भारत की इलेक्टोरल बॉन्ड (चुनावी बॉन्ड) स्कीम को गैरकानूनी करार दे दिया गया है। इसे तानाशाही और सत्तावाद का प्रतिरोध करने वालों के लिए एक दुर्लभ जीत माना जा सकता है।
लेकिन, पिछले आम चुनाव समेत कई सारे चुनाव इन्हीं गैरकानूनी फंड यानी चंदे पर लड़े गए हैं। इस मुद्दे पर पहले ही सुनवाई कर निर्णय देना कहीं ज्यादा उचित होता, लेकिन अदालत ने ऐसा न करने का विकल्प चुना। राज्यसभा सीट से पुरस्कृत पूर्व मुख्य न्यायाधीश रंजन गोगोई से जब पूछा गया था कि उन्होंने इस मुद्दे पर फैसला देने में देरी क्यों की, तो उन्होंने कहा कि उन्हें याद नहीं है कि यह मुद्दा उनकी अदालत के सामने आया था।
कई लोगों को यह नहीं पता होगा कि चुनावी बॉन्ड का कारोबार कितना शरारतपूर्ण था और यह लेख ऐसे ही लोगों के लिए यह लिखा जा रहा है।
इस योजना की घोषणा मोदी सरकार ने 2017 के आम बजट के दौरान की थी,और ऐलान किया था कि चुनावी बॉन्ड राजनीतिक दलों के लिए गुमनाम दानदाताओं से पैसा हासिल करने का एक तरीका होगा। बॉन्ड खरीदते समय दानकर्ता को बैंक को अपनी पहचान बतानी होगी, लेकिन बॉन्ड पर पहचान उजागर नहीं की जाएगी। राजनीतिक दलों को भी यह बताने की आवश्यकता नहीं होगी कि यह बॉन्ड उन्हें किसने दिया।
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इसलिए मतदाताओं को यह नहीं पता चलेगा कि राजनीतिक दलों को कौन पैसा दे रहा है और किस हद तक प्रभावित कर रहा है। यह बदलाव विदेशी कंपनियों और यहां तक कि शेल कंपनियों (रहस्यमयी कंपनियां) को किसी को भी योगदान के बारे में सूचित किए बिना या अपना नाम उजागर किए बिना भारत की राजनीतिक पार्टियों को दान देने की अनुमति देगा।
इस बॉन्ड के जरिए कंपनी अधिनियम के उस हिस्से को भी ख़त्म कर दिया गया जिसके तहत कॉरपोरेट्स या औद्योगिक घरानों और कंपनियों को अपने वार्षिक खातों के विवरण में अपने राजनीतिक दान का ब्योरा देना होता था। अब उन्हें ऐसा करने की आवश्यकता नहीं रही।
बॉन्ड आने से पहले तक कॉर्पोरेट को पहले भी राजनीतिक दलों चंदा देने की इजाजत थी, लेकिन उसकी सीमा औसत तीन साल के शुद्ध लाभ के अधिकतम 7.5 प्रतिशत तक सीमित था। लेकिन बॉन्ड के बाद कोई रोकटोक नहीं, क्योंकि वे अब केवल चुनावी बॉन्ड के माध्यम से किसी भी राजनीतिक दल को कोई भी चंदा दे सरके थे, क्योंकि वह कानूनी सीमा हटा दी गी थी।
एक तरह से किसी भी राजनीतिक दल को गुप्त रूप से पैसे देने की प्रक्रिया को आसान बना दिया गया। बॉन्ड 29 शहरों में भारतीय स्टेट बैंक की शाखाओं में 1 करोड़ रुपये मूल्य तक उपलब्ध थे। कोई भी व्यक्ति या कंपनी चंदा देने के लिए अपने अपने बैंक खाते के माध्यम से इन बॉन्ड को खरीद सकता था और उन्हें अपनी पसंद की पार्टी या व्यक्ति को सौंप सकता था, जो उन्हें जारी होने के 15 दिन के अंदर कैश करा सकता था।
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2017 के आम बजट से चार दिन पहले, एक अफसर ने इसे वित्त मंत्री अरुण जेटली के बजट भाषण में देखा, और कहा कि इतने बड़े बदलाव के लिए रिजर्व बैंक की सहमति आवश्यक है। ऐसा करना इसलिए जरूरी था क्योंकि बॉन्ड की शुरूआत करने के लिए आरबीआई अधिनियम में बदलाव करना होता, लेकिन शायद सरकार को इसका अनुमान ही नहीं था। अधिकारी ने अधिनियम को बदलाव के साथ जोड़ने के लिए एक प्रस्तावित संशोधन का मसौदा तैयार किया और फ़ाइल को वित्त मंत्री के पास भेज दिया।
