बनारस हिंदू विश्वविद्यालय के विद्या धर्म विज्ञान विभाग में असिस्टेंट प्रोफेसर नियुक्त किए गए फिरोज खान जयपुर लौट गए। उनकी निराशा व्यक्तिगत नहीं है। ठीक है कि विश्वविद्यालय प्रशासन कह रहा है कि उनकी नियुक्ति वापस नहीं हुई है और विरोध प्रदर्शन वगैरह खत्म होने पर वह लौट आएंगे, लेकिन यह सवाल तो बना ही रहता है कि ऐसा माहौल बनारस ही नहीं, पूरे देश में क्यों बना दिया गया है। क्यों हर ओर से धार्मिक पहचान के आधार पर भेद-भाव की खबरें आए दिन आती रहती हैं? और फिर,अगर इस तरह की घटना बनारस में हो तो सोचना तो पड़ेगा ही क्योंकि यह तो प्रधानमंत्री का निर्वाचन क्षेत्र है। नरेंद्र मोदी अब सिर्फ बीजेपी के नहीं,बल्कि पूरे देश के नेता हैं और वह पूरे देश का प्रतिनिधित्व करते हैं। लिहाजा, उनका दायित्व भी काफी बड़ा है। उनके इलाके में हताश करने वाली इस तरह की घटना हुई तो क्या उन्हें अपनी जिम्मेवारी नहीं निभानी चाहिए?
कई दिन से एक सवाल परेशान कर रहा है। मन अचानक पूछने लगा है कि यह नजीर अकबराबादी साहब कौन थे जो दिवाली-होली पर भी गीत लिख डालते थे! कृष्ण-कन्हैया की बांसुरी की धुनें और लीलाएं उन्हें इतना क्यों भाईं कि उन पर भी गीत लिख डाले। गीत भी ऐसे जिन्हें हम आज तक मौके-बेमौके लंबे समय से गुनगुनाते आ रहे हैं। बच्चों तक को सुनाते, उन्हें याद कराते आ रहे हैं। लेकिन मन ने इस तरह पूछा कि जानना जरूरी लगा। अचानक ख्याल आया कि अरे ये नजीर अकबराबादी तो मुसलमान थे!
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अब हम सोचने लगे कि हमारे बचपन में ही ये ‘गुले नगमा’ जैसा अद्भुत काव्य ग्रंथ रचने वाला शख्स फिराक गोरखपुरी आखिर कौन था? नाम से तो ‘मुस्लिम’ ही लगता है क्योंकि हर वक्त कुछ नया रचने की ‘फिराक’ में रहता था, लेकिन ढूंढा तो पता चला कि यह तो गुरु गोरखनाथ की धरती से आने वाला कोई ‘रघुपति सहाय’ था जो पता नहीं, कब फिराक बन गया। यानी ये शख्स तो हिंदू निकला। और अगर हिंदू निकला तो उर्दू का इतना बड़ा विद्वान कैसे हो सकता है और ‘गुले नगमा’ जैसी कालजयी कृति की रचना कैसे कर सकता है। ‘हिंदी’ में जन्म लेने वाला यह शख्स उर्दूमें लिखकर ‘साहित्य अकादमी’ जैसा सम्मान भी ‘हथिया’ लेता है, और कोई हिंदू या मुस्लिम ‘माई का लाल’ ‘चूं’ तक नहीं करता। ऐसी हरकत के लिए इसे तो उसी वक्त पहलू खान की परिणति तक पहुंचा दिया जाना चाहिए था, अपना ‘धर्म’ ‘भ्रष्ट’ करने के लिए। उसे तो सिर्फ ‘हिंदी’ और ‘संस्कृत’ तक सीमित रहकर ‘धर्म ध्वजा’ की ठेकेदारी करनी चाहिए थी, लेकिन इसने तो धर्म ही नहीं, पता नहीं क्या-क्या भ्रष्टकिया होगा!
लेकिन फिर याद आया किये तो ‘धर्म ध्वजा’ उठाने की ठेकेदारी के भी लायक नहीं थाः अरे, ये तो न उर्दू लायक था न हिंदी लायक क्योंकि यह तो अंग्रेजी का प्रोफेसर था और इतना बड़ा ‘अंग्रेज’ कि ‘हिंदी वालों’ को दूर से ही देखकर ‘गरियाने’ लगता था। अब हम पता करने जा रहे हैं कि आखिर इस शख्स को 1970 में ‘साहित्य अकादमी’ जैसा बड़ा और प्रतिष्ठित सम्मान दिया किसने? कौन सी ताकतें रही होंगी इसके पीछे?
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वाकई अब यह सब तलाशने, ‘इतिहास’ खंगालने का वक्त आ गया है। वक्त आ गया है कि ऐसी असंख्य गलतियां सुधारी जाएं और इतिहास को ‘फिर से’ लिखा जाए! कम-से-कम हमारा वर्तमान तो यही संदेश दे रहा है। हमें याद आ रहा है कई दशक पहले वाला एक विज्ञापन... ‘फेंक दो ये कड़ाही, ये देगची, ये सारे बर्तन और ले जाओ अपना चमकता हुआ नया प्रेशर कुकर...।’ तो क्या अब सही अर्थों में इस विज्ञापन की भावना के साथ खड़े होकर सब कुछ बदल देने, पुराना सब कुछ फेंक कर ‘नया’ अपना लेने का वक्त आ गया है!
