विचार

कश्मीर को लेकर अंतरराष्ट्रीय मंचों पर विफल हुआ पाकिस्तान, उन्मादी बयान केवल अपनी अवाम को भरमाने के लिए

अनुच्छेद 370 पर भारत सरकार के फैसले के बाद से पाकिस्तान ने राजनयिक गतिविधियों को तेजी से बढ़ाते हुए फिर से कश्मीर के अंतरराष्ट्रीयकरण पर पूरी जान लगा दी। लेकिन उसे सफलता नहीं मिली। हालांकि, कश्मीर में अगर कोई अव्यवस्था हुई, तो पाकिस्तान उसका फायदा जरूर उठाएगा।

फोटोः सोशल मीडिया
फोटोः सोशल मीडिया 

पिछले 72 वर्षों में पाकिस्तान की कोशिश या तो कश्मीर को फौजी ताकत से हासिल करने की रही है या फिर भारत पर अंतरराष्ट्रीय दबाव बनाने की रही है। पिछले दो या तीन सप्ताह में स्थितियां बड़ी तेजी से बदली हैं। कहना मुश्किल है कि इस इलाके में शांति स्थापित होगी या हालात बिगड़ेंगे। बहुत कुछ इस बात पर निर्भर करता है कि भारत-पाकिस्तान और अफगानिस्तान की आंतरिक तथा बाहरी राजनीति किस दिशा में जाती है। पर सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण है कि पाकिस्तानी ‘डीप स्टेट’ का रुख क्या रहता है।

चीनी ढाल का सहारा

इस वक्त पाकिस्तान एक तरफ चीन और दूसरी तरफ अमेरिका के सहारे अपने मंसूबे पूरे करना चाहता है। पिछले कुछ साल में पाकिस्तानी डिप्लोमेसी को अमेरिका से झिड़कियां खाने को मिली हैं। इस वजह से उसने चीन का दामन थामा है। जम्मू-कश्मीर में अनुच्छेद 370 के सिलसिले में भारत सरकार के फैसले के बाद से पाकिस्तान ने राजनयिक गतिविधियों को तेजी से बढ़ाया और फिर से कश्मीर के अंतरराष्ट्रीयकरण पर पूरी जान लगा दी। फिलहाल उसे सफलता नहीं मिली है, पर कहानी खत्म भी नहीं हुई है।

16 अगस्त को हुई सुरक्षा परिषद की एक बैठक में कोई औपचारिक प्रस्ताव जारी नहीं हुआ। इस बैठक को भी पाकिस्तान अपनी उपलब्धि मानता है, क्योंकि अंतरराष्ट्रीय जगत में उसकी सुनवाई हुई है। बावजूद इसके कि बैठक में उपस्थित ज्यादातर देशों ने इसे दोनों देशों के बीच का मामला बताया है। यह बैठक अनौपचारिक थी और इसमें हुए विचार का कोई औपचारिक दस्तावेज जारी नहीं हुआ। साफतौर पर यह पाकिस्तानी डिप्लोमेसी की पराजय थी।

फिर भी इसमें कुछ बातें नई थीं। यह बैठक चीनी पहल पर हुई थी। बैठक खत्म होने के बाद चीनी दूत ने अपनी प्रेस वार्ता में पाकिस्तान का पक्ष लेते हुए ऐसा जताने का प्रयास किया कि भारतीय कार्रवाई से विश्व समुदाय चिंतित है। यह चीन सरकार का अपना नजरिया है। चूंकि कोई दस्तावेज जारी नहीं हुआ, इसलिए ज्यादातर बातें बैठक में उपस्थित राजनयिकों के हवाले से सामने आई हैं। इनमें से कुछ बातें भारत की नजर से महत्वपूर्ण हैं।

वैश्विक समीकरण

बैठक में अमेरिका और फ्रांस ने भारत का साथ दिया और कहा कि अनुच्छेद 370 भारत का आंतरिक मामला है, क्योंकि वह देश की सांविधानिक व्यवस्था से जुड़ा है। पर दो बातों पर गौर करें। पहले खबरें थीं कि ब्रिटेन ने इस बैठक में हुए विमर्श पर औपचारिक दस्तावेज जारी करने के चीनी सुझाव का समर्थन किया था। बाद में ब्रिटिश सरकार के सूत्रों ने स्पष्ट किया कि यह बात सही नहीं है। दूसरे रूसी दूत ने अपने ट्वीट में कुछ ऐसी बातें लिखीं, जिनसे संकेत मिलता है कि उसका परंपरागत रुख बदला है। रूस ने संयुक्त राष्ट्र प्रस्तावों के तहत इस समस्या के समाधान का सुझाव दिया है।

