अब ‘सबका साथ, सबका विकास’ समाप्त! अब केवल होगा अंबानी-अडानी विकास। यह है महाराजाधिराज सम्राट नरेंद्र मोदी का देश के नाम संदेश। आप चौंक गए, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को ‘महाराज’ एवं ‘सम्राट’ क्यों लिखा! तो मैं पहला व्यक्ति नहीं जो मोदी जी को सम्राट कह कर संबोधित कर रहा है। भूल गए क्या, सारा गुजरात उनको 2002 के नरसंहार के बाद ‘हिंदू हृदय सम्राट’ कहकर ही संबोधित करता था। केवल ‘गुजराती प्रजा’ ही नहीं बल्कि गुजराती मीडिया भी उनको ‘हिंदू हृदय सम्राट’ ही लिखता एवं बोलता था। मानें या न मानें, मोदी जी की मनोकामना भी इतिहास में आधुनिक भारत के हिंदू सम्राट के रूप में जाने जाने की है। लोकतंत्र उनके लिए सत्ता प्राप्ति का केवल एक साधन है।
उनके लगभग सात वर्षों के कार्यकाल से स्पष्ट है कि वह लोकतांत्रिक मान्यताओं में तनिक भी विश्वास नहीं रखते हैं। उनके हाव-भाव भी सम्राटों-जैसे हैं। जरा पलट कर देखिए तो स्पष्ट दिखाई देता है कि संसदीय प्रणाली में उनको कोई दिलचस्पी नहीं है। तब ही तो कोरोना महामारी की आड़ में भारतीय संसद के इतिहास में यह पहली बार हुआ है कि संसद का संपूर्ण शीतकालीन सत्र ही स्थगित कर दिया गया। वैसे, जब महाराज को खेती-बाड़ी के नए कानून पारित करवाने थे और उस समय कोरोना महामारी भी अपने चरम पर थी तो संसद का मानसून सत्र बुला लिया गया था। अब संसद भी सम्राट मोदी की इच्छानुसार ही चलेगी।
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एक संसद क्या, देश की संपूर्ण व्यवस्था ‘महाराज मोदी’ के आगे या तो स्वयं नतमस्तक है अथवा उसको इस स्थिति में पहुंचा दिया जाता है कि वह ‘महाराज’ के आगे झुकने को मजबूर हो जाती है। वह देश का चुनाव आयोग हो अथवा देश की न्यायपालिका या फिर अफसरशाही- सब ‘महाराज मोदी’ के आगे नतमस्तक हैं। मीडिया जो बोल सकता था, उसको गोदी मीडिया बना दिया गया है। बोले तो विज्ञापन बंद। इसलिए मीडिया भी ‘महाराज’ का दरबारी बन मजे कर रहा है। लोकतंत्र में विपक्ष की अहम भूमिका होती है। ‘फाइल के मंत्र’ से विपक्ष को भी चुप करा दिया गया है। बस, केवल गांधी परिवार सरकार के विपक्ष में खड़ा दिखाई पड़ता है। बाकी तो चारों ओर सन्नाटा है। सिविल सोसायटी में यदि कोई चूं करता है तो वह ‘महाराज मोदी’ के काल में काल कोठरी में ठूंस दिया जाता है। बस, चारों ओर महाराज सम्राट मोदी की जय-जयकार है और महाराज प्रसन्नचित हैं।
परंतु वह कोई सम्राट हो अथवा प्रधानमंत्री, शासकों का समस्याओं से तो सामना होता ही है। अब यूं तो चारों ओर महाराज मोदी की जय-जयकार है।
परंतु इस देश के किसानों की न जाने क्यों मत मारी गई है कि वे पंजाब, हरियाणा एवं पश्चिमी उत्तर प्रदेश से अपने घर-बार छोड़कर ‘महाराज’ के विरोध में निकल पड़े हैं। परंतु सम्राट मोदी भी किसी मुगले आजम से कम नहीं हैं। उन्होंने यह तय कर लिया है कि वह भी इन ‘बागियों’ को ऐसा सबक सिखाएंगे कि फिर कभी जनता का कोई भी वर्ग ‘महाराज’ के खिलाफ सिर उठाने की कल्पना भी न कर सके। तब ही तो सिंघु, टिकरी और गाजीपुर बॉर्डर पर हजारों किसान खुले आसमान के नीचे पड़ा है। ठंड अपनी चरम सीमा पर है। इस लेख के लिखे जाने तक तीन दिनों से इस कड़कड़ाती ठंड में घंटों-घंटों बारिश हो रही है। और तो और, ओले भी पड़ रहे हैं। अब तक पचास किसानों की इस खुले आसमान के नीचे मृत्यु हो चुकी है। परंतु ‘महाराज सम्राट मोदी’ के माथे पर शिकन तक नहीं है।