हमें याद आ रहा है वह सब-कुछ जब हम पुरखों की कमाई के बचे- खुचे पीतल-कसकुट-फूल-जैसे धातुओं के भारी-भरकम बर्तन बेच आए थे और स्टील के चमकते बर्तनों से घर को ‘जगमग’ कर दिया था। वे स्टील के बर्तन तो कब के किसी कोने में बिलाकर कबाड़ी के लायक भी नहीं बचे लेकिन पुरखों की उस विरासत के बीच से गलती से बचा लिया गया एक भारी-भरकम कटोरा और लोटा आज भी उसी चमक से घर में बना हुआ है और हम वैसी ही थरिया-परात-लोटा-बटोई और कढ़ाही तलाशते फिर रहे हैं जो अब आसान नहीं है। बार-बार लग रहा है कि काश, वह सब बचा लिया होता। हमें याद आ रहा है और समझ में भी, कि विरासत पर से पकड़ अगर ढीली पड़ जाए तो वह हाथ से निकल जाती है और लाख सिर पीट लो, लौटकर नहीं आती।
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आचार्य फिरोज खान, संस्कृत और बीएचयू के संदर्भ के साथ धर्म- संस्कृति की नगरी काशी की धरती से निकले ताजा सच पर सोचते हुए पता नहीं क्यों ये सब ‘अनर्गल’ बातें इस तरह मन में आने लगीं कि नींद उचट गई और नोटपैड पर यह सब उतरने लग गया (हां, अनर्गल ही तो है यह सब!)। याद ही न रहा कि अब यह सब लिखने तो क्या, सोचने का भी दौर शायद नहीं रहा! लेकिन क्या वाकई? क्या वाकई हमें यह सब लिखना- सोचना बंद कर देना चाहिए, जैसा कि अक्सर दीख और दिखाया जा रहा है।
दिख रहा है कि इसी बनारस के मीना साह की गली वाले उस्ताद बिस्मिल्लाह खान कमर में लाल अंगोछा लपेटे बेनिया बाग, दालमंडी होते हुए, किसी से ‘राम-राम’, किसी से ‘जय रामजी की’ करते, बोलते- बतियाते पंचगंगा घाट पर आए हैं और गंगा की धारा में डुबकी लगाकर सूर्य को प्रणाम भी किया है। लौटते हुए वे बालाजी मंदिर में गए हैं और वहां बैठकर बड़ी देर से अपनी प्रिय शहनाई पर रियाज कर रहे हैं। आसपास लोग जुट गए हैं... इनमें वे लोग ही ज्यादा हैं जो आस्था में डूब नित्य की तरह गंगा स्नान करने आए हैं और सूर्य को अर्घ्य देने के बाद आदतन बिस्मिल्लाह खान की शहनाई की धुनों में खो गए हैं। ठीक वैसे ही जैसे समूचा ब्रज कृष्ण की बांसुरी की धुनों में डूब जाता था और उसी बांसुरी की धुन जब किसी मुस्लिम कलाकार की बांसुरी से निकलती है, तब भी सब वैसी ही वाह निकलती है।
तो क्या अब हमें बांसुरी और शहनाई की धुनें सुनने से पहले धुन छेड़ने वाले का मजहब भी देख लेना होगा! यह बहुत बड़ा सवाल है! यह बड़ा सवाल भारतेन्दु, प्रसाद, प्रेमचंद, नजीर बनारसी और उस्ताद बिस्मिल्ला खान की धरती से निकला है। इसने यह सवाल भी हमारे सामने छोड़ा है कि क्या हम अपने इन प्रतीकों को भूल गए है और यह भी कि क्या हमने इनसे सबक लेना, सीखना छोड़ दिया है। वैसे, संदर्भवश बता दें कि यह उसी बनारस की ‘नई हवा’ है जहां के विश्व प्रसिद्ध संकट मोचन मंदिर के सालाना संगीत उत्सव में उस्ताद बिस्मिल्लाह खान अगर शहनाई बजाते रहे हैं तो उस्ताद अमजद अली खां के साथ अमानऔर अयान का सरोद भी गूंजा है, जाकिर हुसैन का तबला भी और निजामी बंधुओं की कव्वाली भी।
ऐसे में अपने बनारस से बस एक सवाल कि कहीं हम अपनी उस साझी संस्कृति को तो बिसराने नहीं बैठ गए जिसकी हम मिसाल देते रहे हैं। और उस मिसाल में हम उस्ताद बड़े गुलाम अली खां का ‘हरिओम तत्सत...’ और पंडित जसराज का ‘मेरो अल्लाह मेहरबान...’ भी याद करते हैं और यह भी बताने से नहीं चूकते कि बाबा अलाउद्दीन खान खुद मैहर देवी के उपासक थे और उनकी बेटी का नाम अन्नपूर्णा था।
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