हालांकि. रूस और भारत के रिश्ते बहुत गहरे हैं, पर एक नए शीतयुद्ध का आगाज हो रहा है। रूस और चीन करीब आ रहे हैं। रूस की दिलचस्पी अफगानिस्तान में भी है। यूरोप के कई देश आर्थिक कारणों से चीन के करीब जा रहे हैं। पाकिस्तान के पास कोई विकल्प नहीं है। वह सोशल मीडिया पर उल्टी-सीधी खबरें परोसकर गलतफहमियां पैदा करना चाहता है। हालांकि अफगानिस्तान में शांति-समझौते की संभावनाओं से वह उत्साहित है। सबको इंतजार इस बात का है कि जम्मू- कश्मीर में प्रतिबंध हटने के बाद के किस प्रकार के हालात बनेंगे। जम्मू-कश्मीर में यदि अव्यवस्था हुई, तो पाकिस्तान इसका फायदा जरूर उठाएगा। भारत सरकार कश्मीरी नागरिकों के मनोबल को बनाए रखने में सफल होगी या नहीं, यह ज्यादा बड़ा सवाल है।

पाकिस्तानी हुकूमत

पाकिस्तान में इमरान खान के कार्यकाल का एक साल पूरा हो गया है। माना जाता है कि उन्हें वहां की सेना ने प्रधानमंत्री बनाया है। इस हफ्ते देश के सेनाध्यक्ष जनरल कमर जावेद बाजवा का कार्यकाल तीन साल के लिए बढ़ा दिया गया है। इमरान खान ने नवाज शरीफ के दौर में जनरल राहील शरीफ के कार्यकाल को बढ़ाए जाने का विरोध किया था। उस वक्त राहील शरीफ ने खुद ही अपना हाथ खींच लिया था। अब कहा जा रहा है कि सुरक्षा के हालात देखते हुए यह फैसला किया गया है। लेकिन इस फैसले के दूरगामी परिणाम होंगे। बहुत से फौजी अफसरों की प्रोन्नति के दरवाजे बंद हो गए हैं। बहुत जरूरी है कि पाकिस्तान की आंतरिक राजनीति पर नजरें रखी जाएं।

भारतीय दृष्टिकोण से कश्मीर बड़ा मसला है। यह मोदी सरकार की राजनीति की भी बड़ी परीक्षा है। क्या वह वैश्विक मंच पर कश्मीर से जुड़े सवालों का जवाब देने की स्थिति में है? क्या अब भारत और पाकिस्तान के बीच सीधी बातचीत होगी? संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में 1957 के बाद कश्मीर पर कोई विचार नहीं हुआ। 1971 के युद्ध के बाद एक बार कश्मीर का जिक्र हुआ, पर 1972 में शिमला समझौता होने के बाद कई साल तक पाकिस्तान ने चुप्पी रखी।

फिर नब्बे के दशक में पाकिस्तान ने अफगान-जेहाद की आड़ में कश्मीर में हिंसा को बढ़ावा दिया और संयुक्त राष्ट्र महासभा में कश्मीर का जिक्र फिर से करना शुरू कर दिया। 1998 में दोनों देशों ने एटमी धमाके किए, लाहौर यात्रा भी हुई, कारगिल हुआ, इंडियन एयरलाइंस के विमान का अपहरण हुआ, भारतीय संसद पर हमला हुआ और फिर आगरा शिखर सम्मेलन भी हुआ। 2003 में दोनों देशों के बीच नियंत्रण रेखा पर गोलाबारी रोकने का समझौता हुआ, जिसके कारण माहौल एकदम से बदला।

बात क्यों नहीं होती?

2004 में भारत में यूपीए सरकार बनने के बाद यह प्रक्रिया और आगे बढ़ी। लगता था कि दोनों देश शांति का कोई फार्मूला तैयार कर लेंगे। इसे मुशर्रफ-मनमोहन फार्मूला कहा गया, जिसमें अनौपचारिक रूप से इस बात पर सहमति बनने लगी थी कि कोई नई सीमा रेखा नहीं खिंचेगी। नियंत्रण रेखा अंतरराष्ट्रीय सीमा रेखा हो जाएगी। लोगों और सामग्रियों का नियंत्रण रेखा के आर-पार मुक्त आवागमन होगा। नियंत्रण रेखा पर सड़क मार्ग से आवागमन और व्यापार की शुरुआत भी हो गई।

