आम चुनावों के तमाम हो-हल्ले भरे फैलाव के बीच चौथे चरण के चुनाव के बाद एक छोटे से मध्यांतर का, विचारों की सरगर्मी और चुनावी भाषणों की गहमागहमी से थोड़ी सी फुरसत का वक्त है। आधे मत पड़ चुके हैं, और इस समय 2019 ने हमें अपने पुराने चुनावी इतिहास से भी मुक्त कर रखा है। कौन आ रहा है और कौन नहीं? इस पचड़े में हम नहीं पड़ेंगे। लेकिन तमाम नए-पुराने अनुभवों के परे हम अब एक ऐसे चौराहे पर खड़े हैं, जहां से अगली पीढ़ी के नेतृत्व के लिए कई नई राहें फूटती दिखने लगी हैं।
सात दशकों से सफेद बालों वाले नेतृत्व को चुनता आया देश, बार-बार ‘देश खतरे में है’, ‘सब लोग मेरे हक में वोट दो, मैं तुमको सुरक्षा दूंगा’ सुनते हुए अभी थमकेगा या अगले चुनाव में, यह अस्पष्ट है। अलबत्ता यह साफ है कि इस बार 2014 के उलट मतदाता सहसा तय नहीं कर पा रहा कि वह इस बार किसे चुन ले? जो हो, राजनेताओं की नई-पुरानी पीढ़ी के बीच का फर्क आंकना, नई आहटों को करीब से महसूस करना दिलचस्प है।
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तनिक सोचिए, आज के जो कद्दावर बुजुर्ग नेता हैं, उनमें से ज्यादातर आजादी के बाद की पैदाइश वाले हैं। और उनमें से ज्यादातर वे हैं, जिन्होंने 90 के दशक में अपनी असली ऊंचाई पाई है। जब नई पीढ़ी के राहुल, अखिलेश, तेजस्वी, ज्योतिरादित्य, सचिन पायलट, जय पांडा, योगी-साध्वी, किरन रिजिजू सीनियर स्कूल में रहे होंगे और आतिशी, कन्हैया कुमार और गौरव चड्ढा शायद प्री स्कूल में।
इतने (अपेक्षया) युवा नेताओं का क्षितिज पर उभरना भारत के मतदाता को बदस्तूर पुरानी शैली की सुरक्षात्मक पाली खेलते जाने और उनको परे कर नई चुनौतियों से नए नेताओं की अगुवाई में एक साहसी मुठभेड़ कर ही लेने के बीच चुनाव का नायाब मौका दे रहा है। जैसा कभी 60 के दशक के बीच लाल बहादुर शास्त्री की अकाल मृत्यु के बाद मिला था।
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उस समय विस्मयकारी ढंग से कांग्रेस के नंदा, चव्हाण और मोरारजी आदि वृद्ध महारथियों के बरक्स इंदिरा गांधी का उदय हुआ और ऑल इंडिया रेडियो पर अपने पहले भाषण में उन्होंने साफ कर दिया कि अगले बरस देश को कुछ तकलीफदेह तरीकों से नेहरू काल की आर्थिक नीतियों पर दोबारा सोचना होगा।
जाहिर था उनके विचार से किसी भी परंपरा में जीवट और उत्साही प्रयोगधर्मिता परंपरा को किसी भी कीमत पर जस का तस रखने की जिद से नेहरू नहीं बचाया जा सकता। नई चुनौतियों से मुकाबले की एक अक्खड़ तरह की जिद के साथ नई दुनिया में नाटकीयता के बिना मतदाता से, विश्व राजनय के अलमबरदारों और बाजारों से नए विचारों की अदलाबदली और नए संधिपत्र बनाना जरूरी है।
