केन्द्र सरकार के तीन नए कृषि कानूनों के विरोध में पंजाब से शुरू हुआ किसान आंदोलन अब अधिकांश राज्यों में फैल गया है। पंजाब, हरियाणा, उत्तर प्रदेश और राजस्थान के किसान दिल्ली की सीमा पर आंदोलनरत हैं। कई जगह से किसानों के जत्थे दिल्ली के लिए रवाना हो रहे हैं। शेष राज्यों के किसान अपने यहां किसान एकता कायम रखते हुए अपने-अपने तरीके से आंदोलन कर रहे हैं और इस भयानक ठंड में अपनी जान तक की कुर्बानी दे रहे हैं। वे कहते हैं कि मोदी सरकार द्वारा लाए गए तीन नए कानून उनके जीने-मरने का सवाल हैं। इनकी वापसी तक हम आंदोलन से पीछे हटने वाले नहीं हैं। हम पूरी तैयारी के साथ आए हैं।
इसके साथ ही किसानों को जिस तरह से वकीलों का, साहित्य और कला जगत का, खिलाड़ियों का, सेना के रिटायर फौजियों सहित समाज के हर तबके का समर्थन मिल रहा है, उससे यह साबित होता है कि किसान कहीं से भी भ्रम का शिकार नहीं हैं और न उनके साथ खड़े होने वाले लोग भ्रमित हैं। अगर कोई भ्रम का शिकार है तो वह केन्द्र सरकार है। उसके मंत्री और नेता हैं, जिन्होंने किसानों से चर्चा किए बिना ही मनमर्जी से ये कानून थोप दिए।
Published: 24 Dec 2020, 5:00 PM IST
इतना ही नहीं उन्होंने अपने मातृ संगठन राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ (आरएसएस) के किसान संगठन तक से बात नहीं की। ऐसे में जब किसानों का आंदोलन देशव्यापी बन गया और आम लोगों को केन्द्र सरकार की मंशा पर शक होने लगा तब सरकार का यह कहना कि किसानों से राय-मशविरा करके तीनों कानून बनाए गए हैं, गले नहीं उतरता है।
लगभग सात साल वाली केन्द्र की मोदी सरकार अपनी योजनाओं की लांचिंग के लिए जानी जाती है। इसकी असली वजह मीडिया की हर रोज प्रमुख हेडलाइन बनना है। लांच की गई योजनाएं कहां तक पहुंचीं, यह न सरकार देखना चाहती है और न इस काम की कभी जिम्मेदारी निभाने वाली पत्रकारिता। हालांकि योजनाओं की लांचिंग वाली बात को ज्यादा विस्तार न देते हुए बस एक घटना का जिक्र करना जरूरी है। साल 2018-19 के बजट में पहली मोदी सरकार के तत्कालीन वित्तमंत्री अरुण जेटली ने 22 हजार ग्रामीण मंडियों को बनाने की बात कही थी। यह देखकर कृषि विशेषज्ञों से लेकर किसानों तक में खुशी की लहर दिखी थी। खेती-किसानी के विशेषज्ञ लंबे समय से देश में 40 हजार मंडियों की जरूरत बता रहे थे।
Published: 24 Dec 2020, 5:00 PM IST
अब तक की व्यवस्था के बारे में बात करें तो लगभग 7600 मंडियां ही काम कर रही थीं, वो भी साढ़े तीन राज्यों (पंजाब, हरियाणा, कर्नाटक और उत्तर प्रदेश) में। इससे यह पता चलता है कि सरकारें अभी तक कृषि उत्पादों को बाजार तक पहुंचाने की उचित व्यवस्था विकसित नहीं कर सकीं। मंडी व्यवस्था का ढांचा किसानों की पहुंच में नहीं ला सकीं। इसका परिणाम यह हुआ कि खेती-किसानी पर लागत बढ़ने से यह क्षेत्र घाटे का सौदा बन गया। वहीं कृषि उत्पादों को मंडी अथवा बाजार तक पहुंचाने की समुचित व्यवस्था न होने से बिक्री का अधिकांश लाभ बिचैलियों के खाते में जाता रहा।
