फ़हमीदा रियाज़ का जाना भारतीय उपमहाद्वीप में विवेक और साहस की एक और आवाज़ का चले जाना है। भारत में उनकी शोहरत उस नज़्म की वजह से ज्यादा रही जिसके निशाने पर भारतीय उपमहाद्वीप का बढ़ता कट्टरपंथ था। यह एक चुटीली नज़्म है जो बहुत मासूमियत और सादगी के साथ इस बढ़ते कट्टरपंथ की ख़बर लेती है-
तुम बिलकुल हम जैसे निकले
अब तक कहां छुपे थे भाई
वो मूरखता वो घामड़पन
जिसमें हमने सदी गंवाई
आखिर पहुंची द्धार तुम्हारे
अरे बधाई बहुत बधाई
प्रेत धरम का नाच रहा है
कायम हिन्दू राज करोगे?
सारे उलटे काज करोगे
अपना चमन दराज़ करोगे
तुम भी बैठे करोगे सोचा
पूरी है वैसी तैयारी
कौन है हिन्दू कौन नहीं है
तुम भी करोगे फतवे जारी...
यह शायद 2000 का साल था जब फ़हमीदा रियाज़ ने दिल्ली में ऐटमी परीक्षणों के ख़िलाफ़ नज़्म सुनाई। करगिल के बाद भारत और पाकिस्तान के बीच इन सुलगते वर्षों में इस कविता ने अलग तरह का बवाल पैदा किया। कहते हैं कि जेएनयू में जब इसका पाठ हो रहा था तो कोई फौजी अफ़सर पिस्तौल निकालने लगा था। लेकिन फ़हमीदा के लिए ऐसे हालात नए नहीं थे। कम से कम 50 बरस से फ़हमीदा रियाज़ अपने लेखन से तमाम तरह के कठमुल्लेपन की नींद हराम कर रही थीं। याद कर सकते हैं कि वे किसी लोकतांत्रिक हिंदुस्तान में नहीं, लोकतंत्र को कुचलने वाले सैनिक शासकों से भरे पाकिस्तान में लिख रही थीं जहां लिखने के जोख़िम हमारे यहां से कई गुना ज़्यादा थे। 1970-80 के ही वे दशक थे जब पहले ज़ुल्फ़िकार अली भुट्टो घास खाकर ऐटम बम बनाने की बात करते हुए पाकिस्तान के राष्ट्रवाद को सान पर चढ़ा रहे थे और बाद में जिया-उल-हक ने उसे बिल्कुल इस्लामी राज्य में बदल डाला था। इस दौर में बहुत कम लेखकों में फ़हमीदा जैसा साहस था कि वे लिख सकें-
जो मुझ में छुपा मेरा गला घोंट रहा है
या वो कोई इबलीस है या मेरा ख़ुदा है
जब सर में नहीं इश्क़ तो चेहरे पे चमक है
ये नख़्ल ख़िज़ां आई तो शादाब हुआ है
1970 के दशक के शुरुआती सालों में जब उनकी नज़्मों का संग्रह ‘बदन दरीदा’ आया तो उन पर बेलिहाज होने के लगभग वैसे ही आरोप लगे जैसे कभी इस्मत चुगतई पर लगे थे। फ़हमीदा की शायरी लेकिन इससे बेपरवाह अपनी ऐंद्रीयता का भी रंग दिखाती रही-
ये कैसी लज़्ज़त से जिस्म शल हो रहा है मेरा
ये क्या मज़ा है कि जिस से है उज़्व उज़्व बोझल
ये कैफ़ क्या है कि सांस रुक रुक के आ रहा है
ये मेरी आँखों में कैसे शहवत-भरे अंधेरे उतर रहे हैं
लहू के गुम्बद में कोई दर है कि वा हुआ है
ये छूटती नब्ज़, रुकती धड़कन, ये हिचकियां सी
गुलाब ओ काफ़ूर की लपट तेज़ हो गई है
ये आबनूसी बदन, ये बाज़ू, कुशाद सीना
मिरे लहू में सिमटता सय्याल एक नुक्ते पे आ गया है
