आजादी मानव जीवन का सबसे अनमोल आयाम है। हमने जब से अपने आपकी और अपने पहचान की चेतना विकसित की, तब से ही हम इसे साधने की कोशिश कर रहे हैं। आजादी का मतलब है कि हम ऐसी कोई भी सत्ता स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं हैं जिसमें अपने व्यक्तित्व और स्वेच्छा के एकाधिकार पर कोई समझौता करना पड़े। सुनने में यह कुछ जटिल जान पड़ता है लेकिन आसान शब्दों में कहें तो आजादी का मतलब है समानता।
समानता लोगों के बीच और उनकी हर तरह की पहचानों के बीच जिनमें राष्ट्रीयता, धर्म, जाति, लिंग, वर्ग, कामकाज शामिल हैं। इसमें वे पहचान भी शामिल हैं जो आगे विकसित होंगी। यह ऐसी समानता है जिसमें किसी भी इंसान या उसकी पहचान को श्रेष्ठ माना जाए और उसे यह अधिकार हो कि कोई किसी के अधीन न हो। इस समानता का दायरा बढ़ाकर उसे पूरी प्रकृति तक किया जा सकता है जो एक ही ईश्वर की रचना है।
हमने औपनिवेशिक दमन के रूप में सबसे भीषण असमानता झेली है। एक पूरी सभ्यता को दो सदियों तक दबाकर रखा गया और पश्चिमी श्रेष्ठता के झूठ को रोकने के लिए हमें अंततः एक महात्मा की जरूरत पड़ी। कितना आसान है कहना कि आजादी बस इतना जानना है कि तुम किसी से कमतर नहीं हो। लेकिन यह उतना ही मुश्किल भी है क्योंकि आजादी का मतलब सभी असमानताओं को खत्म करना भी है।
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इसीलिए महात्मा गांधी और उनके शिष्य पंडित जवाहर लाल नेहरू को पता था जब तक पितृसत्ता, जाति, सामंती व्यवस्था की असमानताएं, शासन की विद्रूपताएं और उसके फलस्वरूप आई गरीबी आदि समाज में बाकी रहेंगे, हम आजाद नहीं हो सकेंगे। इसी से पूरे विश्व का साक्षात्कार एक नैतिक चमत्कार से हुआ जो हमारे राष्ट्रीय आंदोलन का वास्तविक स्वरुप था। इस आंदोलन से एक कुचली हुई सभ्यता ने मानवीयता के नए नैतिक मापदंड स्थापित किए और फलस्वरूप औपनिवेशिक शक्तियों को शर्मसार होकर लौटना पड़ा। इसी आंदोलन से निकला हमारा संविधान जो आजादी के अमर प्रकाश के रूप में हमें सभी तरह की समानता का वचन देता है। पंडितजी ने इससे आगे बढ़ते हुए ऐसी संस्थाओं का निर्माण किया जो हमारे संविधान के आलोक में आजादी का संरक्षक बन सकें।
इन सारे आश्वासनों के बावजूद आजादी हमेशा खतरे में रहती है और हमें इसे बचाए रखने के लिए निरंतर जागरूक बने रहना पड़ता है। सवाल यह है कि मनुष्य मात्र के लिए आजादी एक अनमोल नेमत है लेकिन यह मनुष्यों से ही हमेशा खतरे में क्यों रहती है? और जवाब है क्योंकि हमने अभी समाज के बीच मौजूद इन असमानताओं को खत्म नहीं किया है और इससे हमारे समाज में विभाजन की गहरी खाइयां बन गई हैं। इन्हीं असमानताओं को कुछ शक्तियां अपने मंसूबों के लिए इस्तेमाल करती हैं। इन शक्तियों की एक गंभीर बीमारी यह है कि ये वर्चस्व में अपना हित तलाशती हैं। बहुधा वे इस बात से अनजान रहती हैं कि वो जिन पर हुकूमत करना चाहती हैं, आखिरकार वे उन्हीं का दमन करने लगती हैं।
