साल 2019 की पहली छमाही में कांग्रेस ने जमकर चुनाव प्रचार तो किया पर उसे मीडिया ने उतना जोरदार नहीं माना, जितना बीजेपी का था। इसकी कई राजनीतिक और आर्थिक वजहें थीं। लेकिन मुख्य वजह यह थी कि बीजेपी ने अपने पांच साल के शासन के दौरान हर संभव तरीके से अपने शीर्ष नेता की छवि एक अजेय योद्धा की बना दी थी, जिसके संग संघ परिवार की अक्षौहिणी ही नहीं अमित शाह सरीखे सबसे बड़े लड़ैया रणनीतिकार भी मौजूद थे।
बालाकोट के बाद मीडिया के हर मंच से जो रणनिनाद सुना गया, उसने चुनावी समुद्र में अचानक एक सुनामी पैदा कर दी। जब लहरें पागल घोड़ों की तरह लगाम तुड़ा रही थीं, तो समय नेतृत्व की सफलता की दाद देने का नहीं, ईमानदार एकजुटता से उसकी मदद का था। पार्टी अध्यक्ष ने इस्तीफा देकर मजबूती से बता दिया है कि उनको पार्टी की हार का जिम्मा लेते हुए त्यागपत्र देने से परहेज नहीं। शेष जिम्मेदार नेता अपनी अंतरात्मा का अनुसरण कर सकते हैं। कांग्रेस कार्यकारी समिति की बैठक या तो एक नया अध्यक्ष चुन ले, या एक सलाहकार मंडली को चुनकर उसे कमान सौंप दे।
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किसी भी पार्टी का समय-समय पर ढहना और उसकी पुनर्रचना की तजवीज करना उसकी मजबूती के लिए जरूरी है। सवा सौ बरस पुरानी कांग्रेस की कठिन समय पर पुनर्रचना का नारा भी न तो नया है, न ही वह गांधी परिवार के खिलाफ विद्रोह का प्रतीक है, जैसा विपक्ष और उसके मीडिया में बैठे भक्त लगातार कह रहे हैं। ऐसी मांगें हर पीढ़ी और तरह-तरह की वैचारिकता को पनाह देने वाली इस पार्टी में बाबा आदम के जमाने से उठती और निबटाई जाती रही हैं।
सौ बरस से भी पहले (1906 में) कुछ लोगों ने इसकी मांग करते हुए पार्टी (के सूरत अधिवेशन) में अध्यक्षीय भाषण तक नहीं होने दिया था। यह क्रम चलता रहा और पार्टी के भीतर होम रूल लीग, स्वराज पार्टी, फॉरवर्ड ब्लाक सरीखे ध्रुव बनते बदलाव की मांगें उठाते रहे, जिनपर विचार हुआ। कुछ फैसले लहे, कुछ नहीं, पर जब तक सब मिल कर गांधी जैसे नेता के साथ आजादी की लड़ाई लड़ रहे थे तब तक जिन्ना, मालवीय और सुभाष बोस से लेकर कम्युनिस्ट पार्टी तक के लिए कांग्रेस के इस निराले आशियाने (कबीर पंथी बोली में कहें, तो ‘वा घर न्यारा’) में पर्याप्त जगह रही।
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आजादी के बाद कुछ दल अलग भी हुए। मसलन जेपी और उनके कुछ मित्रों ने कांग्रेस तज कर अपनी अलग समाजवादी पार्टी बनाई। पर वह 1952 के चुनाव में साफ हो गई। कृपलानी भी बाहर निकले। स्वतंत्र पार्टी वाले पीलू मोदी आदि निकले, कृष्ण मेनन तक निकले। साठ के दशक में सदोबा पाटील के सामने अस्तित्ववादी सवाल उभरा कि उनमें और वाम झुकाव वाले मोहन धारिया या चंद्रशेखर में भला क्या समानता है जो वे सब एक ही पार्टी में रहें? वे जनसंघ से हाथ मिलाकर स्वतंत्र पार्टी के साथ एक दक्षिणपंथी ध्रुव रचना चाहते थे।
