दिल्ली के सिंघु बॉर्डर पर इन दिनों जश्न का सा माहौल है। हजारों की संख्या में यहां पंजाब से आए किसान इकट्ठा हैं। दस-बारह किलोमीटर की दूरी तक यहां टेंट, ट्रक और ट्रैक्टरों पर बसा एक नगर-सा बन गया है। इस नगर का अपना अलग अनोखा जन-जीवन है। इन काफिलों से बसे नगर में यदि आप जाइए तो आपको यह प्रतीत नहीं होता है कि आप किसी राजनीतिक धरने-प्रदर्शन में आए हैं। यह तो सत्य है कि दस-बारह किलोमीटर लंबे फैले नगर में किसान आंदोलन ही चल रहा है।
परंतु इस आंदोलन की रूपरेखा कुछ अलग ही है। यहां यदि एक ओर आंदोलन की मांगों को लेकर धऱना एवं भाषण हो रहा है, तो वहीं आप जरा आगे बढ़ेंगे तो आपको एक बिल्कुल दूसरा ही दृश्य नजर आएगा। कहीं पर नौजवान खड़े होकर चाय पिला रहे हैं। और आगे बढ़िए तो दूध का शरबत बंट रहा है। खाने का समय होते ही लंगर शुरू। आपको हर प्रकार का खाना मिल जाएगा। यदि आप शाकाहारी हैं तो शाकाहारी भोजन कीजिए। आप मांसाहारी हैं तो कोरमा- बिरयानी खाइए। आप चलते-चलते थक गए हों तो सड़क के दोनों ओर लगे गद्दों पर आराम कीजिए। यदि कोई बीमार है तो उसके इलाज के लिए डॉक्टर-दवा सब उपलब्ध है। मजेदार तो यह है कि आप धरने पर आए हैं और आपके कपड़े गंदे हो गए हों तो वहां वाशिंग मशीन पर अपने कपड़े धुलवा लीजिए। शाम के समय वहां गीत-संगीत और नाना प्रकार के सांस्कृतिक कार्यक्रमों से अपना मन बहला लीजिए।
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सिंघु बॉर्डर पर चल रहा आंदोलन अपने में एक अनोखा आंदोलन है। ऐसे शांतिपूर्वक आंदोलन का कोई दूसरा उदाहरण पिछले कई दशकों में दिखाई नहीं पड़ता। सत्य तो यह है कि कम-से-कम पंजाब में अब यह केवल कृषि मुद्देसे जुड़ा आंदोलन नहीं रह गया है। पंजाब में तो किसानों का यह ऐतिहासिक आंदोलन अब एक शांतिपूर्वक क्रांति का रूप ले चुका है। ऐसा लगता है कि पंजाब के हर घर से कम-से-कम एक व्यक्ति और अक्सर तो पूरे के पूरे परिवार सिंघु पहुंच चुके हैं। प्रतिदिन सैंकड़ों लोग नए-नए काफिलों में सिंघु पहुंच रहे हैं। पंजाब में इन दिनों केवल बस इसी आंदोलन की चर्चा है। उठते-बैठते, दिन- रात अगर वहां कोई बात है तो बस यह कि सरकार नए कृषि कानून वापस ले और यदि कानून वापस नहीं लिए जाते तो हम जान दे देंगे लेकिन सिंघु किसानों से खाली नहीं होगा। और यह सत्य है कि अब तक पंद्रह से अधिक किसानों की जानें जा चुकी हैं लेकिन किसान सिंघु छोड़ने को तैयार नहीं हैं।
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यदि आप सिंघु बॉर्डर पर जाएं तो आपको यह आभास होता है कि शायद गांधी जी का 1942 का भारत छोड़ो आंदोलन भी कुछ ऐसा ही होगा। पंजाब में यह आंदोलन एक सामाजिक आंदोलन बन चुका है, तब ही तो इस आंदोलन की हिमायत में पंजाब के एक डीआईजी तक त्याग पत्र दे रहे हैं। उधर, दूसरे देशों में बसे सिख करोड़ों रुपये जमा कर इस आंदोलन के लिए भेज रहे हैं। लब्बोलुआब यह है कि पंजाब में किसान संघर्ष केवल एक आंदोलन नहीं बल्कि एक जुनून का रूप ले चुका है। परंतु ऐसी क्या बात है कि पंजाब का किसान जान देने को तैयार है लेकिन सिंघु बॉर्डर से हटने को तैयार नहीं।