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इन चुनावों में विकृत भाषा, भ्रष्ट राज-समाज, और चरित्रहीन राजनीति से ऊबे बहसंख्य वर्ग के लोगों में फिर भी बार-बार ‘देश ही नहीं, तुम भी खतरे में हो!’ ‘परदेसियों की भीड़ से तुम्हारा आस्तित्व मिटने वाला है,’ की लगातार मिल रही चेतावनियां सुन-सुन कर कई यथास्थितिवादियों को शायद यह लग रहा है कि तूफान की तरह उमड़ती नई पीढ़ी की वैचारिकता और उसके तीखे सवालों से भिड़ने की बजाय, वे क्यों न एक बार फिर मुंह में तिनका दबाकर उसी मध्यकालीन हिंदुत्व की मांद की तरफ मुड़ जाएं जिसका सपना प्रचार माध्यमों पर लगातार गलाफाड़ तरीके से दिखाया जा रहा है।
लेकिन यह न भूलें कि देश में हाशिये में डाले जा रहे उन अल्पसंख्यक समुदायों, किसानों और बेरोजगारों की भी भारी तादाद है, जिनके लिए इस बार नेतृत्व चयन का सवाल सीधे उनके जीने मरने के सवाल से जुड़ रहा है।
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आज से सौ बरस पहले 1918 में जब दक्षिण अफ्रीका से लौटे मोहनदास करमचंद गांधी नाम के एक शख्स ने एक गुलाम और अंतर्मुखी घोंघा बनकर जी रहे राज-समाज में ‘स्वराज’ के एक ठोस यथार्थवादी ब्लूप्रिंट को अहिंसा, सत्य और ईश्वर-अल्ला की युति से कस कर जोड़ दिया था। 1857 की असफल क्रांति के बाद से दब्बू और डरे हए भारतीय समाज को समझने में समय लगा था कि लड़ाई जीतने के लिए सिर्फ बाहुबल और हल्लाबोल आक्रामकता नाकाफी हैं। अंतिम और स्थायी जीत के लिए रणक्षेत्र में उतरे महारथियों को अहिंसा का आत्मबल और नैतिक औचित्य भी चाहिए।
गांधी की उलटबांसी भरी रणनीति लोगों को तब समझ में आई जब उसने महा ताकतवर दमनकारी ब्रिटिश साम्राज्यवादी सरकार को अहिंसक आंदोलनकारियों पर डंडा-गोली चलाने और नेताओं को बार-बार जेल डालने के लिए विश्वपटल पर शर्मसार किया। और मीडिया की मदद से उसकी नींवें हिला दीं। आजादी पाने के बाद गांधी की निर्मम हत्या ने दिखा दिया कि देश के एक वर्ग का नेतृत्व, जिसने आजादी की लड़ाई में भाग नहीं लिया उल्टे अंग्रेजों के लिए मुखबिरी की थी, अल्पसंख्य समूह के साथ पुल बांधने और थप्पड़ खाकर भी दूसरा गाल आगे करने की गांधीवादी विचारधारा से तब भी बिलकुल सहमत नहीं थे, आज भी नहीं हैं।
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एक तरह से 2019 में हम एक बार फिर 1947 सरीखी चौखट पर खड़े हैं। एक राह भुजबल और बांटो और राज करो की तरफ जाती है, दूसरी सहअस्तित्व और सामाजिक समरसता की तरफ। आज हमारी राजनीति अगर बिलकुल भ्रष्ट और अनैतिक नजर आती है, तो इसकी वजह यह नहीं कि उसके पास आर्थिक या भौतिक साधनों की कोई गहरी कमी है। भौतिक रूप से शायद कभी इतने संपन्न नहीं थे जितने आज हैं।
यह सही है कि राजनीति की पहली जरूरत होती है सत्ता और शक्ति, जिसके बगैर वह कुछ नहीं कर सकती, और जिसके लिए एक महत्वाकांक्षी राजनेता सब कुछ कर सकता है। यहां तक कि वह उन लोगों को भी बार-बार धोखा दे सकता है जिनका नसेनी की तरह इस्तेमाल करके वह सत्ता में आया है। फिर भी भाई-भाई में फूट पड़वाकर पाई सत्ता में विवेक की जगह धौंस और सतत अशांति कोई नहीं चाहता। इसीलिए युधिष्ठिर वनवास चले गए और चंडाशोक ने भी उत्तर भारत को लहूलुहान करने के बाद बौद्ध बाना पहन लिया था।
