हमारी अदालतों का रवैया हाल के दिनों में उन 'अपराधियों' को भी जमानत देने में बेहद सख्त रहा है, जिनके ‘अपराध’, हरकतों या रिकॉर्ड से समाज या राष्ट्र के लिए खतरा होने का कोई विश्वसनीय सबूत नहीं मिलता है। कानूनी विद्धानों और हमारे सुप्रीम कोर्ट के विद्वान न्यायाधीश बार-बार कहते रहे हैं कि यह हमारे संविधान में निहित व्यक्तिगत स्वतंत्रता का उल्लंघन है।
जस्टिस वी आर कृष्णा अय्यर ने (राजस्थान बनाम बालचंद केस) 1977 में फैसला सुनाया था कि कानूनी कार्यवाही में 'जमानत, न कि जेल' (प्रतिवादी के लिए) डिफ़ॉल्ट सेटिंग यानी आम सिद्धांत होना चाहिए। लेकिन इस फैसले के लगभग 45 साल बाद भी इस सिद्धांत को हमारी आपराधिक न्याय प्रणाली द्वारा बड़े पैमाने पर अनदेखा किया गया है। संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत स्वतंत्रता के अधिकार की अनदेखी या एक तरह से उल्लंघन करते हुए जिला अदालतें सबसे कम खतरनाक अभियुक्तों या ऐसे आरोपियों, जिनसे किसी किस्म का खतरा नहीं है, उन्हें भी जमानत देने से कतराती हैं।
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अभी पिछले साल जून 2021 में जरीना बेगम बनाम मध्य प्रदेश केस में मध्य प्रदेश हाईकोर्ट के जस्टिस अतुल श्रीधरन ने कहा था कि जिला स्तर की न्यायपालिका को यह पता लगाना चाहिए कि क्या आरोपी समाज के लिए खतरा है, क्या उसने कोई जघन्य अपराध किया है या फिर सबूतों के साथ छेड़छाड़ करने या उसके फरार होने की संभावना है। बाकी सभी मामलों में बिना किसी प्रश्न के जमानत दी जानी चाहिए और आरोपी से उच्च न्यायिक सीमा की मांग नहीं की जानी चाहिए।
जरीना बेगम बनाम मध्यप्रदेश मामले में जस्टिस श्रीधरन की टिप्पणी के ठीक एक साल बाद सुप्रीम कोर्ट के न्यायमूर्ति संजय किशन कौल और न्यायमूर्ति एम एम सुंदरेश ने सिद्धांत में संभावना देखते हुए इसे कानून बनाने का कारण महसूस किया। सतेंदर कुमार अंतिल बनाम केंद्रीय जांच ब्यूरो (सीबीआई) केस में फैसला देते हुए उन्होंने केंद्र सरकार से जमानत के आवेदन पर एक कानून बनाने का आग्रह किया, ताकि इस मौलिक स्वतंत्रता के बार-बार और नियमित रूप से हनन से भारत "पुलिस स्टेट" में न बदल जाए।
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अभी 11 जुलाई को विद्धान जजों ने इस बात को नोट किया कि कई मामलों में जांच एजेंसियां किसी केस की जांच में अपने मनमुताबिक समय लेती हैं और यहां तक कि आरोप तय करने में भी काफी समय लगता है। जजों ने कहा कि कई बरसों तक जमानत न मिलने के बाद किसी आरोपी का बरी हो जाना बुनियादी अधिकारों का सीधा-सीधा उल्लंघन है। इसमें जजों ने आगे जोड़ा था कि आज पुलिस का रवैया ब्रिटिश काल जैसा हो गया है। पहली बार 1882 में अस्तित्व में आई दंड प्रक्रिया संहिता आज भी न्याय की संहिता बनी हुई है और इसके तहत न्याय देने में अनिश्चतता बनी हुई है।
भारत एक तरफ अभी तक उस पुरातन कानून से जुड़ा हुआ है (कई संशोधनों के बाद भी यह कानून एक तरह के समय चक्र में ही फंसा अटका हुआ है), वहीं यूनाइटेड किंगडम ने 1976 में एक जमानत अधिनियम बनाया जिसमें जमानत देने की प्रक्रिया को निर्धारित किया गया। इस अधिनियम के तहत जमानत के 'सामान्य अधिकार' को मान्यता दी गई है। अगर जमानत नामंजूर की जानी है तो इसकी जिम्मेदारीअभियोजन पक्ष पर है कि वह साबित करे कि उसके पास इस बात के पर्याप्त सबूत है कि आरोपी को जमानत दिए जाने से वह नया अपराध कर सकता है, या सबूतों के साथ छेड़छाड़ कर सकता है या गवाहों को वर्गला सकता है।
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दूसरी ओर, भारत में ऐसे पत्रकारों और अधिकार कार्यकर्ताओं (एक्टिविस्ट्स ) को जमानत देने से इनकार किया जा रहा है जो सरकार को लेकर आलोचनात्मक रहे हैं। इन्हें जमानत न दिए जाने के लिए पुलिस ऐसे-ऐसे तर्क सामने रखती हैं जिनका कोई अर्थ नहीं होता और यहां तक हमारे यहां लागू उस पुरातन कानून के दायरे में भी यह तर्क सही नहीं बैठते।
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कुल मिलाकर, हमारी अदालतों ने जमानत को एक विशेषाधिकार के रूप में देखने का रवैया अपना रखा है, जिसमें सिर्फ उन लोगों को ही जमानत दी जाती है जो हर मायने में ‘संपन्न’ हैं, और जमानत देने का आधार ऐसा होता है जो साधारण लोगों को भी बेतुका लग सकता है। जब न्यायिक प्रणाली ही एक तरह से गैरजरूरी और अनुचित हिरासत और जेल को स्वीकार करने लगे तो इसका यही संकेत है कि कोई भी सुरक्षित नहीं है। वरिष्ठ अधिवक्ता संजय हेगड़े ने सही ही लिखा था: 'स्वतंत्रता अविभाज्य है, और जिन पर इसकी सुरक्षा का जिम्मा है, वे अक्सर यह समझने में विफल होते हैं कि वे किसी जांच एजेंसी और संसाधनों को नागरिकों के खिलाफ इस्तेमाल की जो भी अनुमति देते हैं वह बाद में उनके जैसे लोगों के साथ भी किया जा सकता है।'
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