साल 2022 की शुरुआत में हुए पांच विधानसभा चुनावों के नतीजे भारतीय गणतंत्र की दशा-दिशा का साफ पूर्वाभास देते हैं। यह नतीजे निर्मम तरीके से देश को बता रहे हैं कि इनको देख कर विपक्षी नेताओं-चुनावी पंडितों का अंग्रेजी में, ‘हाय, रे हमारी नजरों के सामने पुराना रिपब्लिक विखंडित हो चला है’, का छाती कूट स्यापा करना बेकार है। ले-दे कर प्रजातांत्रिक चुनाव का यही आंगन देश में है। और आगे इसी में चुनाव आने पर सत्तारूढ़ और विपक्ष के सारे दलों को जनता के आगे मुजरा करना होगा। यहां नाचते हुए वे अपनी सामर्थ्य के हिसाब से सराहना पाएं या अपनी अयोग्यता से गिर-गिर कर भद्द उड़वाएं, तो आंगन को दोष देना बेकार है। चुनाव आयोग के जो तेवर हैं, उनसे जाहिर है कि मीडिया या आयोग के सामने आंगन के टेढ़ेपन की शिकायत करने पर हारे हुओं के आरोपों की त्वरित तटस्थ सुनवाई और फैसले से राहत मिलने की कोई खास संभावना नहीं है।
सर पर तिलक से लेकर बुलडोजर तक लगाए भाजपा समर्थक हमेशा की तरह मिठाइयां बांटते, गाल बजाते फिर रहे हैं। इन चुनावों के अंतिम चरण में यूक्रेन युद्ध से छात्रों की वापसी तक को मोदी सरकार की कुशलता का प्रमाण कहने के बाद पांच में से चार राज्यों में हुई अपनी पार्टी की जीत को भाजपा ने घरेलू ही नहीं, अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी महत्वपूर्ण साबित करने में देर नहीं लगाई। जब दुनिया विश्व यद्ध की कगार पर है, गोदी मीडिया के अनुसार भाजपा की यह बड़ी जीत निश्चय ही विश्व राजनय में भी दिल्ली के हाथ और ताकतवर बनाएगी।
अब सर पर दिन रात अन्य चार राज्यों में भी धर्म, जाति, भाषा के आधार पर प्रांतीय फूटपरस्ती, अस्थिर सरकारों से बिखराव की धमकियां नहीं रहेंगी, तो बड़ी हद तक सूबाई क्षत्रप अप्रासंगिक बन जाएंगे। और जब यह होगा तो ‘सबका साथ और सबका विकास’ बड़े से बड़े और छोटे से छोटे राज्यों में भी लागू करवाया जाएगा। विजय के क्षणों की ऐसी फतवेबाजी को आप चाहें तो सराह सकते हैं, और इसे भारतीय गणतंत्र में कांग्रेस युग का पटाक्षेप कह कर अब आगे की सुध लेय’ वाला रुख अपना सकते हैं।
आप कई एंकरों की तरह कह सकते हैं कि विपक्ष हिन्दू राष्ट्र को जबरन क्षेत्रीय दायरों में बांटता रहा है। विकास कार्यों में वह कभी पर्यावरण, तो कभी बाहरी बनाम लोकल के अड़ंगे लगा देता है। उधर, भाजपा सबको साथ लेकर चलने, सबका विकास करने की बात करती है। यही बात जनता को पसंद है। गरीबी बढ़ी तो इसकी जिम्मेदारी पुरानी विपक्षी सरकारों की है। धर्म की रक्षा हर कीमत पर हो, और धर्म बचा रहा, तो वह सबकी रक्षा करेगा, यह जनता की भी मूल सोच है। खंभा फाड़ कर नृसिंहावतार और गज की पुकार पर नंगे पैर गरुड़ चढ़कर स्वर्ग से उतर आने वाले रूपकों के बीच जीती रही सतत दुविधामयी हिन्दू जनता को धर्म के नाम पर शाहखर्ची इसी आधार पर बेची गई है।
