हाल के समय में देश भर में तीन अंग्रेजी सारांशात्मक शब्दों पर घमासान मचा हुआ है। यह तीन साराशांत्मक शब्द हैं- सीएए, एनआरसी और एनपीआर। इन शब्दों की बहुत अलग-अलग व्याख्या प्रस्तुत की जा रही है तो हम किसकी बात मानें। स्पष्टीकरण के लिए हम प्रधानमंत्री और गृहमंत्री की ओर देखते हैं तो हमें यह बहुत हैरानी की स्थिति दिखती है कि वैसे तो वे ‘सदा साथ हैं’ पर इन मुद्दों पर उनके बयान बहुत अलग हैं और इन परस्पर विरोधी बयानों की ओर देश के प्रमुख समाचार पत्रों ने भी कई बार ध्यान दिलाया है।
तो फिर स्पष्टीकरण के लिए हम किस वरिष्ठ और अनुभवी व्यक्ति के पास जाएं जिसकी बात को बहुत व्यापक मान्यता प्राप्त हो सके। इस ऊहापोह की स्थिति में हमारा ध्यान देश के उन 106 अवकाश प्राप्त, अति वरिष्ठ पदों पर रह चुके सरकारी अधिकारियों की ओर जाता है जिन्होंने कुछ समय पहले इस विषय पर ‘भारतीय नागरिकों को खुला पत्र’ जारी किया था। इन पूर्व वरिष्ठ अधिकारियों ने ‘कंसटीच्यूशनल कंडक्ट ग्रुप’ (संवैधानिक आचरण समूह) के नाम से एक समूह का गठन किया है और उसकी ओर से यह बयान जारी किया गया है।
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इस ग्रुप में पूर्व राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार शिव शंकर मेनन और पूर्व अध्यक्ष राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार बोर्ड श्याम सरन जैसे देश की सुरक्षा से जुड़े सबसे शीर्ष के पूर्व अधिकारी भी हैं। इस ग्रुप में आईएएस के साथ आईपीएस यानि भारतीय पुलिस सेवा के भी कई सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी हैं। अतः निश्चय ही इन बेहद अनुभवी शीर्ष के पूर्व अधिकारियों के बयान को व्यापक मान्यता मिलनी चाहिए।
इस बयान में स्पष्ट कहा गया है कि एनपीआर (नेशनल पापुलेशन रजिस्टर), एनआरआईसी (नेशनल रजिस्टर ऑफ इंडियन सिटिजन्स) और सीएए (सिटिजनशिप एमेंडमेंट एक्ट-2019) के मुद्दे आपस में जुड़े हुए हैं और इनका दृढ़ता से विरोध करना चाहिए। बयान के अनुसार एनपीआर का सेंसस या एक दशक में होने वाली जनगणना से कोई संबंध नहीं है, यह उससे अलग कार्यवाही है। पिछली सेंसस या जनगणना साल 2011 में हुई और अब अगली 2021 में होनी है।
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इस बयान में कहा गया है कि सीएए के प्रावधानों से और सरकार के उच्च स्तर से दिए गए आक्रमक बयानों से भारत के मुस्लिम समुदाय में परेशानी उत्पन्न हुई है। इस परेशानी का औचित्य है, विशेषकर यह देखते हुए कि उन्हें भेदभाव और हिंसा के दौर से गुजरना पड़ा है। बयान में कहा गया कि मुस्लिम समुदाय को हाल में पुलिस कार्यवाही अधिक झेलनी पड़ी है और वह भी उन राज्यों में जहां पुलिस पर उस राजनीतिक दल का नियंत्रण है जो इस समय केंद्र की सत्ता में है।
इस वजह से इस सोच को बल मिला है कि एनपीआर-एनआरआईसी की प्रक्रियाओं का उपयोग विशेष पहचान के समुदायों और व्यक्तियों के विरुद्ध हो सकता है। एनपीआर पर बहुत सारा धन व्यर्थ ही खर्च होगा जबकि इससे एकत्र होने वाली बहुत सी जानकारी तो पहले ही ‘आधार’ व्यवस्था से प्राप्त हो चुकी है। इन प्रक्रियाओं से बहुत से जनसाधारण को संदेह के दायरे में लाकर उनके लिए बहुत समस्याएं उत्पन्न की जा सकती हैं।
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इस बयान में 106 वरिष्ठ पूर्व सरकारी अधिकारियों की ओर से कहा गया है कि एनपीआर और एनआरआईसी दोनों ही की प्रक्रियाएं गैरजरूरी और सरकारी धन की फिजूलखर्च वाली प्रक्रियाएं हैं और इसके साथ ही जनसाधारण की कठिनाईयां बढ़ाने वाली हैं। इनसे नागरिकों के निजता के अधिकार का भी अतिक्रमण होता है।
मीडिया में जो डीटेंशन सेंटर स्थापित करने के समाचार आए हैं, उन पर भी इस बयान में चिंता व्यक्त की गई है। बयान के अनुसार सीएए के प्रावधान नैतिक स्तर पर बहुत अनुचित हैं और इनकी संवैधानिक स्वीकृति संदिग्ध है। बयान में कहा गया कि एनआरआईसी/एनपीआर विवादों का केंद्र-राज्य संबंधों पर और पड़ोसी देशों से संबंधों पर प्रतिकूल असर पड़ेगा और भारत की सुरक्षा और प्रतिष्ठा को क्षति पहुंचेगी।
अतः इन 106 वरिष्ठ सेवानिवृत्त अधिकारियों ने मांग की है कि सीएए कानून को समाप्त किया जाए और डिटेंशन कैंप बनाने के कार्य को रोक दिया जाए। इन विवादास्पद मुद्दों पर जनतांत्रिक विमर्श की प्रक्रिया में इन 106 वरिष्ठ पूर्व अधिकारियों का यह बयान अति महत्त्वपूर्ण है और इसे अधिक लोगों तक पहुंचना चाहिए।
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