों से भक्ति की निष्क्रिय खोह में सर छुपाए देशवासियों के बीच इस वज्र से विदेशी सत्ता को भगाकर वह एक विस्मयजनक क्रांति करा गए। लेकिन अब वही वज्र सत्ता जिन-जिन की झोली में डालती है, उनमें उस अस्त्र की कोई सकारात्मक समझ नहीं बची। अकुशल हाथों में वह बंदर का उस्तरा बन बैठा है, जिसे वे कभी चबाते हैं, कभी उससे ऊपर चढ़ कर तबाही मचा देते हैं। राम नाम के वज्र का पूरा राम नाम सत्य करने के बाद वह समंदर में फेंक दिया गया है।
अब संविधान दिवस पर हमको कश्मीर से केरल तक संविधान में दर्ज सेकुलर धाराओं, नागरिकता और अभिव्यक्ति की आजादी के लिए छिड़ते गृहयुद्ध दिख रहे हैं। लगता है हम एक सिरे से भूल चुके हैं कि हम लोकतंत्र के इस भव्य संविधान तले, जिसे हमारे पुरखे 26 नवंबर, 1949 को विरासत में दे गए, किस तरह एक होकर प्रेम और भाईचारे के साथ रहें। शासन हमारे लिए न्याय और समदर्शिता नहीं वैसे ही कुशासन का पर्याय नजर आने लगा है जैसा वह पहले ईस्ट इंडिया और फिर ब्रिटेन की महारानी के शासन तले था। तब भी सरकार के कारिंदे गरीब किसानों और व्यापारी वर्ग से अपने लिए अधिकाधिक कर उगाही करने और विदेशी कंपनियों का माल बेचने के वास्ते देसी जनता को डराते, लूटते और आपस में मारामारी करते थे, आज भी वही हाल है।
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लोकतांत्रिक भारत में जनता और शासकों के बीच आपस में जो खुला निडर संवाद और बहस मुबाहसे होने चाहिए थे, उनके विनाश का चरम उदाहरण महाराष्ट्र चुनावों के बाद सूबे में महीने भर व्याप्त अराजक स्थिति रही। क्या यह अचरज और चिंता का विषय नहीं, कि दिल्ली में आधी रात को बिना वैधानिकता के तकाजे के तहत जरूरी काबीना बैठक कराए सूबे से राष्ट्रपति शासन की समाप्ति की घोषणा पर हस्ताक्षर कर दिए गए? फिर राज्यपाल ने बिना समर्थकों की फेहरिस्त का सत्यापन कराए, बिना एनसीपी मुखिया शरद पवार की जानकारी के, महाराष्ट्र में आधी रात को अचानक बीजेपी के देवेंद्र फडणवीस और एनसीपी के अजित पवार को एक साथ शपथ ग्रहण कर गठजोड़ सरकार बनाने की मंजूरी दे दी।
यह गौरतलब है कि सुबह-सुबह उसकी खबर देश को किसने दी? जी नहीं, अखबारों ने नहीं, देश के नेशनल ब्रॉडकास्टर माने जाने वाले प्रसार भारती के दूरदर्शन ने भी नहीं, बल्कि सिर्फ एक निजी संवाद एजेंसी ने! बताया जा रहा है कि तमाम अन्य चैनलों या अखबारों की बजाय सिर्फ उसी एजेंसी को कवरेज के लिए बुलाया गया था।
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कुहासा कुछ और गहरा हुआ जबकि अगले दिन उपमुख्यमंत्री घोषित होने के बावजूद अजित पवार सोशल मीडिया पर खुद को एनसीपी सदस्य और शरद पवार को दलीय मुखिया स्वीकार करते रहे, और किसी सरकारी बैठक में शामिल नहीं हुए। उधर उनके (पूर्व?) दल के अधिकतर विधायकों ने शपथ ग्रहण करने वाले नेतृत्व के गठजोड़ के संग नहीं, बल्कि शरद पवार खेमे में होने का दावा किया। इसी के साथ शाम को मुंबई के एक पंचतारा होटल में तीन दलों के विधायकों की परेड हुई जिन्होंने संविधान तथा लोकतंत्र की रक्षा की शपथ ली।
यह सारा नाटक संविधान की धज्जियां उड़ाना नहीं तो और क्या कहा जाएगा? अंग्रेज चले गए, नया लोकतांत्रिक संविधान लाया गया फिर भी सत्ता चालन की शैली वैसी ही अलोकतांत्रिक और सामंती है। इस पार सवा अरब जनता है और उस पार विजेताओं और उनके थैली शाह मित्रों की दुनिया। यह लकीर पार हुई नहीं कि विजेताओं को लूट की अलिखित छूट मिल जाती है। होते-होते लोकतंत्र में राम राज्य के राम नाम सत्य की तरफ करंट इतनी तेजी से बढ़ा है कि शॉर्ट सर्किट हो गया और घुप्प अंधकार में इस पार खड़ी जनता को देखने को केवल निजी संवाद एजेंसी की फुटेज मिलती है और सुनने को विरक्त राजा जनक के ‘मन की बात’ जिसमें वह कहते हैं राजनीति में आने की उनकी कोई इच्छा न थी।
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इस सबने तमाम राजनीतिक दलों का कद छोटा कर दिया है। आज की पीढ़ी के लिए यकीन करना तनिक कठिन होगा कि कभी इसी शिवसेना ने 1967 में पैदा होते ही 1962 की गोवा विजय के नायक कृष्ण मेनन को चुनाव में हरा दिया था। और अजित पवार के परम मित्र बनने वाले फडणवीस साहिब कल तक उनको जेल में चक्की पिसवाने की धमकी दे कर जनता से तालियां पिटवा रहे थे। दरअसल हमारे यहां जब-जब समाजवाद की ताकतें कमजोर पड़ती हैं, देश नीम हकीम तलाशता है। महाराष्ट्र भी उसी का उदाहरण है। वसंत दादा से फिरंट होकर सूबा बाल ठाकरे की तरफ मुड़ा। फिर जब कभी वहां दक्षिणपंथी सरकार बनी तो शिवसेना बड़े भैया के दबंग रोल में रही। पर 2014 में फडणवीस सरकार बनी तो उसको मिले भारी बहुमत के तहत सेना के सहयोग का खुला अवमूल्यन शुरू हुआ। मराठावादी उपराष्ट्रीयता में ब्राह्मणवाद का छौंक पड़ने के बाद से तो सेना खुल्लमखुल्ला हाशिये पर डाल दी गई। बीजेपी की यही हेकड़ी जनता को नहीं सुहाई और 2019 के विधानसभा चुनावों में बीजेपी को बहुमत से काफी कम सीटें मिलीं।
इस तरह कभी विकास और समृद्धि का पर्याय रहे महाराष्ट्र में प्रजातंत्र के सात दशकों ने लोकतंत्र की कीमती इमारती लकड़ियों को जलावन में बदल डाला जिनको संविधान की तमाम ज्ञात परिधियों में दिल्ली से मुंबई तक सुरंगें बनवाकर स्वार्थ की भट्टी में झोंका जा रहा है। इस लाक्षागृह की आग से जीवों की रक्षा करना किसका काम है? अभी तो सर्कस मैनेजर विरक्ति की राह पर तपोवनमुखी हैं, जबकि उनके नट झूलों से गिर रहे हैं, हाथी तंबू तोड़ रहे हैं, विदूषक यत्र-तत्र फुदक रहे हैं और शेरों को समझ नहीं आ रहा कि वे इस सर्कस का कानून मानें कि अपने मूल जंगलराज का?
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