जहां तक विपक्ष का सवाल है, वह आज सचमुच अनिर्णय की उस दहलीज पर खड़ा है जहां 1947 में था। उसे तय करना है कि हाथी के आकार की पार्टी के खिलाफ हाथी बन कर चले या नकली दीनता अपना कर मुंह में तिनका दबा ले और आरक्षित वन्य पशु की श्रेणी में आ जाए? 2022 में पंजाब के नतीजे विपक्ष की क्षमता और कमजोरियों की बाबत रोचक संकेत दे रहे हैं। पंजाब में केजरीवाल के नेतृत्व में आम आदमी पार्टी को पहली बार मात मिली थी और तब कहा गया था कि उस सूबे में या तो राज करेगा अकाली दल या फिर कांग्रेस। चुनाव पूर्व वहां जो कुछ इन दोनों दलों में हुआ, वह गिनाना बेकार है।
भाजपा को जीतने का यकीन तो न था लेकिन उसका सुख स्वप्न कांग्रेस मुक्त पंजाब देखने पर टिका हुआ था। पटियाला के महाराज अमरिंदर के कांग्रेस त्यागकर भाजपा की तरफ आने से दलीय हायकमान काफी बल्ले-बल्ले हुआ। लेकिन इस सूबे के मन में किसान आंदोलन और भाजपा द्वारा उस दौरान खालिस्तानी का लांछन लगाने से गहरे घाव पल रहे थे। नतीजतन जनता ने कांग्रेस के चंद नामी किंत झगड़ालू प्रत्याशी ही नाच के आंगन से बाहर नहीं किए, बादल परिवार के अजेय रहे मुखिया प्रकाश सिंह बादल और पटियाला में उतने ही अजेय घोषित अमरिंदर सिंह तक सब को बाहर कर दिया और ‘आप’ पार्टी को सत्ता में ले आए हैं।
‘आप’ को तृणमूल की ममता दीदी का वरदहस्त पहले ही मिला हआ है। और केजरीवाल तथा ममता स्वभावत: हार जीत की फिक्र बिना जोखिम उठाने में पारंगत हैं। दोनों गोवा चुनावों में भी एक साथ कूद पड़े। इसका एक मतलब यह है कि अगले चुनावों में भी उनकी यह युति तो कायम रहेगी ही, अगर यह गठजोड़ सधता दिखा, तो बहुत संभव है कि उसमें विपक्षी गठजोड़ का नाभिकीय चुंबक बनने लगे। तब 2024 तक कई अन्य महत्वाकांक्षी नेताओं का भी उनके साथ आना असंभव नहीं।
गिनाने को भाजपा के शासन तले बहुत कुछ अनहोना भी हुआ है। बैंकों का पटरा बैठा, कोविड ने लाखों जिंदगियां लील लीं, किसान आंदोलन ने सरकार को मजबूर कर दिया कि वह किसानी के नए काननू वापस ले ले। सिविल सर्विस, पुलिस हर कहीं नाफरमानी का दंड पाकर अफसरशाही बदहाल हुई। गोवध बंदी पर सख्ती से आवारा पशुओं की भीड़ बढ़ी और किसान परेशान हो गए। उधर, सांप्रदायिकता को नाना तरह के जत्थों ने इस कदर धुकाया और शासन उनकी ज्यादतियों की तरफ आंख मूंदे रहा। इससे अल्पसंख्यक अपने ही देश में लगातार बेगाने बनते चले गए।
फिर भी भाजपा की सफलता दिखा रही है कि सांप्रदायिक ध्रुवीकरण अब उत्तर भारत की रगों में गहराई से भिद गया है। इसलिए विपक्ष के लिए चुनौती महज एकचालकानुवर्ती राजग जैसी सत्ता पाने की नहीं, सत्ता के एक बेहतर स्वरूप को बनाने की है। उसके बाद वह समांतर सत्ता का खाका उसे मतदाताओं को उनकी भाषा में, उनके हितस्वार्थों के तहत सफलता से बेचना होगा। जमाना अब खुदरा दुकानों की शृंखला नहीं, एक मेगा मॉल चाहता है जहां उसकी तमाम जरूरतों के मुताबिक माल हो। जितना चंदन मोदी जी ने मस्तक पर लगाया, उससे दूना चंदन लगाना और जितने मंदिरों में उनकी शोभायात्रा दिखाई गई, उतने मंदिरों में मत्था टेकना गुमराह होते लोकतंत्र में मतदाताओं को किसी नई और बेहतर राह का भरोसा नहीं दिला सकता।
