विचार

‘न्यू इंडिया’ में जानलेवा है पर्यावरण संरक्षण, आवाज उठाने वालों के लिए खतरनाक देशों मे भारत का भी नाम 

पीएम मोदी पर्यावरण सुरक्षा को 5000 साल पुरानी परंपरा बताते नहीं थकते, लेकिन सच ये है कि ‘न्यू इंडिया’ में अवैध खनन और जंगल काटने के खिलफ आवाज उठाने वालों पर माफिया और संरक्षण प्राप्त हत्यारे गोली चलाते हैं, ट्रैक्टर चढ़ाते हैं या फिर दुर्घटना करवाते हैं।

फोटोः सोशल मीडिया
फोटोः सोशल मीडिया 

स्वच्छ पर्यावरण का मौलिक अधिकार हमें संविधान देता है और संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण भी लगातार इसकी वकालत करता रहा है। हमारे प्रधानमंत्री पर्यावरण सुरक्षा को 5000 साल पुरानी परंपरा बताते नहीं थकते। इन सबके बीच हकीकत यह है कि इसी देश के नए संस्करण, ‘न्यू इंडिया’ में अवैध खनन, जंगलों के कटने, बांधों के विरुद्ध आवाज उठाने वाले, साफ पानी और साफ हवा की मांग करने वालों पर पुलिस, भूमाफिया और सरकारी संरक्षण प्राप्त हत्यारे गोली चलाते हैं, कभी ट्रैक्टर चढाते हैं या फिर सड़क दुर्घटना करवाते हैं। इस न्यू इंडिया में यह सब इतने बड़े पैमाने पर किया जा रहा है की दुनिया भर में 21 देशों की उस सूची में जहां पर्यावरण संरक्षण करने वालों की हत्या की गई, उसमें भारत भी शामिल है।

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साल 2012 से ब्रिटेन के एक गैर-सरकारी संगठन, ग्लोबल विटनेस ने हरेक वर्ष पर्यावरण के विनाश के विरुद्ध आवाज उठाने वालों की हत्या के सभी प्रकाशित आंकड़ों को एकत्रित कर एक वार्षिक रिपोर्ट को तैयार करने का काम शुरू किया था। साल 2019 की हाल में प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार दुनिया में हर सप्ताह चार से अधिक पर्यावरण संरक्षकों की हत्या कर दी जाती है।

साल 2019 के दौरान दुनिया में कुल 212 पर्यावरण संरक्षकों की हत्या कर दी गई। मारे गए लोगों की यह संख्या किसी भी वर्ष की तुलना में सर्वाधिक है। सबसे अधिक ऐसी हत्याएं, कोलंबिया में 64, फिलिपिन्स में 43, ब्राजील में 24, मेक्सिको में 18, होंडुरास में 14, ग्वाटेमाला में 12, वेनेजुएला में 8 और भारत में 6 हत्याएं की गईं।

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भले 21 देशों की इस सूची में भारत का स्थान 6 हत्याओं के कारण 8वां हो, पर पर्यावरण और प्राकृतिक संसाधनों पर पैनी नजर रखने वाले इन आंकड़ों पर कभी भरोसा नहीं करेंगे। पर्यावरण संरक्षण का काम भारत से अधिक खतरनाक शायद ही किसी देश में हो। यहां के रेत और बालू माफिया हर साल सैकड़ों लोगों को मौत के घाट उतार देते हैं, जिसमें पुलिस वाले और सरकारी अधिकारी भी मारे जाते हैं। पर, इसमें से अधिकतर मामलों को दबा दिया जाता है और अगर कोई मामला उजागर भी होता है तो उसे पर्यावरण संरक्षण का नहीं बल्कि आपसी रंजिश या सड़क हादसे का मामला बना दिया जाता है।

इसी तरह, अधिकतर खनन कार्य जनजातियों या आदिवासी क्षेत्रों में किये जाते हैं। स्थानीय समुदाय जब इसका विरोध करता है, तब उसे माओवादी, नक्सलाइट या फिर उग्रवादी का नाम देकर एनकाउंटर में मार गिराया जाता है। बड़े उद्योगों से प्रदूषण के मामले को उजागर करने वाले भी किसी न किसी बहाने मार डाले जाते हैं। इन सभी हत्याओं में सरकार और पुलिस की सहमति भी रहती है।

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ग्लोबल विटनेस की रिपोर्ट के अनुसार कुल 212 हत्याओं का आंकड़ा दरअसल वास्तविक आंकड़ा नहीं है। हत्याएं इससे बहुत अधिक होती हैं, पर आंकड़े प्रकाशित नहीं किये जाते। यदि हत्या न भी हो, तब भी ऐसे लोगों को बिना किसी जुर्म के जेल में डाल देना या फिर देशद्रोही करार देना सामान्य है। भारत समेत अनेक देशों में ऐसे लोगों को आतंकवादी तक करार देने में सरकारें पीछे नहीं रहतीं। सबसे अधिक हत्याएं खनन, बांध, हाइड्रोकार्बन प्रोजेक्ट और कृषि आधारित उद्योगों के विरोध करने पर की जाती हैं।

