यूक्रेन के युद्ध का एक ऐसा प्रतिकूल असर भी हुआ है जिस ओर अभी तक बहुत कम ध्यान गया है। यह असर बहुत दूर स्थित अफ्रीका महाद्वीप के देशों में चिंता का कारण बन रहा है। इन देशों का खाद्य संकट पहले से और विकट हो रहा है।
दरअसल अफ्रीका के अनेक देशों में बड़े समय से चल रहे सूखे, आंतरिक हिंसा और अन्य कारणों से पहले से खाद्य संकट मौजूद था। इनमें से अनेक देश यूक्रेन और रूस पर कुछ मुख्य खाद्यों जैसे गेंहू, मक्का, खाद्य तेल आदि के लिए काफी हद तक निर्भर थे। इसके अतिरिक्त इन देशों से उन्हें रासायनिक खाद भी अधिक मात्रा में मिलती थी जिस पर उनकी अपनी खाद्य उत्पादन क्षमता आश्रित है। ध्यान रहे कि विदेशी परियोजनियों और विशेषज्ञों ने अफ्रीका पर ए.जी.आर.ए. (संक्षेप में आगरा) और अन्य परियोजनाओं के अंतर्गत रासायनिक खाद, कीटनाशकों और महंगे बीजों पर आधारित खेती का दबाव बनाया है जिसके कारण यहां की पहले आत्म-निर्भर रही धरती अब रासायनिक खाद के आयात पर अधिक निर्भर हो गई है।
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यूक्रेन युद्ध छिड़ने से खाद्य और खाद दोनों के आयात कम होने के कारण अफ्रीका महाद्वीप के अनेक देशों की खाद्य स्थिति पहले से और बिगड़ गई है। दूसरी ओर ध्यान देने की बात यह है कि यूक्रेन युद्ध के आरंभ होने से पहले ही यहां विश्व खाद्य कार्यक्रम और अन्य संस्थानों के अधिकारी चेतावनी दे रहे थे कि इस वर्ष खाद्य संकट पहले से अधिक बिगड़ सकता है। विश्व खाद्य कार्यक्रम उन अन्तर्राष्ट्रीय स्थानों में प्रमुख है जो अफ्रीका के खाद्य संकट से त्रस्त क्षेत्रों में खाद्य उपलब्धि कार्यक्रम चलाते हैं। इसके लिए अनाज की खरीद इस कार्यक्रम द्वारा पहले यूक्रेन में की जाती थी।
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पूर्वी अफ्रीका में हार्न आफ अफ्रीका क्षेत्र को अकाल की स्थिति से अधिक प्रभावित बनाया गया है। इसमें मुख्य रूप से सोमालिया, इथिओपिया जैसे बड़े देश हैं और केन्या का कुछ भाग भी है। यहां हाल के वर्षों में वर्षा बहुत कम हुई है। आंतरिक हिंसा से जुड़ी समस्याएं भी हैं। इसके मिले-जुले असर ने यहां खाद्य स्थिति बहुत बिगाड़ दी है।
जलवायु बदलाव के दौर में प्रतिकूल मौसम की संभावना वैसे ही बढ़ गई है। इस स्थिति में अमन-शांति बनाए रखना बहुत जरूरी है। पर बहुत बड़ी त्रासदी यह है कि इस संवेदनशील और नाजुक दौर में ही अफ्रीका के अनेक देशों में आंतरिक हिंसा बहुत हुई है और हो रही है। इथिओपिया, नाईजीरिया, सूडान और नाईजीरिया जैसे बड़े देश हिंसा से बहुत प्रभावित हुए। गृह युद्ध के बाद सूडान दो देशों में बंट चुका है - सूडान और दक्षिण सूडान।
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बढ़ती भूख की समस्या के बीच यह याद दिलाना जरूरी है कि वर्ष 1971-2011 के 40 वर्षों के बीच सेहल क्षेत्र, हार्न आफ अफ्रीका क्षेत्र और अन्य क्षेत्रों में लाखों लोग भुखमरी और अकाल से मारे गए हैं। विकास और पर्यावरण पर विश्व आयोग ने वर्ष 1987 में बताया था कि पिछले लगभग तीन वर्षों में अफ्रीका में अकाल और भुखमरी से लगभग दस लाख लोगों की मृत्यु हुई थी। 1970 से 2022 के बाद के 52 वर्षों में किसी अन्य क्षेत्र में भूख से इतनी अधिक मौतों का कोई अन्य उदाहरण नहीं है। इससे पहले 1959-60 के आसपास चीन में ‘बड़ी छलांग’ के दौर में इससे भी अधिक मौतें अकाल और भुखमरी में हुई थीं।
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विश्व खाद्य संगठन और विश्व खाद्य कार्यक्रम ने वर्ष 2021 के आरंभ में रिपोर्ट तैयार की थी ‘हंगर हॉटसपाट’ जिसमें विश्व में उन 20 देशों की पहचान की गई थी जहां भूख की समस्या सबसे कम है और भविष्य में और उग्र हो सकती है। इन 20 देशों में से 12 देश अफ्रीका महाद्वीप के थे।
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इसके बाद के सवा वर्ष को देखें तो तबसे लेकर अब तक अत्यधिक भूख से प्रभावित अफ्रीकी देशों और क्षेत्रों की संख्या और बढ़ गई है। नाईजीरिया और केन्या की गिनती अपेक्षाकृत ठीकठाक आर्थिक स्थिति के देशों में होती है पर यहां के कुछ बड़े क्षेत्रों में भी भूख की समस्या विकट है। संयुक्त राष्ट्र संघ के आंकड़ों के अनुसार 2010-2012 के दौरान केवल एक देश सोमालिया में भुखमरी और अकाल से 2,60,000 मौतें हुई थीं। 21वीं शताब्दी में किसी एक देश में इतने कम समय में भूख से इतनी मौतें होने का कोई भी समाचार नहीं है। ऐसी खतरनाक संभावनाओं को देखते हुए अफ्रीका में भुख्मरी और अकाल से राहत के लिए प्रयासों को तेजी से बढ़ाने की जरूरत है। इसके साथ ही अफ्रीका में कृषि, पशुपालन और जलवायु बदलाव अनुकूलन नीतियों को बेहतर करने की बहुत जरूरत है।
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