यूं तो पंजाब के अलावा हरियाणा, उत्तर प्रदेश, राजस्थान और मध्यप्रदेश में भी यह आंदोलन चल रहा है लेकिन बाकी हर प्रदेश में यह एक संघर्ष है, पर पंजाब में यह एक क्रांति है। आखिर क्यों! पंजाब में ऐसी क्या बात है कि खेती वहां के लिए जीना-मरना और उसका सामाजिक जन-जीवन भी है। बात यह है कि पंजाब के लिए यह एक सभ्यता का मुद्दा बन गया है। पंजाबी, विशेषकर सिख, किसान को यह प्रतीत होता है कि यदि नए कृषि कानून सफल हो गए तो पूंजीपति उसकी जमीन पर भी कब्जा कर लेगा। यदि जमीन गई तो फिर बस पंजाब की शान गई। उसकी सभ्यता उससे छिन जाएगी।
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यह बात बहुत हद तक सत्य भी है। पांच नदियों के बीच बसा यह पंजाब प्रदेश सदा से खेती-बाड़ी ही करता चला आया है। इसी पंजाब ने सारे भारत वर्ष को अपना खून-पसीना बहाकर सदियों से गेहूं, चावल, दाल और दूसरे अनाज दिए हैं। और उसके खेत-खलिहानों के बीच ही पंजाबी सभ्यता और पंजाबी पहचान जन्मी है। उसके गीत-संगीत, रीति-रिवाज, उसका साहित्य, उसका उठना-बैठना, उसके त्योहार सब कुछ उसी खेत-खलिहान से जुड़े हैं जिसने पंजाब को पंजाब बनाया है। यदि उसके हाथों से वही खेत-खलिहान चले गए तो फिर वह पंजाबी कैसा और उसकी पहचान क्या बची। यही कारण है कि पंजाब का किसान केवल एक आंदोलन एवं संघर्ष ही नहीं चला रहा है। वह तो इस समय अपनी सभ्यता और अपनी पहचान की लड़ाई लड़ रहा है। तब ही तो वह जान देने को तैयार है लेकिन इस कड़कड़ाती ठंड में सिंघु बॉर्डर छोड़ने को तैयार नहीं है।
एक ओर ये भोले-भाले किसान हैं जो अपने जीवन की बाजी लगाकर संघर्ष कर रहे हैं। दूसरी ओर मोदी सरकार है जो अपनी बात पर अड़ी है। सरकार ने यह स्पष्ट कर दिया है कि किसान मरे चाहे जीए, उसने संसद में जो कृषि संबंधी तीन कानून पारित किए हैं, वे अब पत्थर की लकीर हैं। स्वयं प्रधानमंत्री ने एक भाषण में यह स्पष्ट कर दिया कि खेती में प्राइवेट पूंजी के निवेश से ही किसान की उन्नति हो सकती है। किसान का कहना है कि इस रास्ते से किसान की तो नहीं, हां, अंबानी और अडानी जैसे पूंजीपतियों की उन्नति अवश्य होगी। यह तर्क कोई बहुत गलत भी नहीं दिखाई पड़ता।
