वैसे तो बजट का यह पक्ष सदा महत्वपूर्ण रहा है कि उसका गरीब और पिछड़े वर्ग की सामाजिक सुरक्षा पर क्या असर पड़ता है, लेकिन कोविड और लाॅकडाउन के बाद यह पक्ष और महत्वपूर्ण हो गया है। इस नजरिए से देखें तो मोदी सरकार का वर्ष 2023-24 का बजट बेहद निराशाजनक रहा है।
नरेगा संघर्ष मोर्चा और पीपल्स एक्शन फाॅर एम्पलाॅयमेंट गारंटी दो ऐसे संगठन हैं जो मनरेगा की स्थिति पर पैनी नजर रखते हैं। उन्होंने बजट पेश होने से मात्र एक दिन पहले बताया है कि यदि कार्य की मांग करने वाले लोगों की मौजूदा स्थिति को देखते हुए उन्हें विधि सम्मत सौ दिनों का रोजगार देने की व्यवस्था करनी हो तो मनरेगा के लिए वर्ष 2023-24 में 2,71,862 करोड़ रुपए का बजट चाहिए होगा। इन संस्थाओं ने यह भी बताया है कि इससे पहले कम बजट के आवंटन के कारण प्रायः 100 की जगह 40 दिनों का रोजगार ही मिल पाया। इस स्थिति में जब हम यह देखते हैं कि नवीनतम बजट में मात्र 60,000 करोड़ रुपए का ही आवंटन किया गया जबकि पिछले वर्ष का संशोधित अनुमान 89,400 करोड़ रुपए का था तो यह साफ बेहद निराशा की स्थिति है।
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इस बात की बहुत चर्चा है कि खाद्यान्न निशुल्क दिया जा रहा है। पर यदि हम राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा कानून के अंतर्गत भारतीय खाद्य निगम को दी जाने वाली सब्सिडी को देखें तो इस सब्सिडी में पिछले वर्ष के संशोधित अनुमान की अपेक्षा भारी कमी आई है। इसी तरह यदि हम इस कानून के अंतर्गत विकेन्द्रीकृत खाद्यान्न खरीद के लिए दी जाने वाली सब्सिडी को देखें तो पिछले वर्ष के संशोधित अनुमान की अपेक्षा इसमें भी कमी आई है। जहां तक प्रधानमंत्री पोषण स्कीम का सवाल है तो इसमें भी पिछले वर्ष के संशोधित अनुमान की अपेक्षा कमी आई है। इस तरह खाद्य और पोषण के क्षेत्र में बजट ने निराश ही किया है।
यदि हम श्रम मंत्रालय के अंतर्गत केन्द्रीय सेक्टर की योजनाओं को देखें तो उनके बजट में कमी आई है। विशेषकर आत्मनिर्भर भारत रोजगार योजना, श्रम कल्याण स्कीम और राष्ट्रीय बाल मजदूर योजना के लिए पिछले वर्ष के आवंटन की तुलना इस वर्ष के आवंटन से करें तो इसमें महत्त्वपूर्ण कमी आई है। इसी तरह यदि हम कृषि और किसान कल्याण विभाग की केन्द्रीय सेक्टर की स्कीमों के बजट को देखें तो इसमें कमी आई है। यदि हम अल्पसंख्यक मामलों के मंत्रालय को देखें तो इसकी केन्द्रीय सेक्टर की स्कीमों में महत्वपूर्ण कमी आई है।
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ऑक्सफैम इंडिया की हाल ही में जारी विषमता रिपोर्ट के अनुसार आय और संपत्ति की विषमता बढ़ने के बीच भारत के गरीब लोगों को दुख-दर्द से राहत नहीं मिल पा रही है। सबसे अधिक गरीब लोग 22.8 करोड़ की संख्या में इसी देश में हैं। अर्थव्यवस्था के उतार-चढ़ाव, खाद्यों और ऊर्जा कीमतों में वृद्धि से भी वे प्रभावित हैं। महंगाई के दौर में अपेक्षाकृत अधिक वित्तीय भार उन पर पड़ता है और समाज का ध्रुवीकरण बढ़ता है- धनी और दौलतमंद होते हैं और निर्धन अधिक कमजोर होते हैं। केंद्र सरकार ने सर्वोच्च न्यायालय को दिए अपने प्रस्तुतीकरण में बताया है कि वर्ष 2022 में 5 से कम आयु के बच्चों की जो मौतें हुईं उनमें से 65 प्रतिशत कुपोषण के कारण हुई।
