पिछली तिमाही में भारतीय अर्थव्यवस्था की जीडीपी दर घटकर केवल पांच प्रतिशत रह गई। देश में बेरोजगारी पिछले चार दशकों में सबसे उच्च स्तर पर पहुंच गई। अकेले कार और ऑटोमोबाइल सेक्टर में साढ़े तीन लाख लोग बेरोजगार हो गए हैं। बाजार में मंदी का यह हाल है कि दुकानदार दुकानों पर बैठे मक्खी मार रहे हैं। सरकारी बैंकों की यह दुर्दशा है कि अब वह चलाए नहीं चल रहे हैं। सरकार डूबते बैंकों को ठीक-ठाक चलते बैंकों के हवाले कर रही है। सरकार का खजाना इतना खाली है कि उसने अपना काम चलाने के लिए रिजर्व बैंक से 1.76 लाख करोड़ रुपये निकाले हैं। ऐसा रिजर्व बैंक के इतिहास में पहले कभी नहीं हुआ। यह तो जाने दीजिए, वह शेयर बाजार का सेंसेक्स जो मोदी राज में कभी नीचे नहीं जाता था, उसी शेयर बाजार में हजारों करोड़ रुपये रोज डूब रहे हैं।
लब्बोलुआब यह है कि देश में आर्थिक इमरजेंसी चल रही है। लेकिन मजे की बात यह है कि सरकार के माथे पर शिकन तक नहीं नजर आती है। अभी तक प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की ओर से इस संबंध में कोई बयान नहीं आया है। वित्त मंत्रालय की ओर से कुछ कदम जरूर उठाए गए हैं। लेकिन जब पत्रकारों ने वित्तमंत्री निर्मला सीतारमण से आर्थिक मंदी के बारे में प्रश्न किया, तो उन्होंने इस संबंध में कोई जवाब देने की जहमत गवारा नहीं की।
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सरकार के हावभाव से तो ऐसा प्रतीत होता है कि देश की आर्थिक व्यवस्था जाए चूल्हे-भाड़ में, इसके लिए हमारे पास समय नहीं है। यदि ऐसा न होता तो प्रधानमंत्री स्वयं ऐसी विपत्ति से निपटने के लिए कोई बैठक बुलाते। आर्थिक विशेषज्ञों से बातचीत होती और समस्या से निपटने का कोई समाधान ढूंढा जाता। लेकिन सरकार सुख-शांति से बैठी है। जबकि रोज नए आंकड़े आते हैं जिनसे आर्थिक व्यवस्था का बद से बदत्तर होना स्पष्ट दिखाई पड़ता है।
सच तो यह है कि सरकार को चिंता हो तो क्यों हो। देश की यह आर्थिक बदहाली कोई पिछले दो-तीन महीनों में तो हुई नहीं। अभी हाल फिलहाल तक भारत दुनिया की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था थी। यहां के मध्यवर्ग की खरीदारी के दुनिया में डंके बज रहे थे। तभी तो दुनिया की कौन सी ऐसी मल्टीनेशनल कंपनी थी जो भारत के कोने-कोने में अपना स्टोर नहीं खोल रही थी। वह चाहे अमेरिका की आई-फोन की ‘एप्पल’ कंपनी हो या चीन की अलीबाबा अथवा दक्षिण कोरिया की ‘सैंमसंग’ या फिर अमेरिकी क्रोफोस्ट चेन, जिसकी दुकान देखो भारत में चमक रही थी। अरे, दिल्ली और मुंबई की सड़कों पर दुनिया की महंगी से महंगी हर कार और एसयूवी गाड़ी दौड़ती नजर आती थीं।
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आज उसी भारतवर्ष का यह हाल है कि मारुति से लेकर टाटा जैसी सभी ऑटोमोबाइल कंपनियां अपने कारखाने बंद कर रही हैं। हजारों की तादाद में लोगों को नौकरी से बाहर किया जा रहा है। यह स्थिति उस समय से आरंभ हुई जब 8 नवंबर 2016 को यकायक प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने नोटबंदी की घोषणा कर दी। बस देखते-देखते करोड़ों कारोबार ठप हो गए। लाखों लोग बेरोजगार हो गए। देश के बाजार से नकदी गायब हो गई। भारतीय अर्थव्यवस्था का लगभग 60 प्रतिशत कारोबार नकदी पर चलता है। जब बाजार में पैसा ही नहीं बचा, तो फिर खरीद-फरोख्त क्या होती। बस नोटबंदी और फिर जीएसटी की मार ने भारतीय अर्थव्यवस्था को ऐसा पंचर किया कि अब वह भरभरा कर बैठ गई है।
