जवाहरलाल नेहरू का बड़ा मशहूर नारा है- ‘आजादी खतरे में है, हमें अपनी पूरी ताकत से इसकी रक्षा करनी होगी।’ नेहरू के इस आह्वान का संदर्भ बाहरी आक्रमण था। लेकिन वह आह्वान आज के हिन्दुस्तान में उतना ही, बल्कि उससे कहीं अधिक, मायना रखता है। आज भारतीय लोकतंत्र ऐसी गंभीर आंतरिक चुनौतियों से जूझ रहा है, जो आजादी के लिए खतरा बन गई हैं।
आज के भारत में सोच की आजादी खतरे में है। चारों ओर डर का माहौल है। असहमति जताने वालों को ‘अर्बन नक्सल’ करार दे दिया जाता है और उन्हें अपमान-अत्याचार का शिकार होना पड़ता है। लोकतंत्र के लिए मुक्त प्रेस नितांत आवश्यक है, लेकिन गिनती के साहसी संस्थानों को छोड़ दें तो यह आज देश में कहीं नहीं।
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यूएपीए में किए गए संशोधन को उपयुक्त चर्चा की औपचारिकता निभाए बिना शीघ्रता से पास करा दिया गया। यह खतरनाक भविष्य का संकेत देता है, क्योंकि यह संशोधन राज्य को ताकत देता है कि वह असहमति जताने वाले किसी भी व्यक्ति को ‘आतंकवादी’ करार दे दे। हमारे अग्रणी शैक्षणिक संस्थानों को एक खास धारा से बंधने के लिए जबर्दस्त दबाव का सामना करना पड़ रहा है। देश की समृद्धि और हमारी तमाम समस्याओं के समाधान के लिए वैज्ञानिक नजरिया बेहद जरूरी है, लेकिन अज्ञान और अंधविश्वास की ताकतों ने इसे बंधक बना लिया है।
भारत जैसे विविधतापूर्ण देश में एक ऐसे संवेदनशील नेतृत्व की जरूरत है जिसका नजरिया समावेशी हो, जिससे दबे-कुचले, हाशिये पर पड़े और अल्पसंख्यक समुदायों में अपने अच्छे-सुरक्षित भविष्य की उम्मीद रहे और उन्हें महसूस हो कि वे भी राष्ट्र-निर्माण में भागीदार हैं। आज की सरकार कुछ समुदायों के प्रति बहिष्कार की नीति अपना रही है।
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जिस तरह वह नागरिक संशोधन विधेयक को लागू करना चाह रही है, उससे यह बड़े स्पष्ट तरीके से जाहिर हो रहा है। यह नीति सरकार के संकेतों द्वारा और जिम्मेदारियों से चूकने से भी स्पष्ट रूप से दिखती है। किसी समुदाय के प्रति बहिष्कार की नीति हमारे संविधान की भावना के खिलाफ है, वह संविधान जो सभी नागरिकों के लिए समानता के प्रति प्रतिबद्धता की बात करता है।
इसके साथ ही, ऐसी नीति के कारण पूर्वाग्रह, घृणा और क्रोध के नकारात्मक बीज के फलने-फूलने का जोखिम भी रहता है। राजनीतिक फायदे के लिए ऐसी खतरनाक प्रवृत्तियों को बढ़ावा देना तो आसान है, लेकिन एक बार जड़ें पकड़ लेने के बाद इन्हें उखाड़ फेंकना बहुत मुश्किल होता है। कानून-व्यवस्था बनाए रखना और नागरिकों के जान-माल की सुरक्षा करना राज्य के प्रमुख कर्तव्यों में एक है। लेकिन आज के भारत में भीड़-हिंसा और लिंचिंग की घटनाएं बढ़ती जा रही हैं। यह सब राज्य की मौन स्वीकृति से हो रहा है क्योंकि ऐसा उसकी बहुसंख्यक विचारधारा के अनुकूल है।
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चुनाव आयोग, रिजर्व बैंक और राष्ट्रीय सांख्यिकी आयोग जैसे संस्थानों की स्वायत्तता खतरे में है। 27 जुलाई, 2019 को ‘दि हिंदू’ में प्रकाशित लेख में करन थापर ने कहा है, “जब से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने दूसरे कार्यकाल के लिए शपथ ली है, बीजेपी ने अभूतपूर्व तरीके से- और ऐसा लगता है कि इसे रोकना असंभव है- सांसदों, विधायकों और यहां तक कि पार्षदों को तोड़ने का दौर चला रखा है।
कर्नाटक, पश्चिम बंगाल, गोवा, उत्तर प्रदेश और आंध्र प्रदेश में ऐसा ही हुआ है। और यह सब नए-नए तरीकों से किया गया। कहीं एक जगह विपक्षी पार्टी के दो-तिहाई विधायकों ने पाला बदल दिया, तो कहीं दूसरी जगह बड़ी संख्या में विधायकों ने इस्तीफा दे दिया ताकि बीजेपी बहुमत के आंकड़े को पा ले।” विपक्षी दलों ने आरोप लगाए हैं कि सीबीआई और प्रवर्तन निदेशालय जैसी केंद्रीय एजेंसियों के इस्तेमाल से पाला-बदल का कार्य सुनिश्चित किया जा रहा है।
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इन सबके बीच अर्थव्यवस्था में गिरावट का दौर जारी है। अभी निवेश दर 28 फीसदी है, जो सालाना 8 फीसदी की विकास दर को हासिल करने के लिए बिल्कुल अपर्याप्त है। खास तौर पर ऐसे समय में जब खेती-किसानी हताशा-निराशा के दौर में हो और वैश्विक अर्थव्यवस्था के मंद पड़ने की पृष्ठभूमि में निर्यात की स्थिति कमजोर बनी हुई हो। इस कारण बेरोजगारी दर लगातार बढ़ रही है। अल्पसंख्यकों और दलितों की लिंचिंग के लिए माकूल-सा माहौल बन गया है।
स्वतंत्रता दिवस एक उचित मौका है जब सब लोग देश की गंभीर स्थिति पर विचार करें और इससे निपटने के प्रभावी उपायों के लिए मिल-जुलकर काम करें। आजादी को बचाने और बनाए रखने के लिए हर वक्त सतर्क रहना होगा। राजनीतिक दलों, नेताओं और सभी नागरिकों को इसकी रक्षा के लिए मिल-जुलकर लड़ने की इच्छाशक्ति दिखानी होगी।
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