लेकिन यह शांति-प्रक्रिया अभी आगे बढ़ती उसके पहले ही नवंबर, 2008 में मुंबई पर हमला हो गया। इसके बाद से किसी न किसी रूप में टकराव बढ़ता ही गया है। पाकिस्तान की आंतरिक सत्ता के दो केंद्र होने की वजह से ऐसा हुआ। क्या इस वक्त सत्ता के दोनों केंद्र एक पेज पर हैं? इसका जवाब देना मुश्किल है। 14 अगस्त को पाकिस्तानी प्रधानमंत्री इमरान खान ने पाक अधिकृत कश्मीर की असेंबली के एक विशेष अधिवेशन में कहा- कश्मीर को लेकर अगर युद्ध हुआ, तो अंतरराष्ट्रीय समुदाय इसका जिम्मेदार होगा।

अमेरिका की भूमिका

संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद की बैठक के बाद अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रंप ने भारत और पाकिस्तान के प्रधानमंत्रियों से टेलीफोन पर बात की। अमेरिका फिलहाल अफगानिस्तान को लेकर व्यस्त है। इस वजह से वह पाकिस्तान को हाथ से निकलने नहीं देगा, पर इसका मतलब यह नहीं है कि वह भारत से दूरी बनाएगा। भारतीय राजनय के सामने अमेरिका और चीन के अंतर्विरोधों को सुलझाने की जिम्मेदारी भी है। पाकिस्तान के कारण यह उम्मीद नहीं करनी चाहिए कि चीन, भारतीय दृष्टिकोण का समर्थन करेगा।

दूसरी तरफ अमेरिका का दृष्टिकोण प्रत्यक्षतः भारत के पक्ष में है, पर दोनों देशों के सामरिक रिश्तों में इन दिनों ठहराव है। यह ठहराव शस्त्रास्त्र की खरीद के कारण है। अमेरिका ने रूस से हवाई रक्षा प्रणाली एस-400 की खरीद पर आपत्ति व्यक्त की है। भारत ने शस्त्रास्त्र की खरीद का दायरा बढ़ाया है। अब हम केवल रूस पर आश्रित नहीं हैं, पर वर्तमान सैन्य उपकरणों में से ज्यादातर रूसी हैं। उन्हें एकदम से बदला नहीं जा सकता।

अमेरिका की हिंद-प्रशांत नीति में भारत की केंद्रीय भूमिका है। चीनी उभार रोकने के लिए जापान, ऑस्ट्रेलिया और अमेरिका के साथ चतुष्कोणीय रक्षा सहयोग या क्वाड में भी भारत शामिल है। पर भारत हाथ बचाकर चल रहा है। क्वाड के लक्ष्य अभी पूरी तरह स्पष्ट नहीं हैं। पिछले साल भारत और अमेरिका के बीच सैनिक समन्वय और सहयोग के लिहाज से बेहद महत्वपूर्ण ‘कम्युनिकेशंस, कंपैटिबिलिटी, सिक्योरिटी एग्रीमेंट (कोमकासा)’ हो जाने के बाद यह साफ हो गया था कि दोनों के रिश्ते काफी गहराई तक जा चुके हैं। हाल में अमेरिका ने भारत को नाटो सहयोगी के स्तर का दर्जा देने का इरादा जाहिर किया था, पर अमेरिकी संसद ने उस दर्जे को अपेक्षित स्तर से कम ही रखा है।

अब दोनों देशों के बीच बेसिक एक्सचेंज एंड कोऑपरेशन एग्रीमेंट (बेका) की चर्चा है। यह समझौता दोनों देशों के सामरिक समझौतों की एक महत्वपूर्ण कड़ी है। अमेरिका के साथ सामरिक सहयोग और उसके अंतर्विरोध पाकिस्तान के संदर्भ में इसलिए महत्वपूर्ण हैं, क्योंकि कश्मीर को लेकर वैश्विक संवाद में अमेरिका महत्वपूर्ण भूमिका निभाएगा। भारत पूरी तरह अमेरिकी पाले में खड़ा होने से बचता है। यही द्वंद्व सऊदीअरब, संयुक्तअरब अमीरात (यूएई) और ईरान के अंतर्विरोधों के रूप में प्रकट होता है। इसे भारतीय राजनय की सफलता कहा जाएगा कि सऊदीअरब और यूएई और यहां तक कि इस्लामिक देशों के संगठन ने भी कश्मीर के संदर्भ में ऐसा कोई बयान नहीं दिया, जिससे भारत विचलित हो।

सुरक्षा परिषद के प्रस्ताव

कश्मीर में जनमत संग्रह को लेकर बहुत गलतफहमियां हैं। मामले को संयुक्त राष्ट्र में भारत लेकर गया था न कि पाकिस्तान। यह अंतरराष्ट्रीय कानून के तहत किसी फोरम पर कभी नहीं उठा। भारत की सदाशयता के कारण पारित सुरक्षा परिषद के प्रस्ताव के एक अंश को पाकिस्तान आज तक रह-रहकर उठाता रहा है, पर पूरी स्थिति को कभी नहीं बताता। 13 अगस्त 1948 के प्रस्ताव को लागू कराने को लेकर वह संजीदा था, तो तभी पाकिस्तानी सेना वापस क्यों नहीं चली गई? प्रस्ताव के अनुसार पहला काम उसे यही करना था।