कालांतर में जगजीवन बाबू, शरद पवार, संगमा, नारायण दत्त तिवारी जैसे वरिष्ठ नेताओं ने भी मतभेद होने पर कांग्रेस से बाहर आकर अपने लिए अन्य दल या ठिकाने बना लिए। मीरा कुमार और तारीक अनवर बाहर जा वापस भी लौट आए। पर इस तमाम आवत-जावत से मूलधारा कांग्रेस बदली भले हो, सूखी नहीं, अधिकतर छोड़ने वाले दल ही सूख गए।
साफगो लिमये ने तो 60 के दशक में (शायद जबलपुर में) समाजवादियों को आड़े हाथों लेते हुए कह दिया कि क्रांति भावना खत्म होने के लिए तुम लोग सिर्फ कांग्रेस नेताओं को क्यों कोसते हो। दोष देना ही हो तो फूटपरस्त हिंदुस्तानी खून को दोष दो जिसने समाजवादी धड़े को संसोपा, प्रसोपा में और वाम दलों को तीन धड़ों में बांट दिया।
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पर सवाल है कि इस समय यह काम कौन कर सकता है? इंदिरा गांधी की हत्या के बाद तो पुराने कांग्रेसी राष्ट्रपति जैल सिंह ने तुरंत राजीव गांधी को प्रधानमंत्री पद की शपथ दिला दी थी, जिससे पार्टी हर तरह से सहमत रही। पर राजीव युग के भी जो बड़े नेता हैं उनकी छवि पिछले पांच सालों में बीजेपी और मीडिया ने जनता के बीच इंदिरायुगीन सिंडिकेट के नेताओं जैसी बना दी है। जो पद त्याग की बजाय शायद पार्टी को दो फाड़ कर सकते हैं। यह सच न भी हो, तय है कि कांग्रेस पार्टी अपना जो नया प्रमुख चुनेगी उसका मुख्य काम होगा कि वह इस वक्त पार्टी के भीतर पल रहे अनेक पीढ़ियों के भिन्न वैचारिक ध्रुवों के बीच एक सर्वसम्मत संतुलन बिंदु बन जाए, जैसे केसरीजी के बाद सोनिया बनीं थीं।
कांग्रेस क्यों बार-बार फीनिक्स पक्षी की तरह अपनी ही राख से दोबारा नई ताकत से उठ खड़ी होती है। यह मामला दरअसल सीधे भारत की आत्मा से जुड़ा हुआ है जिसे मध्य बिंदु की अनिवार्य मौजूदगी चाहिए तो चाहिए। इस बार तो खुद संघ प्रमुख ने कहा कि उनका लक्ष्य कांग्रेस मुक्त भारत के नारे को अंजाम देना कतई नहीं। हजारों सालों से (जब सामंती शासन था तब भी, और जब लोकतांत्रिक राज-समाज था तब भी) दुनिया के तमाम धर्मों, उनकी शाखाओं, प्रशाखाओं, उपशाखाओं, जातियों, उपजातियों, सैकड़ों तरह की जनपदिक बोलियों और दर्जनों शास्त्रीय भाषाओं को प्रेम से समेटने लायक एक डलिया बन कांग्रेस ने मुख्यधारा में सदियों से समेटा और एक दिल बनाया।
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क्या विधाता ने इस देश के मूल डीएनए में ही एकता और समन्वय के कई गुणसूत्र डाल रखे हैं? या शायद लगभग बराबर वजन की तरह-तरह की ताकतें जब किसी देश को अपनी-अपनी तरफ खींचने का चौतरफा जोर मारें, तो उस खींचतान के प्रताप से ही देश मध्य बिंदु पर आ टिकता है? इन सवालों का कोई साफ जवाब नहीं है पर यह सच है कि इस देश के सबसे प्रिय जननेता, सम्राट, दार्शनिक और धर्मप्रणेता हिंसक फूट से राज चलाने वाले नहीं बल्कि समन्वयवादी और सेकुलर रहे हैं।
