समय का पहिया जैसे उलटा घूमता हुआ 1950 के दशक के दौर में जा पहुंचा है। तब दो बड़ी कम्युनिस्ट ताकतों- रूस के नेतृत्व वाले सोवियत संघ और चीन के बीच दुश्मनी थी और इसका फायदा उठाने के लिए रिचर्ड निक्सन ने 1972 में जो चाल चली, ऐसा लगता है कि उसका हिसाब चुकता करने के समीकरण बनते जा रहे हैं। मास्को और बीजिंग अमेरिका के खिलाफ एकजुट हो गए हैं।
पिछले जून में जब अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन और उनके रूसी समकक्ष व्लादिमीर पुतिन के बीच स्विट्जरलैंड में शिखर सम्मेलन हुआ तो बाइडेन ने निक्सन की नीतियों से एकदम उलट प्रस्ताव दिया कि क्यों न चीन का मुकाबला करने के लिए अमेरिका और रूस एकजुट हो जाएं! उनका इशारा इस ओर था कि 1970 के दशक में अपनी निपट गरीबी से त्रस्त चीन आज एक आर्थिक और सैन्य महाशक्ति बनने के साथ ही सुरक्षा के लिए एक बड़ा चिंता बन गया है।
लेकिन एक माह पहले जब पुतिन ने यह ऐलान किया कि वह यूक्रेन में एक ‘विशेष सैन्य अभियान’ शुरू करेंगे जो दरअसल एक आक्रमण ही था, बाइडेन का सपना एक दुःस्वप्न में बदल गया। युद्ध का सटीक और विश्वसनीय लेखा-जोखा आमतौर पर शत्रुता खत्म होने के बाद ही सामने आता है। इसलिए, मौजूदा लड़ाई के बारे में भी सच्चाई तभी सामने आ पाएगी जब विशेषज्ञ तमाम आंकड़ों के आधार पर इसका विश्लेषण कर लें।
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अभी तो अपेक्षाकृत भरोसेमंद आंकड़ा मानवीय संकटसे जुड़ा है। संयुक्त राष्ट्र का अंदाजा है कि यूक्रेन की 10 मिलियन से अधिक या एक चौथाई आबादी अपने घरों से भाग गई है, 3.5 मिलियन से ज्यादा लोग अन्य देशों में शरणार्थी बन गए हैं और यूरोप का अन्न भंडार माने जाने वाले यूक्रेन में आवश्यक वस्तुओं के खत्म होने का खतरा पैदा हो गया है।
रूस और यूक्रेन एक ही पेड़ (सोवियत संघ) की दो शाखाएं हैं। ग्लासनोस्त या खुलापन दोनों के ही खून में नहीं। सत्ता की एकदलीय व्यवस्था को छोड़ने का यह मतलब नहीं कि ये लोकतांत्रिक हो गए हैं! रूस तो कम्युनिज्म से अलग राह अख्तियार करते ही बहुलतावादी व्यवस्था का वादा करने के बावजूद आज तानाशाही की हद तक फिसल गया है।
वाशिंगटन और लंदन बेशक गला फाड़कर यूक्रेन में लोकतंत्र के होने की बात कह दें लेकिन हकीकत तो यही है कि वहां सरकार तो कठपुतली ही रही। पहले रूस समर्थक सरकार थी तो बाद में पश्चिम के इशारे पर नाचने वाली सरकार। दोनों ही स्थितियों में इसे लोकतंत्र नहीं कहा जा सकता। उधर, वार्सा संधि वाले हंगरी और पोलैंड जो कभी मास्को की ओर झुकाव वाले देश हुआ करते थे, आज यूरोपीय संघ और पश्चिमी सैन्य गठबंधन नाटो के सदस्य बन तो गए लेकिन फासीवादी और रंगभेद वाली प्रवृत्तियां उनमें वापस लौट आई हैं।
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गलत बातों को फैलाना युद्ध का अनिवार्य हिस्सा है। इसका उद्देश्य अपनी सेना और अपने लोगों का हौसला बनाए रखना, दुश्मन को हतोत्साहित करना और दूसरों को भ्रमित करना होता है। इसलिए, इस वक्त रूस और यूक्रेन- दोनों के ही दावों को बड़ी सावधानी से लेने की जरूरत है। हालांकि इस बात में कोई शक नहीं कि रूस ने विरोधी इलाके पर धावा बोला और अब तक वह बाल्टिक समुद्र से सटे खेरर्सोन को छोड़कर किसी भी शहर पर कब्जा नहीं कर सका है।