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मोदी जी के संतरी (उनको मंत्री भी कहते हैं) किसानों को वार्ता के लिए बुलाते हैं। अब तक सात चरण की वार्ता विफल हो चुकी है। वार्ता के हर चरण के बाद वह अपने संतरी/मंत्री से पूछते हैं क्या बागी भगा दिए गए। मंत्री उनको समझा देते हैं कि हम उनके खिलाफ बल प्रयोग नहीं कर रहे हैं। हम तो बागी किसानों को वार्ता में फंसाकर उनको मौसम की मार से ऐसा थका रहे हैं कि कभी किसी की बगावत की हिम्मत ही नहीं पड़े। महाराज मुस्कुराते हैं और इशारा करते हैं कि ऐसे ही वार्ताक्रम चलाए रखो।
महाराज मोदी के लिए किसान आंदोलननाक का सवाल हो गया है। महाराज मोदी ने गुजरात में अपने मुख्यमंत्री के शासनकाल के समय से ही लौह पुरुष की छवि बना रखी है। भारतवासी भले ही लोकतंत्र की माला जपें। वह तो सदा से हर बागी का सिर कुचलने में विश्वास रखते हैं। आखिर, गुजरात के मुसलमानों का सन 2002 में उनके शासनकाल में ऐसा सिर कुचला गया कि सारे देश के मुसलमान आज तक उनसे भयभीत हैं। फिर भी इन पंजाबी और जाट किसानों को क्या हो गया कि वे सिर पर कफन बांधकर मोदी जी के कृषि कानूनों के खिलाफ घर से निकल पड़े। इतना ही नहीं, इन किसानों ने तो एक फौज के समान दिल्ली ही घेर ली। वह भी ऐसे समय में जब ‘महाराज’ का डंका चारों ओर बज रहा था।
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अब जाहिर है कि यह महाराज के लिए नाक का सवाल बन गया। यदि हजारों की तादाद में ऐसे ‘बागी’ दिल्ली की सरहद पर धरना देंगे तो कल को देश के कोने-कोने में बगावत फूट पड़ेगी। ‘महाराज’ भले ही दिल्ली में बड़ी चमक-दमक एवं शान-बान से हों लेकिन अंदर के हालत तो खराब ही हैं। कोरोना महामारी ने देश की अर्थव्यवस्था चरमरा दी है। करोड़ों लोग बेरोजगार हैं। काम-धंधा बंद पड़ा है। यदि आज सरकार किसानों के आगे झुक गई तो फिर तो देश के कोने-कोने से बगावत फूट पड़ेगी। खजाना वैसे भी खाली है। आखिर, महाराज किस-किस की सुनेंगे। इसलिए किसानों से निपटने की महाराज की रणनीति स्पष्ट है। इन किसानों को वार्ता में फंसाकर बातचीत चलाते रहो। इस ठंड और बारिश में आखिर ये गरीब किसान कब तक बैठे रहेंगे। अंततः थक-हार कर चले ही जाएंगे। और फिर गोदी मीडिया ‘सम्राट’ के गुण गाएगा। देश को चीख-चीख कर यह बताएगा कि देखा विजय तो ‘महाराज’ की ही हुई।
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इतिहास में हर सम्राट सदा यही सोचता चला आया है कि उसकी ताकत एवं शान-शौकत के आगे मामूली प्रजा की क्या हैसियत! यदि सम्राट मोदी ऐसा सोच रहे हैं तो ऐसी कौन-सी अनोखी बात है। परंतु इतिहास यह भी बताता है कि बड़े से बड़ा सम्राट अंततः मामूली प्रजा से ही पराजित होता है। महाराज मोदी को यह भ्रम है कि उनके पास ‘मुसलमान’ नाम का ऐसा ब्रह्मास्त्र है जिसके चलते वह एक किसान आंदोलन तो क्या, न जाने कितनी बगावतें कुचल सकते हैं। मुस्लिम शत्रु का हव्वा खड़ा करो और सारे हिंदू महाराज को ‘अंग रक्षक’ मान पुनः उनकी शरण में आ जाएंगे। तब ही तो महाराज के सूबेदारों ने ‘लव जिहाद’ का शोर आरंभ कर दिया है, अर्थात मुस्लिम वर्ग ने प्रेम अस्त्र का प्रयोग कर हिंदू बालिकाओं की इज्जत पर हाथ डालना आरंभ कर दिया है। रोज मुस्लिम लड़के पकड़े जा रहे हैं। साथ-साथ मध्यप्रदेश जैसे सूबे में गांव- गांव दंगे हो रहे हैं। अर्थात किसान इस हिंदू-मुसलमान के शोर में सब भूलकर ‘अंग रक्षक’ सम्राट मोदी की शरण में आ जाए।
परंतु अब किसान भी समझ रहा है कि यह अंग्रेज सम्राटों-जैसी बंटवारे की राजनीति है। वह तय किए बैठा है कि हम जान दे देंगे लेकिन मांगें मनवा कर रहेंगे। उसके लिए यह मौत और जिंदगी का नहीं, नाक का भी सवाल बन गया है। अब देखें इस नाक की लड़ाई में किसकी नाक ऊंची रहती है। किसानों की अथवा सम्राट मोदी की।
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