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जब-जब देश ऐसे दोराहे पर खड़े हों उस समय बुद्धिजीवियों का संसार, जो लोगों के लिए विवेक की धरती पर नैतिक आयाम लगातार खोले रखता है, एक मानदंड बन जाता है। यह स्वाभाविक है कि हर एकाधिकारवादी, बाहुबल का पक्षधर नेतृत्व सबसे पहले इसी वर्ग को बदनाम कर खामोश करने की जुगत भिड़ाता रहता है। और अखिरकार ‘सिकुलर’ सरीखे अपमानबोधक विशेषणों से हनकाया गया यही वर्ग तमाम अफरातफरी के बीच भी संतलुन और उदारवादी नजरिए की मदद से दबे-कुचले लोगों के लिए लोकतंत्र को कुछ सहने लायक बनाता है। और कन्हैया की तरह समर्थ वर्ग के लिए भी यह अबाध आर्थिक-सामाजिक ताकत को उपहास नहीं शर्म का विषय बनाता है।
एक सच्चा बुद्धिजीवी कबीर की तरह धर्म-जाति निरपेक्ष नैतिक टीले से चौतरफा देखता है। ‘जागते रहो !’ की खंखार लगाने वाले चौकीदार की तरह डंडा लेकर नहीं, एक रचनाकार और आलोचक की सजग मानवीय दृष्टि से वह मानवीयता की रक्षा करता है और बेहतर करता है। बुद्धिजीवी वर्ग की इस मानवकेंद्रित चौकसी से आशंकित सत्ता की कोशिश रहती है कि येन-केन वह बुद्धिजीवियों की गरदन पर राजनीति या पुरस्कारों या पद के लालच का जुआ धरकर उनको झुका दे।
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हमारे समय की पत्रकारिता (जिसे किसी ने ‘हड़बड़ी में रचे जाते साहित्य’ की संज्ञा दी है) को झुकाने में सत्ता काफी हद तक सफल नजर आती है। और मीडिया का वह बिका हुआ हिस्सा रचनात्मक बिरादरी की तुलना में छिछले फिल्मी साक्षात्कारों, मसखरी की सीमा तक जाती बतकही से अपनी नैतिकता का शर्मनाक स्खलन पेश कर रहा है। ऐसा तानाशाहपरस्त मीडिया प्रचार का अच्छा माध्यम भले बन जाए, पर खुद सत्ता को फर्शी सलाम करते-करते उसके पास मानवीयता की सारी पूंजी चुक जाती है और आगे इतिहास में उसका लिखा, बोला सिरे से मूल्यहीन और बेअसर दिखाई देता है।
चुनाव की धारा हमेशा अपने साथ बहुत सारा कीचड़ कांदा, सेवार और मिट्टी बहा लाती है, लेकिन फिर भी कभी-कभी नदी का जल कुछ देर के लिए स्थिर और पारदर्शी बन जाता है। ऐसे ही कुछ क्षणों में जब हम मिले जुले राज समाज की छानबीन साहस के साथ करते हैं, तो उस जल में हमको अपने समय की कड़कती हुई तस्वीरें नजर आती हैं : कुछ निष्कलंक आदर्श से भरी, कुछ छल-कपट और विनाशक राजहठ से छलकती हुई। बतौर मीडिया के अंग के, इससे आंख मिलाना खुद भी गहरी तकलीफ से गुजरना है। पर क्या करें? इसको समझने और सचाई से सीधा साक्षात्कार करने के बाद ही वह विवेक पैदा होता है, जो चुनावी कोलाहल के बीच सही चुनने की राह दिखाए।
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