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आज हम एक ऐसे मुहाने पर खड़े हैं जहां हमें फासीवाद की गहरी खाई साफ दिख रही है और हम सबकी आजादी खतरे में है। बीते कुछ समय से हमें हमारे देश में फासीवाद के लक्षण साफ दिखाई दे रहे हैं और मुझे बरबस ही अमेरिकी होलोकॉस्ट म्यूजियम में इंगित फासीवाद के 12 लक्षणों की याद आ रही है। अतिराष्ट्रवाद, सैन्य शक्ति के प्रति एक जूनून, मानव अधिकारों की अवहेलना, लैंगिक, धार्मिक व जातिगत हिंसा में बढ़ोत्तरी, राष्ट्रीय विमर्श में बढ़ता सांप्रदायिकरण और इनके साथ कॉर्पोरेट लालच एवं शासक दल की सत्ता लोलुपता में गहरे संबंध पनपने- जैसे लक्षण हमारे राजनैतिक और सामाजिक जीवन के सभी पहलुओं में उभर आए हैं। हम पाते हैं कि हमारे राष्ट्रीय आंदोलन से उपजा वह नैतिक बल अब हमारी सामूहिक चेतना में क्षीण हो चला है। मगर हम यह भी जानते हैं कि ये हमारे राष्ट्र और सभ्यता की जीवनदायिनी शक्ति है और इसे अधिक समय तक नकारा नहीं जा सकता।
गांधीजी ने एक बार कहा था कि आजादी का असली मतलब है गलतियां करने की आजादी। इसी सिद्धांत पर हमारे संविधान ने हमें छह मूलभूत आजादी दी है। लेकिन हम देखते हैं कि दुष्ट शक्तियां हमारे राज्य की संस्थाओं को प्रभावित कर हमारे प्रतिष्ठित विश्वविद्यालों में प्रवेश करती हैं और यही कायर लोग भीड़ की शक्ल इख्तियार करके हमारी रसोई और खाने के डिब्बों तक पहुंच गए हैं। हमारे युवाओ में एक कुत्सित ज्ञान-विरोधी सोच का प्रसार करके उनका लंपटीकरण करने का प्रयास जा रहा है जिससे उनकी समस्त दक्षता को नष्ट करके उन्हें हिंसा के चक्रव्यूह में फंसाया जा सके।
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इससे होगा यह कि हमारे युवा कानून से बचने के लिए हमेशा सत्ताधारी दल के ऊपर निर्भर हो जाएंगे। सामूहिक हिंसा या भीड़ की हिंसा आज हमारे संवैधानिक लोकतंत्र के लिए अस्तित्व का संकट बन कर उभरी है, और यह संकट आजादी के सभी संकल्पनाओं को ध्वस्त करता है। मैं इसे हमारी राजनीति का पिशाचीकरण कहता हूं।
हमें उन शक्तियों की भी पहचान करनी चाहिए जिन्होंने आजादी मिलने के दिन से ही उसपर हमला शुरू कर दिया था। साम्राज्यवादी शक्तियां और उनके वैश्विक कॉर्पोरेट साथियों की बुरी नजर हमेशा हमारी स्वतंत्रता पर रही है क्योंकि उन्हें हमारे राष्ट्रीय आंदोलन ने जबरदस्त चोट पहुंचाई थी और वे आज भी उसके स्थापित मूल्यों से घबराते हैं। इन्हें हमारे समाज में मौजूद फासीवादी, जातिवादी और सामंतवादी तत्व अपने आदर्श सहयोगी की तरह दिखते हैं। इन शक्तियों को आजाद और विमुक्त लोगों से हमेशा डर लगता है।
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किसी भी समाज में तीन सबसे आजाद समूह होते हैं। किसान, विद्यार्थी और छोटा व्यापारी। ये अपने क्षेत्र में स्वच्छंद होते हैं और किसी भी तानाशाही शक्ति को सबसे मजबूत चुनौती देते हैं। वर्तमान शासन ने इन तीनों को ही बर्बाद करने की कोशिश की है। उन्होंने नोटबंदी और त्रुटिपूर्ण जीएसटी के द्वारा इन्हें बर्बाद करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। इसके साथ ही समर्थन मूल्यों को कृत्रिम तरीके से कम रखकर खेती को भी घाटे का व्यवसाय बना दिया। हम छत्तीसगढ़ में कोशिश कर रहे हैं कि इन तीनों को वापस उनके पैरों पर खड़ा करें और ये फिर सशक्त होकर हमारी आजादी की रक्षा कर सकें।
हमारे नेता राहुल गांधी जी ने घोषणा की थी कि कृषि ऋण माफ किए जाएंगे और धान का समर्थन मूल्य (देश का सर्वाधिक) 2500 रुपये प्रति क्विंटल किया जाएगा। हमने सरकार बनते ही इन घोषणाओं को पूरा किया। हमारी सरकार ने ’नरवा गरवा, घुरवा बारी’ के नाम से एक महत्वाकांक्षी कार्यक्रम शुरू किया है। इसके तहत हम नदी-नालों का बचाएंगे, पशुधन और मवेशियों की रक्षा करेंगे, प्राकृतिक और जैविक खाद का उपयोग बढ़ाएंगे और बाड़ियों की व्यवस्था को सुदृढ़ बनाकर गौ-माता को उसकी आजादी लौटाएंगे। जब हमारे किसान अपनी जमीन, पानी, बीज और खाद पर अधिकार पुनर्साथापित कर लेंगे और उनके उत्पादों के लिए लाभप्रद दाम मिलना सुनिश्चित हो जाएगा, तो वो इन हमलावर शक्तियों का मजबूती से मुकाबला कर सकेंगे।
