सांस की गति को नियंत्रित करना अब सामान्य बात है। हम अब अपनी सांस हर वक्त रोके रहते हैं, कभी-कभी छोटी-मोटी दयालुता के लिए ईश्वर को धन्यवाद देकर राहत का अनुभव करते हैं। काविड- 19 के खतरे से बचाव के लिए हम जिस तरह बेताबी से इंतजार कर रहे हैं, उसमें सांस का व्यायाम, प्राणायम और योग पूजा- पद्धतियां बन गए हैं। हमें रोज बताया जा रहा है कि वैक्सीन बनाने का प्रयास जारी है और सफलता मिलना निश्चित है। मेरी सुचिंतित सलाह है कि निकट भविष्य में कारोना वायरस से निजात दिलाने वाले वैक्सीन की अवास्तविक अपेक्षा के लिए अपनी सांसें ज्यादा देर तक न रोके रखें।
यह सच है कि कुछ रोगों के लिए कुछ वैक्सीन दवा के इतिहास में मील के पत्थर हैं। लगभग पोलियो मुक्त दुनिया और छोटी चेचक का समूल नाश वैक्सीन की वजह से ही संभव हो सका है। लेकिन दूसरी तरफ, हर मौसम में पश्चिमी देशों में फ्लू से लाखों लोग प्रभावित होते हैं, वैक्सीन की क्षमता और उपयोगिता पर प्रश्नचिह्न बना हुआ है। भले ही कोई प्रभावी वैक्सीन विकसित करने में हम गौरव महसूस करें, पांच लाख से ज्यादा लोग हर साल दुनिया भर में मौसमी फ्लू की वजह से मारे जाते हैं। पिछले कई दशकों से यह सामान्य बात हो गई है।
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दरअसल, वैक्सीन वस्तुतः खुद ही एक वायरस है। यह वायरस के विषैलेपन को और उसकी डिग्री को इस हद तक क्षीण और शोधित करने का तरीका है कि वह प्रतिरक्षित व्यक्ति में प्रतिरोधी क्षमता उत्पन्न करता है। यह याददाश्त (एंटिजेनिक मेमोरी) के तौर पर हमारी प्रतिरोधक व्यवस्था में इस तरह संचित रहता है कि भविष्य में जब भी हम उस वायरस के संपर्क में आते हैं तो यह सक्रिय हो जाता है और उस वायरस के हमें नुकसान पहुंचाने से पहले ही उसे खत्म करने के लिए एंटीबॉडी बना देता है। यही कारण है कि जब इन्फेक्शन से कोई व्यक्ति ठीक हो जाता है या उसे वैक्सीन दे दिया जाता है, तो उस वायरस के किसी भी भावी संक्रमण के प्रति उसमें प्रतिरोधक क्षमता विकसित हो जाती है।
वैक्सीन प्रतिरोधक व्यवस्था के जरिये प्रतिरोधक क्षमता पैदा करता है। जिनकी प्रतिरोधक क्षमता कम होती है, उनमें वैक्सीन को लेकर कम प्रतिरोधक क्षमता दिखती है और इसलिए, उनमें वैक्सीन से कम फायदा होता है। ये लोग आघात किए जाने लायक होते हैं, जिन्हें बचाए रखने की जरूरत होती है। यह विरोधाभास ही है कि ऐसे लोगों पर वैक्सीन का कम असर होता है जिन्हें इसकी सबसे ज्यादा जरूरत होती है।
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वायरस दो किस्म के होते हैं- डीएनए (छोटी चेचक, बड़ी चेचक आदि वाले वैक्सीन) और आरएनए (कोराना वायरस, सीजनल फ्लू और डेंगू- जैसे)। सभी वायरस अपने फैलाव के लिए प्रतिकृति बनाते हैं, एक तंतु वाले आरएनए वायरस अपनी प्रतिकृति बनाने में गलतियां नहीं करते और अपना चरित्र काफी बदल सकते हैं। यही कारण है कि जब कभी आरएनए वैक्सीन बना भी लिया जाता है और वह तैयार किया जाता है, वायरस की नस्ल दूसरी प्रतिरोधक क्षमता के साथ पैदा हो जाती है. जिससे वैक्सीन अप्रभावी हो जाता है और सारा प्रयास निरर्थक हो जाता है।
पहले भी, आरएनए वायरस के वैक्सीन बनाने की हमारी कोशिशें सफल नहीं रही हैं। छोटी चेचक (वैरिओला वायरस) और बड़ी चेचक (वैरिसेला) डीएनए वायरस हैं। हमें मालूम है कि आरएनए वायरस में, सीजनल फ्लू वायरस के लिए वैक्सीन है, लेकिन यह प्रतिरोधक नहीं है, क्योंकि हर साल दुनिया में सीजनल फ्लू से करीब पांच लाख लोगों की मौत हो जाती है।