मिरी नसें आने वाले लम्हे के ध्यान से खिंच के रह गई हैं
बस अब तो सरका दो रुख़ पे चादर
दिए बुझा दो
लेकिन यह ज़िया-उल-हक़ का दौर था जब फ़हमीदा को अपने दुस्साहसी लेखन की असली क़ीमत चुकानी पड़ी। उन पर कई मुकदमे किए गए। उनके शौहर को गिरफ़्तार कर लिया गया और वे ख़ुद एक शादी के बहाने पाकिस्तान से भाग कर भारत आईं। अगले सात साल वे भारत में रहीं। उनके बच्चों की स्कूली पढ़ाई यहीं हुई। कहते हैं कि अमृता प्रीतम ने उनके लिए उस वक़्त इंदिरा गांधी से बात की थी। ज़िया-उल-हक़ की मौत तक वे वापस नहीं लौट सकीं। इस लिहाज से सात साल यह लेखिका दिल्ली की होकर रहीं, उसने दिल्ली पर एक प्यारी सी नज़्म भी लिखी। हालांकि, यह एक दिलचस्प तथ्य है कि उनका जन्म भारत के मेरठ में हुआ था।
फ़हमीदा रियाज के खाते में 15 से ज़्यादा किताबें रहीं। ‘पत्थर की ज़ुबान’ नाम से उनका पहला संग्रह 1960 के दशक में ही आ गया था। जिया-उल-हक़ के दौर पर आई उनकी किताब ‘अपना जुर्म साबित’ भी चर्चित रही। उन्होंने कई उपन्यास भी लिखे। रूमी का अनुवाद किया। सामाजिक आंदोलनों और ख़ासकर स्त्रियों के मुद्दे पर लगातार काम करती रहीं।
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दरअसल, फ़हमीदा रियाज़ याद और भरोसा दिलाती हैं कि सत्ता की बर्बरता साहित्य के मिज़ाज को बदल नहीं सकती। पाकिस्तान की कम से कम तीन शायरा ऐसी रहीं जिन्हें हिंदुस्तान में खूब पढ़ा और सराहा जाता रहा। फहमीदा से कुछ पहले पैदा हुई किश्वर नाहीद ने विभाजन की त्रासदी और हिंसा को बहुत करीब से देखा और इसके ज़ख़्म ताउम्र उनका जीवन दर्शन बनाते रहे, उनके संघर्ष को दिशा देते रहे। फ़हमीदा के कुछ साल बाद पैदा हुई परवीन शाकिर बेशक अलग मिज़ाज की शायरा थीं, लेकिन परंपरा को चुनौती उनके यहां भी मिलती है और उन्हें भारतीय उपमहाद्वीप में राजनीतिक बंटवारे के बावजूद सीमाओं के आर-पार समान रूप से सराहा जाता है।
फ़हमीदा रियाज़ इसी कड़ी का हिस्सा थीं। वे भारत लगातार आती-जाती रहीं, यह यकीन दिलाती रहीं कि सारी टूटन के बावजूद दोनों देशों के आम अवाम की बहुत सारी तकलीफ़ें साझा हैं, उनके बीच कोई ऐसी चीज़ है जो सारी राजनीति से बड़ी और ऊंची है। नागार्जुन, फ़ैज़, नाजिम हिक़मत जैसे कवियों के साथ वे एशिया की आवाज़ बनाती हैं।
एशिया की यह साझा आवाज़ दुर्भाग्य से इन दिनों खतरे में है, हांफ रही है। सारी दुनिया में जो कट्टरता बढ़ी है, उसका सबसे ज़्यादा साया दक्षिण एशिया की राजनीति और यहां के समाज पर दिख रहा है। ऐसे में फ़हमीदा रियाज़ का जाना एक बड़ी हूक पैदा करता है।
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