बजट में 22 हजार नई मंडियां बनाने की बात करने वाली सरकार ढाई वर्ष में कितनी मंडियां बना सकी, इसका आंकड़ा संसद में पूछे गए सवाल पर तो वह नहीं दे सकी, लेकिन नए कृषि कानूनों के जरिए पहले से स्थापित मंडियों को ध्वस्त करने की दिशा में उसने कदम अवश्य बढ़ाया है। सरकारें घोषणाएं करती हैं। बजट में ऐलान करके वाहवाही बटोरती हैं। लेकिन उनको अमलीजामा पहनाने में रुचि नहीं लेतीं। उनके ऐलान संचार माध्यमों में ‘सरकार चली गांव की ओर’ टाइप की प्रमुख लीड बन जाते हैं, लेकिन मंडियों को लेकर कितना काम हुआ, इसकी पड़ताल करने का काम संचार माध्यमों ने बिसरा दिया है।
Published: 24 Dec 2020, 5:00 PM IST
किसान नए कृषि कानूनों को लेकर जिस तरह की शंकाएं जाहिर कर रहे हैं, उसके छिटपुट परिणाम दिखने भी लगे हैं। यह सभी जानते हैं कि न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) का लाभ सबसे अधिक पंजाब और हरियाणा के किसानों को मिलता है। इन्हीं राज्यों में थोड़ा बहुत ही सही, पर मंडी व्यवस्था काम करती है। इस व्यवस्था में लगातार सुधार की मांग हो रही थी। स्वामीनाथन कमीशन की रिपोर्ट आने के बाद एमएसपी में सीटू का स्लैब देने की मांग उठ रही थी, लेकिन मोदी सरकार सुप्रीम कोर्ट में कह चुकी है कि वह एमएसपी में सीटू का स्लैब नहीं दे सकती। वह अभी एटू प्लस एफएल का स्लैब दे रही है, उसे भी गाहे-बगाहे खत्म करने की वकालत कर रही है। इसकी गवाही नीति आयोग का दस्तावेज और वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण के पुराने वक्तव्य दे रहे हैं।
हालांकि आंदोलन से घिरी सरकार अब इस बात की दुहाई दे रही है कि एमएसपी जारी रहेगी। वैसे एक बात पर गौर फरमाना चाहिए जिस एमएसपी को किसानी का अंतिम विकल्प माना जाता है उसका देश के महज 6 फीसदी किसान लाभ उठाते हैं। उसमें पंजाब और हरियाणा के ज्यादातर किसान हैं। रही बात दूसरे राज्यों की तो फसलों की खरीद उत्तर प्रदेश में भी होती है, लेकिन इसका आम किसानों को बहुत कम लाभ मिलता है, जिन्हें मिलता भी है उसमें पश्चिमी उत्तर प्रदेश के किसान अधिक हैं। हां, नेताओं, माफियाओं और जोर-जुगाड़ वालों को खरीदारी का शत-प्रतिशत लाभ मिलता है, लेकिन कागजों पर सारी व्यवस्था चाक-चौबंद दिखाई जाती है। रही बात बिहार के किसानों की तो उनके पास खोने को कुछ नहीं है। वहां सुशासनवादी सरकार ने 2006 में ही मंडी व्यवस्था को खत्म कर दिया है। ऐसे में इन दो बड़े राज्यों सहित देश के अधिकांश किसान बिचौलियों के हाथों औने-पौने फसल बेचने को मजबूर हैं।
Published: 24 Dec 2020, 5:00 PM IST
सवाल उठता है कि जिस व्यवस्था को दुरुस्त करने की मांग वर्षों से हो रही थी उसे दुरुस्त करने के बजाय उसे खत्म करने की दिशा में काम किया गया। इसके विपरीत अगर कोई राज्य किसानों के लिए कुछ बेहतर करने की दिशा में काम कर रहा है तो उसे केन्द्र की ओर से निशाना बनाया गया। कहा जाता रहा है कि एमएसपी से ज्यादा पैसा देना उचित नहीं है। इस संबंध में छत्तीसगढ़ की मौजूदा भूपेश बघेल सरकार का उदाहरण देना उचित होगा।