ऑक्सफैम इंडिया रिपोर्ट ने आगे बताया है कि यदि जनसंख्या के निचले 50 प्रतिशत हिस्से को देखें, तो राष्ट्रीय आय में उसका हिस्सा मात्र 13 प्रतिशत रह गया है, जबकि संपत्ति में उसका हिस्सा मात्र 3 प्रतिशत रह गया है। इतनी अधिक विषमता भारत जैसे देश में और भी चिंताजनक है जहां अधिकांश व्यक्ति गैर-अनौपचारिक रोजगार में हैं, जिनके रोजगार सुरक्षित नहीं हैं, जिनमें निश्चित वेतन और सामाजिक सुरक्षा नहीं है।
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राष्ट्रीय अपराध अनुसंधान ब्यूरो के अनुसार वर्ष 2021 में औसतन प्रतिदिन 115 दिहाड़ी मजदूरों ने आत्महत्या की (जिनका रोजगार बहुत असुरक्षित है)। इसके अतिरिक्त महामारी से उत्पन्न आर्थिक समस्याओं और अधिक महंगाई के कारण परिवारों का कर्ज बढ़ गया है। रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया के अनुसार वर्ष 2022 में जून के अंत तक देश में व्यक्तिगत कर्ज 35.2 ट्रिलियन रूपए तक बढ़ गया है। इसी समय ब्याज दर बढ़ने लगी और खुदरा स्तर पर महंगाई 7.4 प्रतिशत तक पहुंच गई।
यदि हम इन सब तथ्यों को ध्यान में रखें तो यह स्थिति और स्पष्ट हो जाती है कि निर्धन और जरूरतमंद लोगों को राहत देने का एक बड़ा अवसर केन्द्र सरकार ने गवां दिया है। जैसा कि ऑक्सफैम इंडिया रिपोर्ट ने बताया है कि महामारी से पहले केंद्र सरकार ने कॉरपोरेट टैक्स में 30 प्रतिशत से 22 प्रतिशत की कमी की, जबकि नई कंपनियों पर यह कमी 15 प्रतिशत तक की गई। इसके कारण पहले वर्ष में कॉरपोरेट टैक्स में 16 प्रतिशत की कमी आई। 2 वर्षों में इससे 1.84 लाख करोड़ रुपए की क्षति हुई। वर्ष 2020-21 में जमा कॉरपोरेट टैक्स 2016-17 से भी कम था, 2019-20 का 82 प्रतिशत और 2018-19 का 68 प्रतिशत था।
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वर्ष 2021 के आंकड़ों से पता चलता है कि कंपनियों ने अपने मुनाफे को पुनः निवेश नहीं किया। राजस्व की क्षति आरंभिक अनुमानों से कहीं अधिक थी। परिणामस्वरूप करों का अधिक बोझ कॉरपोरेट की जगह व्यक्तिगत आयकर दाताओं पर पड़ा। यह कॉरपोरेट के बढ़ते मुनाफे के बावजूद हुआ- पिछले वर्ष की अपेक्षा 2021-22 में मुनाफे में 70 प्रतिशत वृद्धि हुई जबकि इस समय 84 प्रतिशत परिवारों की आय में कमी आई। यह टैक्स कटौती अनुचित नीति प्रमाणित हुई। इसने आपूर्ति बढ़ाने को प्रोत्साहन ऐसे समय दिया जब जरूरत तो मांग बढ़ाने की थी। अनेक कंपनियों ने जो राहत मिली, उसका बेहतर इस्तेमाल करने या निवेश करने के स्थान पर केवल मुनाफा बढ़ाने या कर्ज चुकाने के लिए किया।
इन्हीं प्रवृत्तियों को आगे बढ़ाते हुए इस बार भी अधिक संसाधन जुटाने के लिए केन्द्रीय सरकार ने प्रगतिवादी बजट नीति नहीं अपनाई औक अधिक धनी व्यक्तियों पर आयकर तो कुछ कम ही कर दिया। इस तरह तो विषमता दूर नहीं होगी और गरीबी दूर करने के लिए संसाधन भी नहीं प्राप्त हो सकेंगे।
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