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पूंजीवाद का इतिहास बताता है कि पूंजीपति अपनी पूंजी किसी दूसरे के भले के लिए नहीं बल्कि केवल अपने मुनाफे के लिए लगाता है। यदि किसानी में अपनी हजारों करोड़ की दौलत के साथ बड़े-बड़े पूंजीपति आ गए तो फिर क्या उनके सामने यह छोटा-मोटा, भोला-भाला किसान बच पाएगा! आज मंडी गई तो कल औने-पौने में फसल और दो-चार बरसों में उसका खेत भी जाएगा। जब किसान ही नहीं तो फिर उसकी पहचान कैसी, और जब उसकी पहचान खत्म तो फिर उसने सदियों में जो किसानी पर आधारित सभ्यता रची-बुनी है, वह कब तक चलेगी। यह प्रश्न मनोवैज्ञानिक स्तर पर पंजाब के किसान को चिंतित किए हुए है। इन्हीं गुत्थियों को सुलझाने वह अपना घर-बार और खेत-खलिहान छोड़कर सिंघु बॉर्डर पर खुले आसमान के नीचे बैठा है।
परंतु. मोदी सरकार टस से मस नहीं हो रही है। कृषि मंत्री तोमर ने यह स्पष्ट कर दिया है कि मोदी सरकार को जो लोकसभा में 302 सीटों का बहुमत मिला है, वह इसी बात के लिए मिला है कि वह कृषि क्षेत्र में प्राइवेट पूंजी निवेश को सफल बनाए। भाई, तोमर जी से कोई पूछे कि प्रधानमंत्री से लेकर भाजपा के छोटे नेता तक किसने 2019 के लोकसभा चुनाव में इन कानूनों का जिक्र किया जो संसद में पास हुए हैं। चुनाव तो बालाकोट के नाम पर लड़ा गया था। परंतु अब तोमर जी कुछ दूसरी ही कथा सुना रहे हैं। परंतु प्रश्न यह है कि आखिर सरकार को किस बात पर भरोसा है कि वह इतने बड़े आंदोलन के बाद भी झुकने को तैयार नहीं है।
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सरकार को तो अपनी उस रणनीति पर भरोसा है जिसके सहारे वह पिछले छह वर्षों से सफल होती जा रही है। भाजपा किसानों के खिलाफ वही शतरंज की बाजी खेल रही है जिसमें अंग्रेजों की पुरानी बांटो और राज करो की रणनीति का उपयोग हो रहा है। अर्थात अब यह स्पष्ट होता जा रहा है कि सरकार पंजाब के सिख किसानों के विरुद्ध कुछ बोले, किसान संगठनों के साथ बातचीत कर इस आंदोलन में फूट पैदा करने की तैयारी में है। इस बात के आसार भी दिखाई पड़ रहे हैं कि कुछ किसान संस्थाएं सौदे के लिए तैयार भी हैं। स्पष्ट है कि जिन पूंजीपतियों की निगाहें किसानों की सोना उगलती जमीन पर लगी हैं, वे हजारों करोड़ रुपये अभी खर्च करने को तैयार भी होंगे।
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सरकार की रणनीति है कि एक बार किसानों में फूट डाल दी तो वह सिंघु बॉर्डर पर बैठे सिख किसानों को देश द्रोही, खालिस्तानी और टुकड़े-टुकड़े गैंग कहकर सिखों को देश द्रोही की छवि दे देगी। इस प्रकार सिख और हिंदू खाई उत्पन्न कर सरकार इस आंदोलन की कमर तोड़ देगी और लंबा क्रैकडाउन कर सिख किसानों के खिलाफ नफरत का सैलाब फैला देगी जो उसको चुनाव में भी सहायक सिद्ध होगा।
लेकिन अब यह सिंघु आंदोलन एक सभ्यता और एक षडयंत्री मानसिकता के बीच का संघर्ष बन चुका है। देखें, इस संघर्ष में अंतिम विजय सिंघु बॉर्डर पर जमे भोले-भाले किसानों की होती है अथवा शातिर चालों वाले बांटो और राज करो गिरोह की होती है।
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