राजधानी कीव पर कब्जा करना रूस के लिए टेढ़ी खीर ही बना हुआ है। रूस उस पर हमला करने की जगह उसे घेरता नजर आ रहा है। रूस को लगता है कि कीव में रह रहे लोगों का संपर्क तोड़कर और उनकी बिजली और खाने-पीने की सप्लाई लाइन काटकर वह यूक्रेनी सरकार को समर्पण करने के लिए मजबूर कर सकता है। पुतिन को शायद यह उम्मीद थी कि यूक्रेन जल्द ही समर्पण कर देगा। लेकिन पुतिन का अंदाजा गलत निकला। दरअसल, क्रीमिया पर रूस के कब्जा करने के बाद से ही यूक्रेन सतर्क हो गया था और वह लगातार तैयारी कर रहा था कि अगर उस पर हमला हुआ तो वह कैसे अपना बचाव करेगा। पिछले आठ सालों के दौरान उसने पश्चिमी देशों से सेना, नौसेना और वायुसेना के लिए बेहतरीन साजो-सामान मंगाए और इन उपकरणों को चलाने के लिए अपनी सेना के लोगों को प्रशिक्षण दिलाए।
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यह भी गौर करने की बात है कि सीमा पर जिस तरह रूस महीनों से धीरे-धीरे फौज को जमा करता जा रहा था, यूक्रेन ने अपनी पूरी तैयारियों को आपातकालीन स्तर पर ला दिया था। इसके अलावा, यह भी समझना होगा कि यूक्रेन अकेला रूस का मुकाबला नहीं कर रहा है। उसे संचार, डिकोडिंग, इंटरसेप्टिंग और सर्विलांस से जुड़ी नाटो की अत्याधुनिक तकनीक मिल रही है जिसने उसकी क्षमता को काफी बढ़ा दिया है।
जिस तरह रूस ताबड़तोड़ हमले कर रहा है, उसकी बराबरी तो यूक्रेन नहीं कर सकता लेकिन वह अपने लोगों की जान बचाने की हर संभव कोशिश कर रहा है और उसके सैनिक परंपरागत के साथ-साथ गुरिल्ला युद्ध के तरीके अपना रहे हैं। जब सब कुछ यूक्रेन के खिलाफ है, तब भी उसने बड़े हौसले के साथ मोर्चा थाम रखा है।
रूस ने कम्युनिज्म को बेशक छोड़ दिया लेकिन पश्चिमी देश उसे संदेह की नजर से ही देखते रहे। उसके बाद अब पुतिन ने जिस तरह का कदम उठाया, उसके प्रति यूरोप, अमेरिका और उसके सहयोगी देशों समेत पूरी दुनिया में नाखुशी है। यह बात इससे भी जाहिर होती है कि संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में रूस के पक्ष में किसी भी देश ने मतदान नहीं किया। और तो और, चीन ने भी नहीं।
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जहां तक रूस के लोगों की बात है, पुतिन अब तक देश के लोगों को यह बताने में सफल रहे हैं कि वह जो कर रहे हैं, सही है और रूस ही जीतने जा रहा है। लेकिन यह संघर्ष जितना लंबा खिंचेगा, पुतिन के लिए अपने ही देश के लोगों को अपने साथ रखना मुश्किल होता जाएगा। सोचने की बात यह भी है कि साइबर काबलियत के मामले में रूस बेहतरीन रहा है लेकिन आज की तकनीकी प्रगति ने अमेरिका एंड कंपनी के लिए रूस के लोगों की सोच को प्रभावित करना उतना मुश्किल नहीं रह गया है, भले रूस ने अमेरिकी स्वामित्व वाले सोशल मीडिया पर बैन ही क्यों न लगा रखा हो। इसलिए पुतिन के लिए बड़ी चुनौती संघर्ष को जल्दी निपटाने की है।
पुतिन के लिए सोवियत संघ का विखंडन एक बड़ी पीड़ा का सबब है लेकिन तब जो कुछ भी हुआ, उसे सुधारने के लिए उनके यूक्रेन पर धावा बोल देने को कतई स्वीकार नहीं किया जा सकता लेकिन पश्चिमी देशों को भी अपने गिरेबां में झांकना होगा। सोवियत काल के बाद के रूस को भरोसे में लेने की जगह पश्चिमी देशों ने हमेशा उसे संदेह से देखा। उन्होंने 11 ऐसे देशों को नाटो में शामिल कर लिया जो कभी सोवियत संघ या वार्सा संधि के हिस्सा थे या फिर कम्युनिस्ट थे। ऐसे में अपनी सुरक्षा को लेकर जरूरत से ज्यादा चिंतित होकर रूस के इस तरह के कदम उठाने पर हैरत तो नहीं होनी चाहिए।
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