सबका नंबर आएगा। कोई नहीं बचेगा। अभी-अभी प्रबीर पुरकायस्थ, उर्मिलेश, अभिसार शर्मा, परंजय गुहा ठकुराता, सुहेल हाशमी, तीस्ता सीतलवाड़ आदि का नंबर आया है, मगर बचेगा कोई नहीं! जो समझ रहा है, मैंने इनको गच्चा दे दिया, बच गया, उसका भी सूची में आगे-पीछे नाम है। किसी भी सुबह 6 बजे उसके घर छापा पड़ सकता है। उससे पूछताछ हो सकती है। उसकी किताबें, लैपटाप, मोबाइल सब जब्त हो सकते हैं, उसकी गिरफ्तारी हो सकती है। हिंदी के पत्रकार ही नहीं, लेखक भी सावधान रहें। अरुंधति राय का नंबर आता हुआ सा लग रहा है और अनेक हिंदी लेखक भले ही कितना शाकाहारी, नखदंतविहीन, निरापद सा लेखन कर रहे हों, नंबर उनका भी कब आ जाए, पता नहीं।
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अगर बुकर पुरस्कार अरुंधति राय को बचा नहीं पाएगा तो आपके-हमारे पुरस्कारों को कौन पूछता है? अरुंधति जी ने आज से 13 साल पहले कुछ कहा था। इससे न तब शांति भंग हुई थी, न अब हो रही है, न आगे होने वाली है। तब की सरकार को इससे परेशानी नहीं हुई थी तो क्या, इस सरकार को भी नहीं हो? संविधान में यह कहां लिखा है? कोई तर्क अब नहीं चलेगा। तर्कों का जमाना अब गया, आस्था का युग आ चुका है। सरकार की आस्था ही अब अंतिम तर्क है।
अब सुप्रीम कोर्ट की कोई पुरानी नज़ीर काम नहीं आएगी। कोर्ट में केस लंबित है, यह दलील काम नहीं करेगी। नंबर आया है, तो फिर आया ही है। पूछताछ-तलाशी में कुछ न कुछ तो मिल ही जाएगा। मार्क्स, गांधी, भगत सिंह, नेहरू आदि की किताबें तो किसी भी लेखक के यहां मिल सकती हैं। कबीर, गालिब, फ़ैज़, नेरूदा, नाज़िम हिकमत, ब्रेख्त, नागार्जुन आदि की कविताएं मिल सकती हैं। अपराधी सिद्ध करने के लिए इतना काफी है!
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बताया न इनके आगे कोई तर्क नहीं चलेगा! जिन्होंने नागपुरी 'बौद्धिक' से आजीवन 'ज्ञान' पाया है, उनके 'ज्ञान' के आगे सब तुच्छ है। कोई भी कल अर्बन नक्सलाइट, आतंकवादी, देशविरोधी, पाकिस्तान का एजेंट या चीनी पैसे से मौज उड़ाने वाला घोषित हो सकता है। भुगतते रहो अदालत में तारीखों पर तारीखें। बीस जगह केस दर्ज होंगे। भागते-दौड़ते रहना देश भर में। वकीलों का पेट भरते रहना, अपनी चिंता छोड़ देना।
अभी तक जो भ्रम में थे कि वे लेखक हैं, इसलिए नंबर नहीं आएगा मगर उनका नंबर भी लगा हुआ है। अधिक देर लाइन में लगने, टांगें दुखाने का कष्ट झेलना नहीं पड़ेगा! किसी भी सुबह दिल्ली पुलिसकर्मी घर पर दस्तक देंगे। अगले किसी भी दिन बारी-बारी से प्रवर्तन निदेशालय, आयकर विभाग, सीबीआई, ईडी के अधिकारी घंटी बजाने, बुलावा देने आ सकते हैं।
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न बचे हुए पत्रकार बचेंगे, न लेखक, न बुद्धिजीवी, न मानवाधिकार कार्यकर्ता, न अध्यापक, न छात्र, न वकील, न जज, न व्यंग्यकार, न कार्टूनिस्ट। न कांग्रेसी, न समाजवादी, न राजदवाले, न कम्युनिस्ट, न डीएमके वाले, न टीएमसी वाले। न किसान, न मजदूर, न व्यापारी। न बूढ़े पिता, न अम्मा, न बेटा, न बीवी, न बच्चे। जो बोला है और अब भी बोलता जा रहा है, उनमें से बहुतों का नंबर तो आ चुका है, बाकी भी तैयार रहें।
