योहान मंका की फिल्म ‘ला ट्राविअता, माई ब्रदर्स एंड आई’ 74वें कान फिल्म समारोह के अन सर्टन रिगार्ड सेक्शन के आधिकारिक वर्ग में दिखाई जा रही है। यह वर्ग ‘असामान्य शैलियों और गैर-परंपरागत कहानियों’ तथा युवा एवं उभरते फिल्मकारों के लिए समर्पित है। योहान मंका की इस फिल्म में चौदह वर्ष का नौर और उसके तीन बड़े भाई दक्षिणी फ्रांस के एक गरीब और थके-ठहरे हुए काउंसिल स्टेट में रहते हैं। ये तीनों सदैव मूर्छा की अवस्था में रहने वाली अपनी मां का ध्यान रखते हैं और साथ ही दो वक्त के भोजन की व्यवस्था भी करते हैं।
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उनके पास-पड़ोस में रहने वाले कामगार वर्ग की एक बहुत बड़ी संख्या प्रवासियों की है। इनकी दुनिया लगातार असंतोष, तनाव, हिंसा और छोटे-मोटे अपराधों से भरी हुई है। गर्मियों की छुट्टियां ही वह समय होता है जब नौर यह उम्मीद करता है कि वह शायद इस चिड़चिड़ी और उद्ददं सच्चाई से दूर निकलकर अपने सपनों की दुनिया में जा पाएगा। लेकिन यह सब इतना आसान नहीं होता। उसका बड़ा भाई चाहता है कि वह पढ़ाई छोड़कर पिजा डिलिवरी बॉय का काम करे। और दूसरी तरफ सामुदायिक सेवा का काम भी उस पर लाद दिया जाता है। इन सब के बीच नौर के भीतर जो पनप रहा है, वह है संगीत के लिए एक ऐसा जुनून जिसने उसके अंदर अपनी जड़ तब जमाई जब वह अपनी मां के लिए गाता था जो किसी समय इतालवी ओपेरा की बहुत बड़ी प्रशसंक थी। फिल्मकार योहान मंका ने एक साक्षात्कार के दौरान कहा, “इस बात को समझ लेना कि हमारे माता-पिता और हमारे पूर्वज एक कलात्मक समझ रखते थे, कोई छोटी बात नहीं है। मैंने जब पटकथा लिखी तो अतीत के ये अवशषे एक थीम बनकर मेरे ऊपर नैसर्गिक रूप से हावी हो गए। नौर के परिवार का भी एक संगीतमय इतिहास है; वह उसके साथ जुड़ा हुआ भी है और उसका सम्मान भी करना चाहता है।”
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स्वप्न और वैकल्पिक हकीकत उस समय पहुंच के अंदर लगते हैं जब नौर को गर्मियों की कक्षाओं के दौरान ओपेरा गायिका सारा के साथ सीखने का मौका मिलता है। क्या यह सफर उतना आसान होगा, जैसी वह इच्छा रखता है।
मंका कहते हैं, “मैं कोई ‘स्थानीय रंग-रूप’ की तलाश नहीं कर रहा था बल्कि मैं उसे सार्वभौमिक रूप देना चाहता था ताकि यह फिल्म पूरी दुनिया में किसी भी उप-नगरीय परिस्थिति से अपने को जोड़ सके।”
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एक तरह से देखा जाए तो जिंदगी की कड़वी सच्चाइयों से बचने के लिए कला को मार्ग बनाने की यह एक जानी- पहचानी कहानी है। लेकिन जो बात इसे रोचक बनाती है, वह है इस कहानी को ओपेरा की दुनिया में लाकर खड़ा कर देने का चुनाव। मंका कहते हैं, “मैंने सोचा कि कला जो अक्सर अभिजात वर्ग के साथ जोड़ी जाती है, उसे कामगार वर्ग के माहौल के साथ जोड़ना काफी अद्भुत रहेगा। मुझे ऐसा लगा कि मैं एक बहुत ही मजेदार राह पर बढ़ रहा हूं। एक निर्माता जिनसे मैं अपने प्रोजेक्ट पर बात कर रहा था, उन्होंने जबाव दिया : ‘ओपेरा’ कम आय वाली बस्तियों के लिए नहीं है!’ लेकिन इसमें बिल्कुल भी सच्चाई नहीं है।” अपनी रोजमर्रा की तकलीफों और चुनौतियों के बावजूद नौर और उसके भाई जिस तरह से अपनी मां का ध्यान रखते हैं, वह बहुत ही मार्मिक है। नौर को उसकी मां से जो चीज जोड़ती है वह है संगीत। समाज के हाशिये पर रहने वाले, लगातार बेइज्जत और प्रताड़ित होने वाले बच्चे के लिए संगीत एक आश्रय भी है और एक मरहम भी। असंगति और अस्थिरता के बीच संगीत उसे शांति, खुशी और शक्ति देता है।
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इस फिल्म को दो चीजें सबसे अलग खड़ा करती हैं। एक, फिल्म में नौर का धीरे-धीरे होने वाला रूपांतरण और दूसरा, हाव-भाव बदलने में माहिर युवा कलाकार मौलरौइन-बेर्रांडो जो स्क्रीन पर अपने किरदार में जान डाल देता है। संगीत नौर को खुलना और मुस्कुराना सीखाता है। वह उसे स्वयं की पहचानने की समझ और जिंदगी की दिशा पाने में मदद करता है। इस फिल्म में सबसे खूबसूरत हिस्से स्वयं संगीत के ही हैं। हम सीखते हैं कि कैसे फेफड़ों की क्षमता बढ़ाई जाती है, कैसे सांस को लंबा खींचा जाता है; कैसे लुसियानो पवरोत्ती जैसे एक जाने-माने गायक की नकल करना भी हमें खुद की आवाज ढूंढने में हमारी मदद कर सकता है। संगीत एक अनुशासन भी है और संरक्षक भी, यह तुम्हें उठाता भी है और साथ ही, संघर्ष में फंसी एक आत्मा के लिए एक अद्वितीय रक्षक भी है। फिल्म हमें ठीक-ठीक यह तो नहीं बताती कि जिंदगी नौर को कहां ले जाएगी लेकिन वह यह वादा जरूर करती है कि उम्मीद भी होगी और बदलाव भी आएगा।
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पास्कल तगनाती की ‘कॉमेटा कोर्सीकन समर’ में भी हमें ऐसा ही एक खुला अंत देखने को मिलता है जो इसके समानांतर वर्ग एसीआईडी में दिखाई जा रही है। यह कहानी कोर्सिका के गांव के निवासियों और गर्मियों में तपते सूरज से दूर भागकर पहाड़ों की छांव में समय बिताने के लिए वहां आने वाले लोगों के बारे में है। यह फिल्म पूरी तरह से बिखरी हुई बातचीत के चारों ओर बुनी गई है। यह बातचीत अलग-अलग आयु के अलग-अलग लोगों के बीच होती है। यह सारी बातचीत बहुत ही अलग-अलग पृष्ठभूमियों में सामने आती है, जैसे– घर से लेकर दावतों तक में और गली के नुक्कड़ों पर भी। विचार-विमर्श के विषय आस्था से लेकर फुटबाल तक, और सेक्स से लेकर जिंदगी की असुरक्षाओं जैसे जिंदगी में कुछ खोना और सब कुछ दोबारा शुरू करने के लिए बाध्य होना, जैसी बातों पर हैं। कहीं कोई ड्रामा नहीं है, कहीं कोई तनाव नहीं है, बस अनेक किरदारों के बीच लगातार एक बातचीत है। यह फिल्म इन किरदारों के जरिये समुदाय का एक भाव निष्कपटता के साथ हम तक पहुंचाती है। सभी दृश्य एक लघुचित्र जैसे हैं, जिंदगी के छोटे- छोटेटुकड़े, जिनकी न कोई शुरुआत है, न मध्यांतर है और न कोई कोई अंत है। जैसा तगनाती खुद कहते हैं, “जिंदगी चलती रहती है।”
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