रिपोर्ट के अनुसार दुनिया भर में सबसे अधिक, 50 हत्याएं, अवैध खनन का विरोध करने वालों की की गई। इसके बाद सबसे अधिक हत्याएं कृषि-आधारित उद्योगों का विरोध करने वालों की हुई और इन हत्याओं में से 80 प्रतिशत से अधिक एशिया, विशेष तौर पर फिलीपींस में की गईं। दुनिया में पर्यावरण संरक्षण करने वालों की जितनी हत्याएं होतीं हैं, उनमें से आधे से अधिक केवल दो देशों- कोलंबिया और फिलीपींस में की जाती हैं, जबकि कुल हत्याओं में से दो-तिहाई से अधिक दक्षिण अमेरिका में की जात हैं। पिछले साल अकेले कोलंबिया में 64 पर्यावरण संरक्षकों की हत्या की गई, जो 2012 से रिकॉर्ड रखने के समय से किसी भी देश के सन्दर्भ में सर्वाधिक आंकड़ा है।

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पर्यावरण संरक्षण के लिए अपनी जान गंवाने वालों में सबसे अधिक वनवासी और जनजातियों के लोग रहते हैं। पिछले साल कुल हत्याओं में से 40 प्रतिशत से अधिक ऐसे लोगों की हत्या की गई। ब्राजील में तो अब कई जनजातियां विलुप्तीकरण के कगार पर हैं। सबसे कम प्रभावित महाद्वीप यूरोप है, जहां रोमानिया में परंपरागत जंगल को बचाते हुए 2 लोगों की हत्या की गई। ये दोनों ही वन विभाग की रक्षा करने वाले सरकारी अधिकारी थे। दुनिया भर में कुल 19 ऐसी हत्याएं हुईं जिसमें जंगलों और प्राकृतिक संसाधनों की सुरक्षा करने वाले सरकारी कर्मचारी मारे गए।

दक्षिण अमेरिका के अमेजन क्षेत्र में कुल 33 हत्याएं की गईं और ब्राजील में होने वाली कुल हत्याओं में से 90 प्रतिशत से अधिक इसी क्षेत्र में की गईं। दक्षिण अमेरिकी देश होंडुरास में साल 2018 में पर्यावरण को बचाने वाले 4 लोगों की हत्या की गई थी, पर साल 2019 में यह संख्या बढ़कर 14 पहुंच गई। प्रति व्यक्ति उपलब्ध भूमि के सन्दर्भ में दुनिया के किसी भी देश की तुलना में होंडुरास में सर्वाधिक लोग मारे गए।

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रिपोर्ट के अनुसार, जब जलवायु परिवर्तन विकराल स्वरुप ले रहा है और पृथ्वी का तापमान लगातार बढ़ रहा है, तब पर्यावरण संरक्षण अधिक महत्वपूर्ण होता है, पर सरकारें और पूंजीपति उनके महत्व को लगातार अनदेखा कर रहे हैं। बड़ी संख्या में जनजातियों के लोग मारे जा रहे हैं या फिर जेलों में डाले जा रहे हैं, धमकाए जा रहे हैं, पर संयुक्त राष्ट्र की एक रिपोर्ट के अनुसार जनजातियां हमेशा से ही जंगलों को संरक्षित करती रही हैं।

दुनिया भर में जनजातियां जितने जंगल बचा रही हैं, उसमें प्रतिवर्ष पूरी दुनिया से कार्बन का जितना उत्सर्जन होता है, उसका 33 गुना से अधिक इन जंगलों में अवशोषित है। यानि जनजातियां जलवायु परिवर्तन रोकने में और तापमान वृद्धि कम करने में सबसे प्रमुख भूमिका निभा रहे हैं। इसके बाद भी दिसंबर 2015 के जलवायु परिवर्तन रोकने के पेरिस समझौते के बाद से हरेक सप्ताह औसतन 4 पर्यावरण संरक्षकों की हत्या की जा रही है।

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साल 2019 में जितने लोगों की हत्या पर्यावरण संरक्षण के नाम पर की गई, उसमें 10 प्रतिशत से अधिक महिलाएं हैं। महिलाएं हमेशा से ही प्राकृतिक संसाधनों की रक्षा करती रही हैं। बड़ी संख्या में महिलाओं की हत्या तो होती ही है, उनको बलात्कार और हिंसक झड़पों का सामना भी करना पड़ता है। अनेक महिला पर्यावरण संरक्षकों का चरित्र हनन कर उन्हें चुप कराने की साजिश की जाती है।

ग्लोबल विटनेस की राचेल कॉक्स के अनुसार वैश्विक स्तर पर भ्रष्टाचार, हत्यारे पूंजीवाद का प्रसार और प्राकृतिक संसाधनों की खुली लूट ने मानवाधिकारों का लगातार हनन किया है और प्राकृतिक संसाधनों की रक्षा करने वालों को अपना दुश्मन समझा है। यही कारण है कि सरकारें और पूंजीपति ही ऐसी हत्याओं को बढ़ावा देते हैं। दुखद तथ्य यह है कि महामारी के इस दौर में भी यह सिलसिला थमा नहीं है, जबकि तमाम अध्ययन इस महामारी की जड़ में प्राकृतिक विनाश को ही रखते हैं। प्रदूषण और पर्यावरण के विनाश से दुनिया भर में लोग मर रहे हैं, पर पर्यावरण संरक्षण भी कम जानलेवा नहीं है।

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