खेती किसानी को फ़िलहाल प्राथमिकता देनी वाली भूपेश बघेल सरकार देश में सबसे अधिक कीमत 2500 रुपए कुन्टल में धान की खरीद कर रही है। एमएसपी के बाद वाली राशि को बोनस राशि कहा जाता है, जो पूरी तरह से राज्य सरकार के जिम्मे होती है। उसके द्वारा दी जा रही यह कीमत स्वामीनाथन आयोग के सुझाए गए सीटू स्लैब के आसपास बैठती है। किसानों को मिल रही इस कीमत के कारण ही दो साल में धान बेचने वाले किसानों की संख्या 12.06 लाख से बढ़कर 18.36 लाख तक पहुंच गई है। पंजीकरण रकबा भी 24.46 लाख हेक्टेयर से बढ़कर 27.59 लाख हेक्टेयर तक पहुंच गया है।
अपने दो साल पूरे करने वाली भूपेश सरकार ने चुनाव के समय वादा किया था कि अगर वह सत्ता में आती है कि खेती से जुड़े कर्ज माफ करेगी। जनता ने उसे मौका दिया तो वादे का अनुसरण करते हुए उसने प्रदेश के 18 लाख किसानों का करीब 9 हजार करोड़ रुपए का अल्पकालीन कृषि ऋण माफ किया। वैसे तो तेलंगाना और मध्य प्रदेश में भी धान की खरीदारी पर बोनस देने का काम किया गया है। छत्तीसगढ़ में भी मौजूदा सरकार के पहले रमन सरकार ने भी कुछ बोनस दिया था।
Published: 24 Dec 2020, 5:00 PM IST
भूपेश बघेल सरकार इसी के साथ एक गोधन न्याय योजना चला रही है, जिसमें सरकार गोठानों से 2 रुपए किलो की दर से गोबर खरीद रही है। इससे जहां एक ओर जैविक खेती, पशुओं की देखभाल के साथ फसलों की सुरक्षा सुनिश्चित हुई वहीं दूसरी ओर किसानों की अतिरिक्त आय का यह जरिया बनी है। दावा किया जा रहा है कि इस योजना से अब तक 1 करोड़ 36 लाख गोबर विक्रेताओं को करीब 60 करोड़ रुपए का भुगतान किया गया है। राज्य के आदिवासी बहुल इलाकों को ध्यान में रखते हुए महिला स्वसहायता समूहों के माध्यम से सरकार 52 प्रकार के लघु वनोपज की खरीदारी कर रही है, जिसमें पहले 7 तरह की लघु वनोपज की खरीदारी ही होती थी। दो साल का लेखा-जोखा रखते हुए सरकार ने यह भी बताया कि जलकर के रूप में 17 लाख किसानों का 244 करोड़ रुपए का बकाया माफ किया गया है।
आम तौर पर देखा जाता है कि लोकसभा और विधानसभा चुनावों को ध्यान में रखकर किसानों को कुछ लॉलीपाप दिया जाता है। उसी के तहत योजनाओं का ऐलान किया जाता है, लेकिन मौजूदा छत्तीसगढ़ सरकार इस लिहाज से कुछ अलग इसलिए दिख रही है कि चुनाव के दो साल बाद भी वह किसानों को सबसे अधिक एमएसपी दे रही है। फिलहाल अभी सरकार को दो साल हुए हैं। उसका तीन साल का कार्यकाल बाकी है, फिर भी यह आंकलन तो अब किया ही जा सकता है कि योजनाओं का असल लाभ आम आदमी को कितना मिला।
वैसे सरकारें खेती-किसानी को लेकर अधिकांश घोषणाएं चुनावों को ध्यान में रखकर करती रही हैं। वे नहीं सोचती कि किसानों को फसलों पर अगर सही से लाभ देना है तो उन्हें खरीद की पूरी गारंटी लेनी होगी। अगर वह यह काम फ़िलहाल नहीं कर सकती तो उन्हें बाजार मूल्य और एमएसपी के अंतर की भरपाई करनी चाहिए, क्योंकि यह बात जगजाहिर है कि एमएसपी घोषित होने के बावजूद किसानों की फसलों की कुछ ही प्रतिशत खरीदारी होती है। इसके साथ ही वे छत्तीसगढ़ सरकार के बोनस देने के मॉडल को भी अपना सकती हैं।
(लेखक खेती-किसानी और मीडिया मामलों के विशेषज्ञ हैं और ‘तद्भव’ पत्रिका की विशेष पुस्तिका ‘किसान की पीड़ा’ के लेखक हैं)
Published: 24 Dec 2020, 5:00 PM IST
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Published: 24 Dec 2020, 5:00 PM IST