अर्थात् देश कीआर्थिक इमरजेंसी 2016 और 2019 के बीच उत्पन्न हुई है। स्पष्ट है कि अप्रैल और मई, 2019 में जब लोकसभा के चुनाव हुए, तो उस समय भी देश की आर्थिक स्थिति काफी बिगड़ चुकी थी। देश में कारोबार तब भी ठप था, नौजवान बेरोजगारी से हताश था। किसान खुदकुशी कर रहा था, छोटे कारखानों में ताले लटकना शुरू हो चुके थे, बाजारों की चमक गायब थी। लेकिन इन परिस्थितियों में भी मोदीजी के नेतृत्व में बीजेपी को लोकसभा में तीन सौ से अधिक सीटें प्राप्त हुई थीं। ऐसा जनमत किसी पार्टी को कई दशकों बाद प्राप्त हुआ था।
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आखिर ऐसा क्यों, कि जिस पार्टी के राज में देश कंगाली की कगार पर पहुंच गया, जनता उसी को भारी बहुमत से दोबारा सत्ता में भेज रही है। वह तो जाने दीजिए, अभी पिछले तीन महीनों में जबसे अर्थव्यवस्था की बदहाली और उससे संबंधित आंकड़े समाचारों में आना शुरू हुए, तब भी जनता में सरकार विरोधी अथवा बीजेपी विरोधी कोई ऐसी लहर नहीं दिखाई पड़ती है। इसके विपरीत जमीनी स्थिति यह है कि मोदी की लोकप्रियता देश में अपनी चरम सीमा पर है। अभी दो हफ्ते पहले ‘इंडिया टुडे’ ने एक सर्वे छापा, जिसके अनुसार चुनाव के पश्चात मोदी की लोकप्रियता बहुत अधिक बढ़ी है जिसके कारण मैगजीन ने अपने कवर का शीर्षक ‘मोदीस्तान’ रखा है। अर्थात् अब भारत, हिंदुस्तान नहीं मोदीस्तान हो चुका है।
ऐसा क्यों! यह दिमाग में नहीं आता कि एक ओर देश आर्थिक मंदी का शिकार है और दूसरी तरफ इस स्थिति को उत्पन्न करने वाले देश की जनता के मन पर राज कर रहे हैं। भला यह कैसे संभव है! इसका सीधा सा जवाब यह है कि देश की जनता की अकल पर ताला पड़ चुका है। जी हां, बंटवारे की राजनीति ऐसी ही राजनीति होती है जो जनता की अकल पर ताला डाल देती है और उसकी आंखों पर पट्टी भी बांध देती है। पिछले कुछ सालों में देशवासियों की चिंता केवल इतनी है कि उसके काल्पनिक ‘दुश्मन’ को मोदीजी कैसे ‘सबक सिखा रहे हैं’!
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कभी वह काल्पनिक दुश्मन मुसलमान हो जाता है, जैसे पिछले उत्तर प्रदेश चुनाव में वह ‘श्मशान और कब्रिस्तान’ के रूप में उभरा था और उत्तर प्रदेश की जनता ने नोटबंदी की मार के बीच मोदीजी के कहने पर बीजेपी को राज्य में सत्ता की बागडोर सौंप दी थी। इसी प्रकार लोकसभा चुनाव में वह दुश्मन पाकिस्तान हो गया था जिसको मोदीजी ने ‘घर में घुसकर सबक सिखाया था’ और बस जनता ने उनका दामन वोट से भर दिया था। इस समय जबकि आर्थिक व्यवस्था छिन्नभिन्न हो रही है, उस समय ‘दुश्मन’ कश्मीरी है, जिसका अनुच्छेद 370 हटाकर मोदीजी ने उसको भी ‘ठीक कर दिया’।
यह ‘दुश्मन’ को ठीक करने की राजनीति एक ऐसी अफीम है जिसकी गोली देकर सत्ता पक्ष जनता की आंखों पर ऐसी पट्टी बांध देता है कि बस फिर जनता अपनी विपत्ति और समस्या भूलकर ‘दुश्मन’ को ठीक करने वाले नेता को अपना भगवान मान लेती है। यूं तो, दुश्मन खड़ा करो और बांटो तथा राज करो की रणनीति बहुत पुरानी है। लेकिन आधुनिक इतिहास में इस रणनीति का सबसे सफल इस्तेमाल हिटलर ने यहूदियों को जर्मनी के दुश्मन की छवि देकर किया था। इसमें कोई शक नहीं कि उस समय ‘जर्मन अंगरक्षक’ का रूप लेकर हिटलर ने जर्मन जनता के दिलों पर राज किया। यह बात अलग है कि जब जर्मन जनता कीआंख खुली, तो जर्मनी और उसकी जनता दोनों ही ‘दुश्मन को ठीक करने’ की राजनीति में झुलस चुके थे। भगवान करे भारत और भारतवासियों पर ऐसा कोई समय न पड़े और यह आर्थिक संकट हमारी आंखें खोल दे।
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