भाजपा को जो सत्ता इस बार मिली है, वह उसे सूबे से संसद तक अधिक ताकत देती है। पर इतिहास गवाह है कि इतनी सत्ता नेतृत्व और पार्टी को खतरनाक चारित्रिक सीखचों में नजरबंद करने वाली भी हो सकती है। कांग्रेस के युग में थैलीशाहों का सत्ता पर गहरा असर था। आज अमीर-गरीब की खाई भारत सहित सारी दुनिया में बढ़ गई है, और बढ़ेगी। नई तकनीक और कृत्रिम बुद्धि उसमें और भी अकल्पनीय इजाफा कर सकती है। मुट्ठीभर बेपनाह अमीर लोगों द्वारा उद्योग-व्यापार से मीडिया की मिल्कियत तक पर कब्जा करना लोकतंत्र में जन अभिव्यक्ति के खुले मंचों को क्रमश: बुझा रहा है। सिर्फ बुद्धिजीवियों की शुभकामनाओं से या नेताओं के नैतिक उपदेशों से आमदनी और सूचनाओं के लेन-देन की विषमता घटने वाली नहीं।
तनिक सोचें, अमीरों की हुकूमत ने इन चुनावों में क्या किया? सबसे पहले बहुत सस्ते स्मार्ट फोन चारेक महीने मुफ्त वापरने को बेचे। फिर वेतनभोगी मीडिया की मदद से शीर्ष नेता की छवि एक घट-घटव्यापी सामंती नाथ ‘दीनदयालु विपत संहारी’ की बनाई गई। कोविड के दौर में महामारी ही नहीं, वह छवि भी गांव-शहर हर कहीं जा पहुंची। जब रोग उतार पर आया, तो टीकाकरण की मार्फत फिर छवि को उभारकर यकीन दिलाया गया कि विधाता ने दर्द दिया, पर दवा सरकार मुफ्त देगी। इसके बाद आसान हो गया कि भूखे, बेरोजगार, गरीब अपने परिजनों की मौत और अपनी विपन्नता भुला दें।
इस बिंदु पर उनकी भीड़ को पंगत में बिठाकर उनके सामने पत्तलें बिछाकर महीने, दो महीने का मुफ्त लंगर खोल दिया गया। हर बार भूखों को अन्न, प्यासे को पानी देते हुए बाबा बर्फानी जैसी जय-जयकार मीडिया के सामने हर लाभार्थी से करवाई गई। जब जब जय-जयकार करते हुए वे ताजा परोसे पत्तलों पर टूटे, तो मीडिया ने कैमरे चालू कर दिए। चैनलों के मालिकों ने पहले ही सनिुश्चित करा दिया था कि शाम की चर्चा का विषय यही ‘हरि समान दाता कोउ नाहीं’ छवियां बन जाएं।
पर यहां पर आकर पूछना होगा कि ममता तथा दक्षिण के राज्यों को छोड दें, तो शेष देश का विपक्ष क्या इस दौरान अपने इलाके के गरीबों को अपनी गरीबी को पहचानना सिखा सका? जिस तरह हबसकर उत्तर प्रदेश से उत्तराखंड तक गरीबों ने मुफ्त राशन, मुफ्त सिलेंडर को थामा और कोविड के रोगियों या धरने के दौरान मरे किसानों की मौत को मध्यकालीन ‘करम गति टारे नाहिं टरै’ के एटीट्यूड से झेलकर भुला दिया, उससे साफ है कि लोकतंत्र जागने-जगाने के अवसर देता है। जागे हुओं को सत्ता के शेयर भी देता है। पर अगर किसी को नींद की सुई और ग्लूकोज का ड्रिप लगाकर लिटा दिया गया हो, तो उसको च्यूंटी काटकर, उल्टी करवाकर जगाना और उससे अपनी दुर्दशा के लिए मतदान की मार्फत जवाब तलब करवाना तो समझदार विपक्ष का ही उत्तरदायित्व होता है। पांच साल में चुनाव से महीना भर पहले सोते हुओं के सामने मंच पर जा-जाकर संविधान की दी अभिव्यक्ति की आजादी या मानवाधिकारों का वाचन अंतत: लोरी का ही काम करेगा। इन चुनावी नतीजों से यह कठोर सबक विपक्ष को सीख लेना चाहिए।
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