उसी दिन, यानी 28 जनवरी 2017 को शनिवार था, रिजर्व बैंक को पांच पंक्तियों का एक ईमेल भेजकर, बॉन्ड के मुद्दे पर टिप्पणी मांगी गई। अगले दिन इसका जवाब आया, यानी 30 जनवरी 2017 को। आरबीआई ने कहा कि यह एक बहुत खराब विचार है क्योंकि इससे रिजर्व बैंक के उस अधिकार का उल्लंघन होता जिसमें बियरर इंस्ट्रमेंट यानी कोई भी ऐसा बॉन्ड, जिसे कैश कराया जा सके, सिर्फ रिजर्व बैंक ही जारी कर सकता है। चूंकि यह बॉन्ड गुमनाम होंगे तो ऐसे में ये एक तरह से करेंसी बन जाएंगे जोकि भारत की नकदी में भरोसे को कम करेंगे।
इस बिंदु पर, आरबीआई की राय स्पष्ट थी: इसे सुविधाजनक बनाने के लिए कानून में संशोधन करना 'केंद्रीय बैंकिंग कानून के मूल सिद्धांत को गंभीर रूप से कमजोर कर देगा और ऐसा करने से एक बुरी मिसाल कायम होगी।'
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रिजर्व बैंक की दूसरी आपत्ति यह थी कि 'पारदर्शिता का इच्छित उद्देश्य भी प्राप्त नहीं किया जा सकता है क्योंकि इंस्ट्रूमेंट (बॉन्ड) के मूल खरीदार को पार्टी का वास्तविक योगदानकर्ता होना जरूरी नहीं है।' यदि व्यक्ति ‘ए’ ने बांड खरीदा और फिर उसे अंकित मूल्य या उससे अधिक पर किसी विदेशी सरकार सहित किसी अन्य इकाई को बेच दिया, तो वह इकाई इसे किसी पार्टी को उपहार में दे सकती है।
बेनामी बॉन्ड एक तरह का कैश ही हैं। आरबीआई ने कहा, 'बॉन्ड जो हैं वह बियरर बॉन्ड हैं और किसी को भी दिए जा सकते हैं, इसलिए, वास्तव में राजनीतिक दल को बॉन्ड किसने दिया यह पता ही नहीं चलेगा।' आरबीआई ने यह भी कहा, ‘इससे मनी लॉन्ड्रिंग कानून भी प्रभावित होगा।‘ आरबीआई के जवाब में आखिरी बिंदु यह था कि चुनावी बॉन्ड योजना के माध्यम से जो प्रस्तावित किया जा रहा है – यानी संस्थाओं के बैंक खातों से राजनीतिक दलों को पैसा भेजना इसे तो चेक, बैंक ट्रांसफर या डिमांड ड्राफ्ट के माध्यम से किया जा सकता है। ' एक स्थापित अंतरराष्ट्रीय प्रथा को बिगाड़ कर इलेक्टोरल बियरर बॉन्ड की कोई विशेष आवश्यकता या लाभ नहीं है।‘
इसके अलावा एक और संस्था चुनाव आयोग ने भी कहा कि चुनावी बॉन्ड एक खतरनाक स्कीम है। सुप्रीम कोर्ट में दाखिल हलफनामे में आयोग ने कहा कि राजनीतिक दलों को इलेक्टोरल बॉन्ड के जरिए चंदा देने वालों के नाम छिपाने से राजनीतिक चंदे की पार्दर्शिता के पहलू पर गंभीर नतीजे होंगे।
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चुनाव आयोग तो इस स्कीम को कानून बनने के बाद भी इसका विरोध करता रहा, हालांकि सुप्रीम कोर्ट ने सरकार की इस योजना को एक तरह की हरी झंडी दे दी थी।
जिन दो सबसे अहम संस्थाओं का इस बॉन्ड से लेना-देना था, उन्होंने अपना काम किया और स्कीम का विरोध किया। लेकिन इसे रोक नहीं पाईं।
हालांकि रिजर्व बैंक ने इस योजना पर अपनी प्रतिक्रिया तुरंत ही दे दी थी, लेकिन सरकार ने दलील दी कि आरबीआई का जवाब काफी देर से आया और तब तक फाइनांस बिल छप चुका था।
इलेक्टोरल बॉन्ड का मुद्दा लोकतंत्र में हमारी सांस्थानिक निगरानी की सीमा को उजागर करता है। जब कोई मजबूत सरकार तय कर ले कि उसे कुछ करना है, भले ही वह खतरनाक और असंवैधानिक ही क्यों न हो, इसे रोकने के लिए आंतरिक स्तर पर बहुत कम प्रतिरोध होता है।
अब सुप्रीम कोर्ट ने फैसला सुना दिया है कि यह स्कीम असंवैधानिक है, यह वह तथ्य है जो इलेक्टोरल बॉन्ड की थोड़ी-बहुत जानकारी रखने वाले किसी भी व्यक्ति को पता है। लेकिन इससे एक बात जरूर उजागर हो गई है कि हमारी संस्थाएं कितनी कमजोर हो चुकी हैं, भले ही देश में उनकी काफी अहमियत हो, लेकिन उनकी अनदेखी की जा रही है।
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