सो आज जब मनु के नियमों और महाकाल के टाइम फ्रेम में समाज को ढालने के नाम पर संविधान आधारित लोकतंत्र और लेखन-भाषण की आजादी के बारे में उदारवादी नए सोच को तिरस्कृत, बहिष्कृत माना-बखाना जा रहा है, तो जामवंत के शब्दों में, ‘का चुप साधिर हेऊ बलवाना?’ पर इस बार भी कांग्रेसियों ही नहीं, समन्वयवादी विचारों और अभिव्यक्ति तथा धर्माचरण की आजादी के समर्थकों को एक बार फिर गिले-शिकवों से ऊपर उठकर हिम्मत से तूफानी हवाओं का सामना करना होगा। यह भी जरूरी है कि खुद कांग्रेस पार्टी अब अपने नेताओं और अधिवेशनों को अपनी काहिली और दब्बूपने की टनाओं पर पर्दा डालने के लिए इस्तेमाल करना बंद करे और अपनी काबिलियत मनवा चुके किंतु हाशिये में खड़े युवा खून को बुजुर्ग पीढ़ी उसका वाजिब दे।
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जरूरत होते हुए भी मध्यमार्गी विचारधारा को खतरे में डालने वाली कई ताकतें आज भी अजेय हैं। लाल थैले में लाए गए बजट को ही लें जो साल-दर-साल पेंडुलम की तरह अमीरों या गरीबों की चिंता के बीच दो ध्रुवों पर झूलता है। और सरकार सत्यनारायण कथा के वणिक् की तरह साल पहले के कई वादे भुला देती है।
इस बार वित्त मंत्राणी, किसान, जवान, नारी नारायणी की सेवा का नारा दे रही हैं, पर विशेषज्ञ कहते हैं कि बजट के प्रावधानों का युवा पीढ़ी और बड़ी मेहनत से पढ़-लिख पाई उन महिलाओं पर नकारात्मक असर पड़ेगा जो नोटबंदी और किसानी की बदहाली के बाद छटनियों की शिकार बनी हैं। 24 लाख खाली पदों को भरने के ऐलान की बजाय रिटायरमेंट की आयु सीमा बढ़ाने की घोषणा से सरकारी रोजगारों का दरवाजा भी हुनरमंद युवाओं के लिए बंद हो जाएगा, मध्य वर्ग पेट्रोल की कीमतों की बढ़ोतरी और कार निर्माता ईंधन पर नए सिरे से मिले निर्देशों से नाखुश हैं।
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दूसरी तरफ चुनावी मंदिर में प्रवेश द्वार यानी चुनावी खर्चे के ब्योरों में झूठ और नवनिर्वाचित नेताओं के बच्चों की हनक की खबरें हैं। एक नए नकोर बॉलीवुड अभिनेता सांसद के चुनावी खर्च के हिसाब से उजागर हुआ है कि उन्होंने मान्य सीमा से बहुत अधिक खर्च किया है। उल्लेखनीय है कि उन्होंने अपने प्राक्सी सांसद के बतौर एक व्यक्ति को नियुक्त करके संसदीय परंपरा में एक और अभिनव प्रयोग भी किया है। अन्य बड़े नेता के सुपुत्र सरेआम सरकारी अफसर को बैट से ठोक चुके हैं। दक्षिण के एक राज्य से कोई दर्जन भर से अधिक विधायकों को विमान में भरकर अन्य राज्य में पंचतारा होटल में दलबदल के प्रयास किए जाने की खबर है।
यह वक्त कांग्रेसियों के लिए हार की ईमानदार स्वीकृति सहित पद त्याग कर नई पहल का इंतजार करने का है। अपने इस त्याग से ही उनको गोडसे के महिमामंडन के बाद गांधी का नाम भुनाने के लिए गांधीपीडिया बनवाने का वादा करने वालों से यह सवाल करने की नैतिक ताकत मिलेगी कि क्या आपके पास भी कुछ विधायक ऐसे हैं, जो दाग लगते ही नैतिकता के पक्ष में पद त्याग करेंगे? क्या वे चुनाव आयोग के सामने स्वीकार करेंगे कि हां हमने चुनाव में सीमा से ज्यादा खर्च किया, हां हमने अपने उद्दंड साबित हुए बेटों को टिकट दिलवाए और उनको सजा से बचाया है, लिहाजा हमारी सीटें वापस ले ली जाएं?
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