अगर आप भारतीयों से पूछें कि वे किस तरह का भारत चाहते हैं तो लगभग सभी यही कहेंगे कि वे एक ताकतवर और समृद्ध भारत चाहते हैं। दुनिया का सबसे ताकतवर देश अमेरिका है, जो सबसे ज्यादा समृद्ध देशों में एक है। उसकी अर्थव्यवस्था भारत की तुलना में 10 गुना ज्यादा बड़ी है और उसकी आबादी भारत की आबादी का एक चौथाई है। इसका मतलब यह हुआ कि सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) के मामले में यह भारत के आकार से प्रति व्यक्ति 40 गुना ज्यादा है।
हम अमेरिका जैसा एक देश बनना चाहते हैं जो अमीर और विशाल हो, सैन्य रूप से ताकतवर हो और जिससे पूरी दुनिया डरती हो। चीन एक दूसरे तरह का ताकतवर देश है। वह भी अमीर है (चीन की अर्थव्यवस्था भारत से 6 गुना बड़ी है) और सैन्य रूप से मजबूत है।
इन दोनों देशों की ताकत में क्या अंतर है? मुझे लगता है कि इससे एक और सवाल भी खड़ा होता है: कौन और क्या चीज किसी देश को ताकतवर बनाती है? भारत में यह अनुमान है कि सरकार ऐसा करती है। हमारे मौजूदा प्रधानमंत्री जैसे मजबूत नेता ऐसा करते हैं। वे अपनी बुद्धिमता से कुछ विशेष करते हैं। वे सारी चीजें करेंगे जो भारत को रूपांतरित करने के लिए जरूरी है। मैं निजी तौर पर नरेन्द्र मोदी को कई वर्षों से जानता हूं और मैं कह सकता हूं कि वे भी ऐसा ही सोचते हैं। चीन ने कमोबेश इसी दर्शन का अनुसरण किया है जिसमें सरकार का नेतृत्व होता है। यह एक बहुत बड़ी सच्चाई है कि चीन के लोग काफी प्रतिभाशाली और मेहनती होते हैं और अगर आप सिंगापुर, थाइलैंड, मलेशिया जैसे दक्षिण-पूर्वी देशों या पश्चिमी अमेरिका जैसी जगहों पर जाएं तो आप चीन के अप्रवासी लोगों के इन गुणों को खुद ही जान जाएंगे। लेकिन कम्युनिस्ट सरकार और एक व्यक्ति के शासन ने उनकी आधुनिक मजबूती का रास्ता प्रशस्त किया है। हालांकि, कई मामलों में यह एक सीमित मजबूती है। आजादी की कमी का यह अर्थ है कि चीन विशेष रूप से आविष्कार कुशल नहीं है। और इसकी वजह से वह अमेरिका से अंतिम तौर पर बराबरी नहीं कर पाएगा।
अमेरिका में यह अनुमान और विश्वास है कि जनता राष्ट्र निर्माण करती है और वही उसे महान बनाती है। सरकार से यह उम्मीद की जाती है कि वो लोगों को ऐसा करने के लिए स्पेस और आजादी मुहैया कराए।
अमेरिकी संविधान का पहला संशोधन 227 साल पहले लिखा गया था। यह कहता है कि सरकार ऐसा कोई कानून नहीं ला सकती जो अभिव्यक्ति की आजादी को सीमित कर सकता है। अगर आप इस सोच में पड़ गए हैं कि इसका क्या मतलब हुआ, तो इसका अर्थ यह हुआ कोई भी अमेरिका में बुरी से बुरी और गंदी से गंदी बात राष्ट्र-विरोधी और अर्बन नक्सल पुकारे जाने के डर के बिना कह सकता है। प्लेबॉय और पेंटहाउस जैसी पत्रिकाओं में प्रकाशित आधुनिक पॉर्नोग्राफी की अश्लीलता के लिए उन्हें कोर्ट में घसीटा गया और वे पत्रिकाएं उस पहले संशोधन की वजह से जीत गईं। अमेरिकी सरकार लगातार अभिव्यक्ति की आजादी को सीमित करने के लिए कानून बनाती रही, लेकिन कोर्ट ने हमेशा बोलने वाले के अधिकार के पक्ष में फैसला सुनाया, तब भी जब बातें कट्टर और गंदी थीं और नापसंद की गईं।
