चुनाव आ गए हैं, सरकार नाकाम साबित हुई है, वादे पूरे नहीं कर सके, अगला चुनाव जीतने का भरोसा नहीं है, इसलिए फिर से राम पर भरोसा जताया जाने लगा है। हार की परछाईं देख हाथों के तोते उड़ गए तो संविधान और अदालत पर भरोसा टूट गया लगता है। ऐसे में परिवार के मुखिया ने आदेश दिया है कि कानून लाओ, मंदिर बनाओ।
राजनीतिक तौर पर तो यही यही संदेश निकलता है आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत के दशहरा रैली भाषण से। गैर राजनीतिक संगठन ने राजनीतिक दांव चल दिया है, बिसात बिछ गई है। साधू-संत तो पहले ही मंदिर निर्माण का पूरा कार्यक्रम तय करके बैठे ही हैं।
लेकिन सबका साथ, सबका विकास और अच्छे दिनों के वादे वाली पूर्ण बहुमत की सरकार के लिए ऐन चुनाव से पहले यह आदेश आया क्यों है? साथ ही सवाल ये भी हैं कि अगले साल होने वाले लोकसभा चुनाव को लेकर आशंका बहुत गहरे बैठ गई है? क्या अब संघ और बीजेपी दोनों का ही यह विश्वास डिग गया है कि अब तो पूर्ण बहुमत नहीं आने वाला? पीएम मोदी में अब वह करिश्मा नहीं रह गया जो वोट बटोर सके?
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सवाल इसलिए उठ रहे हैं क्योंकि आरएसएस ने जिस तरह राम मंदिर का मुद्दा सामने रखा है, वह एक नई रणनीति की तरफ इशारा कर रहा है। संघ प्रमुख ने कहा कि राजनीति के चलते राम मंदिर निर्माण नहीं हो पा रहा।
2014 के लोकसभा चुनाव में जब बीजेपी मोदी की अगुवाई में मैदान में उतरी तो उसके घोषणा पत्र में राम मंदिर आखिरी पन्ने पर था। देश के आम लोगों और खासतौर से मध्यवर्ग को आश्वस्त किया गया था कि आने वाली सरकार मंदिर-मस्जिद के झगड़े में नहीं पड़ेगी, और लोगों की जिंदगी बेहतर करने, देश की छवि सुधारने, भ्रष्टाचार और कालेधन से देश को मुक्त कराकर अच्छे दिन ले आएगी। कोई साढ़े चार साल तक राम मंदिर का मुद्दा कोने में पड़ा रहा, लेकिन 5 राज्यों के विधानसभा चुनाव और सिर पर आ गए लोकसभा चुनाव सामने देख राम मंदिर का मुद्दा आखिर पन्ने से निकल आया है।
चार साल तक सब इस मुद्दे पर सोए रहे। संघ भी, बीजेपी भी। लेकिन अब सरकार भी बोल रही है, साधू-संत भी बोल रहे हैं और अब संघ भी। ये सब खास मकसद और निश्चित लक्ष्य को ध्यान में रखकर किया जा रहा है।
आज हम कह सकते हैं कि मौजूदा मोदी सरकार हर मोर्चे पर विफल रही है। रोजगार, भ्रष्टाचार, कारोबार, सुशासन, कोई भी मोर्चा ऐसा नहीं जिस पर इस सरकार को कामयाब कहा जा सके।
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सस्ते कच्चे तेल में महंगे टैक्स की मार से पेट्रोल-डीज़ल के दामों में आग, खुदरा और थोक महंगाई दर में उछाल, रसातल में पहुंच चुका रुपया, शेयर बाजारों की उथल-पुथल में निवेशकों को लाखों करोड़ का चूना, नोटबंदी और जीएसटी से व्यापार ठप होना, उत्पादन गति का धीमापन, किसानों की दुर्गति, दलित आंदोलन और मुसलमानों में असुरक्षा की भावना, ये न तो सबका साथ-सबका विकास के लक्षण हैं और न ही अच्छे दिनों के। ऐसे में लोगों के बीच वोट मांगने जाएं तो किस मुंह से। इसलिए राम मंदिर मुद्दे को सामने लाया गया, क्योंकि यही भावनाएं उकसा सकता है और ध्रुवीकरण कर सकता है।
हाल के दिनों में आए सर्वे बता रहे हैं कि मोदी का तिलिस्म टूटा है, कई राज्यों में बीजेपी की हार अवश्यंभावी दिख रही है, लोकसभा सीटों की संख्या भी नीचे जाती दिख रही है, तो फिर दांव किस पर लगाया जाए।
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बीते एक साल का हिसाब-किताब देखें तो हर कोई सवाल पूछ रहा है कि आपने किया क्या है? लोगों की प्रतिक्रियाएं आ रही हैं कि कब तक पिछली सरकारों को कोसोगे, हमने तो आपको पीएम बनाया था, आपने हमें क्या दिया।
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तो घबराहट यही है कि मोदी वोट दिला नहीं पाएंगे, सरकार का कामकाज ऐसा है नहीं कि उसे सामने रख मतदाता को रिझाया जा सके, ऐसे में विकास से इतर ही कुछ खोजना था। और परिवार के मुखिया ने झाड़-पोंछकर राम मंदिर का मुद्दा सामने रख दिया।
जब संघ प्रमुख कहते हैं कि सरकार इस पर कानून लाए, तो अर्थ तो यही है कि सुप्रीम कोर्ट में इस मामले के होने के बावजूद न तो सरकार और न संघ को उम्मीद है कि उसके पक्ष में कुछ होने वाला है। संभावना है कि जब इसी महीने के आखिर में राम मंदिर पर सुप्रीम कोर्ट सुनवाई शुरु करेगा तो दिसंबर तक फैसला भी आ सकता है। लेकिन इससे पहले ही राम मंदिर का राग अलापना, सरकार और संघ की घबराहट ही परिलक्षित करता है।
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