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गांधीजी ने कहा था कि किसानों के नैतिक बल से उन्हें शक्ति मिलती है जिन्होंने सदियों के अत्याचार के बावजूद अपनी सहनशीलता और अहिंसा पर विश्वास को नहीं त्यागा। हमें भी हमारे किसानों के इसी नैतिक बल का आसरा है। उसी तरह हमारे आदिवासी भाई इस उपभोक्तावादी दुनिया को उसके पागलपन से बचाकर सही रास्ता दिखा सकते हैं। उन्हें उनके जंगलों और जमीनों का हक फिर दिलाना होगा। हमने पहली बार बस्तर के लोहंडीगुड़ा में आदिवासियों को 4200 एकड़ जमीन लौटाई जो उद्योग लगाने के नाम पर ली गई थी। और साथ हमने तेंदूपत्ता का समर्थन मूल्य 2500 से बढ़ाकर 4000 प्रति मानक बोरा कर दिया। इससे उनमें नया विश्वास जागा है। अब उनके साथ एक ऐसी सरकार है जो उनके खिलाफ नरभक्षी पूंजी का साथ नहीं देगी।
आजादी को कायम रखने के लिए हमें सभी के आजादी का सम्मान करना होगा। उस आखिरी व्यक्ति की स्वतंत्रता भी उतनी ही कीमती है जितनी अग्रिम पंक्ति में खड़े लोगों की है। इसीलिए हमने आदिवासियों पर गलत ढंग से लगाए गए अभियोग वापस लेने की पहल की है। प्रेस की आजादी भी इसी क्रम में एक महत्वपूर्ण मूल्य है और हमने इस पर अपनी प्रतिबद्धता को रेखांकित करने के लिए पत्रकार सुरक्षा कानून बनाने के लिए उच्चतम न्यायालय के सेवानिवृत्त जज की अध्यक्षता में एक समिति का गठन किया है।
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अंत में हमें हमारी ताकत की बात करनी चाहिए। वो ताकत जिसका आह्वान, अपनी आजादी बचाए रखने के लिए पंडित नेहरू ने किया था। तो आखिर क्या है हमारी वो ताकत? मैं मानता हूं कि हमारा भाईचारा हमारी सबसे बड़ी ताकत है, और ये लोग सबसे पहले इसे ही खत्म करना चाहते हैं। हर रोज हम सुन रहे हैं कि हमें एक समुदाय विशेष से सभी सामाजिक और आर्थिक संबंध विच्छेद कर लेना चाहिए। यह अस्पृश्यता का सबसे विकृत रूप है और इसे भी वही लोग समर्थन दे रहे हैं, जो आज भी छुआछूत के घृणित विचार को संजोए हुए हैं। हमारी मिलीजुली ताकत है, हमारी महान आध्यात्मिक विरासत। हमारी ताकत है, हमारी साझी नियति जिसे पंडित नेहरू ने ट्रिस्टविथ डेस्टिनी कहा था। हमारी ताकत हमारा संविधान और उसका मूल्य है और उस पर हमारी आस्था भी हमारी ताकत है। जिसे बाबा साहेब आंबेडकर ने संवैधानिक नैतिकता की संज्ञा दी थी। इन ताकतों पर विश्वास रखते हुए हमें अपनी आजादी के लिए लड़ना होगा।
महात्मा गांधी ने गुलाम देश को जगाया, लोगों को अहिंसक सामूहिकता की ताकत दिखाई। आजादी के बारे में उनकी सोच ब्रिटिश हुकूमत से छुटकारे तक सीमित नहीं थी। वह आजाद भारत में लोगों को सोचने- समझने-बरतने की आजादी के हिमायती थे। इस तरह की आजादी कहीं नहीं दिखती। हर जगह आजाद ख्याली खतरे में है। अब तो ऐसा लगने लगा है कि बड़े बलिदानों के बाद मिली आजादी धीरे-धीरे टुकड़ों में हमसे छीनी जा रही है।
(लेखक छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री हैं)
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