बड़े पैमाने पर यही आजादी अमेरिकी महानता की वजह है। पश्चिमी दुनिया के इतिहास में भी वैयक्तिक आजादी और बौद्धिक तौर पर सरकार या समाज के नियमों से इंकार करने के अधिकार पर जोर रहा है। यह परंपरा प्राचीन ग्रीक तक जाती है (भारत में जिसे यूनानी या यवन कहा जाता है)। सुकरात को 2400 साल पहले मौत की सजा दी गई थी क्योंकि उसने एथेंस की सरकार को स्वीकार करने से इंकार कर दिया था। लेकिन मौत की सजा जब उन्हें मिली, तब तक वे काफी बूढ़े हो चुके थे, यह दिखाता है कि कई दशकों तक एथेंस में उन्हें सहा गया। अरस्तू और प्लेटो ने उन सिद्धांतों को जन्म दिया जो ग्रीक लोगों द्वारा माने जाने वाले ईश्वर के स्वरूप को खारिज करते थे, फिर भी न सिर्फ उन्हें अपना काम करने दिया गया, बल्कि उनके मौलिक विचार और असहमति के लिए उनकी प्रशंसा हुई।
अगर ऐसा कोई दौर है जब पश्चिमी दुनिया को पतन देखना पड़ा तो यह वही दौर था जब आजाद सोच पर अंकुश लगाया गया, जैसा कि आज भारत में हो रहा है। इस दौर को मध्य काल कहा जाता है। सामंतवाद, अशिक्षा और चर्च ने मिलकर पतन का यह दौर निर्मित किया था। इसी दौर में बगदाद और दक्षिणी स्पेन के इस्लामी साम्राज्य ने ज्ञान और अभिव्यक्ति की आजादी को महत्व दिया और वे महान शक्ति बन गए। मानव इतिहास ने हमेशा महानता की तरफ अमेरिकी तरीके से पहुंचने का समर्थन किया है, चीन के तरीके का नहीं। यह वो आजादी है जो महानता पैदा करती है, एकरूपता नहीं।
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भारत में हमारे पास पारंपरिक रूप से काफी आजादी रही है जब यथार्थ और ईश्वर की प्रकृति को लेकर अभिव्यक्ति की बात आती है। लेकिन जब राष्ट्र और इसके लोगों की प्रकृति को लेकर अभिव्यक्ति की बात होती है तो आजादी नहीं रहती है। सहनशीलता का स्तर सरकार और समाज दोनों में कई मुद्दों पर बहुत कम है। दुर्भाग्यवश, हमारे कोर्ट से भी हमें उतना समर्थन नहीं मिला, जितना अमेरिका के लोगों को मिला। और इसलिए अभिव्यक्ति की आजादी कुचले जाने को लेकर उतना विरोध भी नहीं हुआ। यही वजह है कि बहुत से भारतीय आज यह महसूस करते हैं कि कुछ चीजों को कहना सिर्फ गलत ही नहीं है, बल्कि उन्हें कहने का कोई अधिकार भी नहीं होना चाहिए।
जब तक हम उस रास्ते पर आगे बढ़ते रहते हैं, सच्ची महानता इस देश में नहीं आएगी। देश का नेतृत्व किसी तेज-तर्रार आदमी के हाथ में होने से भी कोई फर्क नहीं पड़ता।
(इस लेख में व्यक्त विचारों से नवजीवन की सहमति अनिवार्य नहीं है।)
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