वे भी जो माने बैठे है कि मैं तो चुप था, चुप हूं और चुप रहूंगा, बच-बच के, पल्लू बचाकर आज तक चला हूं, किसी ने शर्मिंदा किया है, तो भी शर्मिन्दा नहीं हुआ हूं, उनका भी नंबर आएगा। उनका नंबर आएगा क्योंकि वे चुप थे, सरकार के समर्थन में नहीं आए थे। उनकी चुप का मतलब है कि वे मन ही मन विपक्ष के साथ हैं। जो अब समर्थन में आएंगे, उनसे पूछा जाएगा कि अब तक तुम कहां थे? अवसरवादी हो, राष्ट्रवादी नहीं, इसलिए उनका नंबर भी आएगा।
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जो पीठ फेरे बैठे रहे, जब भी बोले तो क्रिकेट, सिनेमा, कविता, संगीत ,पेंटिंग पर बोले, वे भी नहीं बचेंगे क्योंकि उन्हें बोलना आता है, मगर वे हिंदू राष्ट्रवाद पर चुप रहे, बोले नहीं। उन्होंने 'कश्मीर फाइल्स' और 'केरला स्टोरी' को घटिया फिल्म बताया था। कंगना रनौत को इक्कीसवीं सदी की रानी लक्ष्मीबाई नहीं माना था।
जिन्होंने गांधी की मूर्तियां नहीं गिराईं, उनका नंबर भी आएगा। जो नेहरू की किताबें आज भी खरीद रहे हैं, पढ़ रहे हैं, नेहरू के पक्ष में बोल रहे हैं, उनका भी नंबर आएगा। जो आज डरे हुए बैठे हैं, नतमस्तक हैं, मगर जो 2014 के बाद भी कभी शाखा में नहीं गए, उनका तीस बरस का रिकॉर्ड खंगाला जाएगा। जो किसी सोशल मीडिया पर किसी की सरकार विरोधी पोस्ट लाइक करते रहे हैं, उनका नंबर उसे लिखने वालों के साथ ही आएगा।
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जिन्होंने कभी भी इस सरकार को फासीवादी-बहुसंख्यकवादी कहा है, जिन्होंने 21 वर्ष पहले गुजरात नरसंहार का विरोध किया था, रोक के बावजूद बीबीसी की फिल्म देखी थी, लिंचिंग का विरोध किया था, नोटबंदी पर सवाल उठाए थे, कोरोना के दौर में सरकार की असफलता पर ज्ञान बघारा था, किसान आंदोलन का समर्थन और नागरिकता कानून का विरोध किया था, उनका नंबर भी आएगा।
जिन्होंने टमाटर की महंगाई पर सवाल उठाए, वे भी अब बचेंगे नहीं। जिन्हें भी लगता है कि 'अच्छे दिन' नहीं आए हैं, जो भी कहेंगे कि उनकी जेब में 15- 15 लाख रुपए नहीं आए हैं, कोरोना के दौरान नंगे पैर मीलों पैदल चलकर अपने गांव लौटते मजदूरों को देखकर जिसके मन में दर्द उठा था, जिन्होंने उनकी मदद की थी, वे भी बचेंगे नहीं।
जिन्होंने फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ की रचना 'हम देखेंगे' ही नहीं, ' ईश्वर-अल्लाह तेरो नाम, सबको सन्मति दे भगवान' गाना आज भी नहीं छोड़ा है, जो वैष्णव जन तो तेने कहिए पीर पराई जाणे रे अब भी गाते हैं, उनका नंबर अवश्य आएगा। और जो ऊपर की इन पंक्तियों को सरकारी संकल्प न समझकर, कोरा व्यंग्य समझ रहे हैं, वे भी भुगतने के लिए तैयार रहें!
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