संयुक्त राष्ट्र प्रस्ताव अपनी मियाद खो चुका है और महत्व भी। सुरक्षा परिषद दिसंबर 1948 में ही मान चुकी थी कि पाकिस्तान की दिलचस्पी सेना हटाने में नहीं है, तो इसे भारत पर भी लागू नहीं कराया जा सकता। दूसरे यह प्रस्ताव संयुक्त राष्ट्र चार्टर के अनुच्छेद 35 के तहत दोनों पक्षों की सहमति से तैयार हुआ था। यह बाध्यकारी प्रस्ताव नहीं है। पाकिस्तान ने अब जो अनुरोध सुरक्षा परिषद से किया है, वह भी अनुच्छेद 35 के तहत है।

जून 1972 के शिमला समझौते की तार्किक परिणति थी कि पाकिस्तान को इस मामले को अंतरराष्ट्रीय मंचों पर उठाना बंद कर देना चाहिए था। शिमला में औपचारिक रूप से पाकिस्तान ने इस बात को मान लिया कि दोनों देश आपसी बातचीत से इस मामले को सुलझाएंगे। पाकिस्तानी नेताओं ने लंबे अरसे तक इस सवाल को उठाना बंद रखा, पर पिछले एक दशक से उन्होंने इसे अंतरराष्ट्रीय मंचों पर उठाना शुरू किया है। समाचार एजेंसी रायटर ने 18 दिसंबर 2003 को परवेज मुशर्रफ के इंटरव्यू पर आधारित समाचार जारी किया, जिसमें उन्होंने कहा, ‘हमारा देश संयुक्त राष्ट्र प्रस्ताव को ‘किनारे रख चुका है’ और कश्मीर समस्या के समाधान के लिए आधा रास्ता खुद चलने को तैयार है।’ यह बात आगरा शिखर वार्ता के बाद की है।

अमित शाह की घोषणा

संसद में जम्मू-कश्मीर राज्य पुनर्गठन विधेयक पर चर्चा के दौरान गृहमंत्री अमित शाह ने कहा था कि पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर भी हमारा है और उसे हमें वापस लेना है। इसके पहले फरवरी 1994 में भारतीय संसद ने सर्वसम्मति से एक प्रस्ताव पास करके कहा था कि जम्मू और कश्मीर भारत का अभिन्न अंग रहा है, और रहेगा तथा उसे देश के बाकी हिस्सों से अलग करने के किसी भी प्रयास का विरोध किया जाएगा। पाकिस्तान बल पूर्वक कब्जाए हुए क्षेत्रों को खाली करे।

इस प्रस्ताव को पास कराने के पीछे एक उद्देश्य राष्ट्रीय आम राय बनाना था, वहीं अमेरिकी सरकार की एक मुहिम को अस्वीकार करना था। तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति बिल क्लिंटन ने कश्मीर को अलग स्वतंत्र देश बनाने की एक योजना बनाई थी। तत्कालीन प्रधानमंत्री पीवी नरसिंहराव की 1994 की अमेरिका यात्रा के पहले ही भारतीय संसद का यह प्रस्ताव पास हो गया।

इधर, भारत की वर्तमान कश्मीर नीति में अभी और आक्रामकता देखने को मिलेगी। यही आक्रामकता नाभिकीय शस्त्रों से जुड़े ‘नो फर्स्ट यूज’ सिद्धांत के साथ जुड़ी है। रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह का बयान अनायास नहीं आया है। सवाल यह है कि क्या पाकिस्तान इस मामले के अंतरराष्ट्रीयकरण से कुछ हासिल करने में सफल होगा? उसे चीनी समर्थन मिलने के बावजूद लगता नहीं कि उसे सफलता मिलेगी। चीन ने भी दोनों को सीधी बातचीत से विवाद को सुलझाने का सुझाव दिया है।

पाकिस्तानी नेताओं के उन्मादी बयान अपने देश की जनता को भरमाने के लिए भी हैं। पाकिस्तानी अखबार डॉन ने इस बात को अपने संपादकीय में स्वीकार किया है। अखबार ने लिखा है- ‘दुनिया ने पाकिस्तान की गुहार पर वैसी प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं की, जिसकी उम्मीद थी, बल्कि अमेरिका और यूएई ने तो भारत की इस बात को माना है कि यह उसका आंतरिक मामला है।’

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