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दुनिया भर में पिछले साल के वायरस को लेकर अपने आंकड़ों के आधार पर विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) और सेंटर्स फॉर डिजीज कंट्रोल एंड प्रिवेन्शन आने वाली सर्दियों में कौन-से वायरस आक्रमण कर सकते हैं, इसे लेकर हर साल पूर्वानुमान जारी करते हैं। इसके ही अनुरूप हर साल फरवरी में वैक्सीन के लिए उत्पादन की प्रक्रिया शुरू होती है- अगले मौसम के लिए तीन संभावित किस्मों की दृष्टि से। अगली सर्दी से पहले हर तीन में से एक अमेरिकी को वैक्सीन दे दिया जाता है। फिर भी, अमेरिका में 40 से 60 हजार मौतें हर साल होती हैं। 2004 में वैक्सीन का उत्पादन कम हुआ और इस वजह से प्रतिरोधक दर में 40 प्रतिशत की गिरावट रही। फिर भी, मौत का आंकड़ा नहीं बढ़ा।
साल 1968 और 1997 में कुछ खास वायरस के लिए बनाए गए वैक्सीन सर्दियों तक अप्रभावी हो गए, क्योंकि वायरस ने बिल्कुल अलग शक्ल अख्तियार कर लिया था। तकनीकी तौर पर, इस वजह से काई वैक्सिनेशन नहीं हुआ। फिर भी, फ्लू और उन विभिन्न बीमारियों जिनसे मृत्यु हो सकती थी, समेत सभी वजहों से मृत्यु दर फ्लू सीजन में वही रही।
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फिजिशियन और कनाडा के यूनिवर्सिटी ऑफ अल्बर्टा में रिसर्चर सुमित मजूमदार ने एक और बात नोटिस की। उन्होंने लिखा हैः पिछले दो दशकों से बूढ़े लोगों के बीच वैक्सिनेशन की लगातार बढ़ती ऊंची दर कुल मिलाकर मृत्यु दर से मेल नहीं खाती। 1989 में अमेरिका और कनाडा में 65 साल से अधिक उम्र वाले 15 प्रतिशत लोगों को ही फ्लू का वैक्सीन लगाया गया। आज 65 प्रतिशत से अधिक लोगों को वैक्सीन लगाया जा चुका है। पिछले वर्षों के दौरान प्रति दस लाख आबादी में फ्लू से मरने वालों की दर वैक्सीन लगा दिए लोगों की संख्या में अच्छी-खासी वृद्धि के बावजूद कुल मिलाकर वही रही है।
दुनिया भर में जाने-माने महामारी विशेषज्ञ डॉ. टॉम जेफरसन को फ्लू की रोकथाम और उसके उपचार के लिए साक्ष्यों की जांच और सिफारिशें करने के लिए अमेरिका और ऑस्ट्रेलिया की सरकारों ने नियुक्त किया है। उन्होंने फ्लू वैक्सिनेशन पर काफी विस्तृत काम किया है। उन्होंने भी फ्लू वैक्सीन के कुल मिलाकर खतरे को घटाने के लाभों को लेकर गंभीर संदेह व्यक्त किए हैं।वैज्ञानिक समुदाय वैक्सीन की उपयोगिता को लेकर विभाजित ही है।
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नेशनल इंस्टीट्यूट्स ऑफ हेल्थ (एनआईएच) के नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ एलर्जी एंड इन्फेक्शंस डिजीजेज में फ्लू वैक्सीन के बेसिक साइंस को लेकर काफी काम हुआ है। इसके निदेशक एंथोनी फौसी कहते हैं कि उन्हें संदेह नहीं कि यह कुछ हद तक प्रतिरोधक क्षमता देने में प्रभावी है। इसके विपरीत मानने वालों की संख्या कम ही है।
यहीं पर यह बात उठती है कि क्या विज्ञान ठोस साक्ष्य है या फिर बहुमत की राय? क्या विज्ञान भी धर्म की तरह आस्था का सवाल है? दोनों बातों का उत्तर दुखद रूप से, हां ही है। बात बहुत साफ है। कारोना वैक्सीन गाजे-बाजे के साथ बाजार में उतरेगा। पूरा तंत्र इस यकीन को बनाए रखने का षड्यंत्र करेगा कि यह प्रभावी है। अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने इस साल के अंत तक वैक्सीन तैयार करने की बात कही ही है। यह वैज्ञानिकों के लिए भी विस्मय की ही बात है। लेकिन यही जीवन है।
अंत में, एक और बात। ब्रिटिश दार्शनिक और राजनीतिक अर्थशास्त्री एडम स्मिथ की एक प्रसिद्ध उक्ति हैः “हमारा भोजन किसी कसाई, शराब बनाने वाले या तंदूर वाले की दयालुता की सौगात नहीं है। यह उनके निहित लाभ के लिए, स्वयं किए गए कार्य का प्रतिफल है। आदमी कोई काम अपने लिए, केवल अपने भले की कामना के साथ करता है, न कि समाज के कल्याण की खातिर।”
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