विकास, भाईसाहब एक ऐसी शै है, जो जिसको नजर आना होता है, उसी को आता है। हर किसी को नहीं। यह कुछ-कुछ ईश्वर की तरह है। जैसे हर सरकार को उसके कार्यकाल में हुआ 'विकास' अनिवार्य रूप से नजर आता है, मगर विपक्ष को उतनी ही अनिवार्यता से नजर नहीं आता! दो और समस्याएं हैं। हर सरकार को अपने द्वारा किया गया विकास सूरज की तरह साफ दीखता है मगर दूसरे का भ्रष्टाचार भी उतना ही साफ दीखता है। मतलब सरकार और विपक्ष को दो-दो सूरज एक साथ दीखते हैं!
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दूसरी ओर जिसके लिए विकास किया गया है, उस जनता को एक भी सूरज नहीं दिखाई देता। ये कुछ रघुकुल रीत की तरह है, जो आजादी के बाद से आज तक चली आई है और रामलला मंदिर बनने के बाद भी चली आती रहेगी और चली आती रहनी चाहिए, वरना 'विकास' कैसे होगा! चाहे आंकड़ों में हो, मगर होना चाहिए। वरना 'विकास' करने वालों का भविष्य खतरे में पड़ जाएगा और उनका भविष्य मोस्ट इंपोर्टेंट है। वह देश और जनता के भविष्य की तरह व्यर्थ सवाल नहीं है!
जैसे अपने मोदीजी हैं, यानी नरेंद्र दामोदरदास मोदी। उन्हें भी पिछले छह सालों में उनके द्वारा किया गया ऐसा जबरदस्त विकास नजर आता है कि जितना पिछले साठ साल में पहले कभी नहीं हुआ था। जैसे विकास मोदीजी की प्रतीक्षा में ही बैठा था और मोदीजी भी प्रधानमंत्री बनने के इंतजार में थे कि बनें और विकास की मशीन को हाईस्पीड में चालू कर दें और रात-दिन विकास ही विकास करते रहें।
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अटल जी को भी यही लगता था कि उन्होंने इतना अधिक 'विकास' कर दिया है कि 'इंडिया शाइन' करने लगा है, मगर बदले में इंडिया ने उन्हें शाइन करने से इनकार कर दिया। जब चंद्रशेखर जी प्रधानमंत्री बने थे, तो उन्होंने तो हद ही कर दी थी। कहा था कि उन्होंने चालीस दिन में ही इतना 'विकास' कर दिया है कि उतना पिछले चालीस वर्षों में भी नहीं हुआ! मतलब हदें छूने की होड़ लगी रहती है, जिसमें हर प्रधानमंत्री अपने कार्यकाल में ऑटोमेटिकली जीत जाता है!
वैसे मैं भी नकारात्मक नहीं हूं। मानता हूं कि पिछले छह सालों में बहुत 'विकास' हुआ है, मगर ‘विकास' की मोदीजी की लिस्ट दूसरी है, मेरी दूसरी। मोदी जी को महंगा से महंगा चश्मा पहन लेने पर भी जो 'विकास' नहीं दिखाई देता, मुझे नंबरवाला सस्ती फ्रेम का चश्मा पहन कर दीख जाता है।उधर उन्हें जो 'विकास' दीखता है, वह मुझे नहीं दीखता। आंखें उनकी भी दो हैं, मेरी भी दो। देश उनका भी और वे मानें तो मेरा भी यही है!
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मगर उन्हें लगता है, मेरे चश्मे का नंबर गलत है और मुझे लगता है कि उन्हें भी अब मेरी तरह बाईफोकल चश्मा पहन लेना चाहिए। उम्र का सत्तरवां साल पार करने के बाद उन्हें हीरोगीरी नहीं दिखाना चाहिए, मगर ट्रंप जैसे महामना उनके आदर्श हैं। उन्होंने दुनिया को दिखा दिया है कि चश्मा हो न हो, जिन्हें फर्क नहीं पड़ना होता, नहीं पड़ता। ट्रंप जी को खुद कोरोना होने से पहले भी कोरोना नहीं दीखता था, अब तो और भी नहीं दीखता!
और तो और अब आदित्यनाथ जी को भी यह शिकायत होने लगी है कि उन्होंने उत्तर प्रदेश में पिछले तीन सालों में जितना 'विकास' किया है, वह अंतरराष्ट्रीय 'षड़यंत्रकारी' विपक्ष को नहीं दीखता। वैसे आदित्यनाथ जी विकास के लिए कभी प्रसिद्ध क्या बदनाम तक नहीं रहे! किसी का ध्यान ही नहीं जाता कि उनसे विकास की उम्मीद करना चाहिए और निराश होना चाहिए! उनकी ख्याति का असली क्षेत्र तो फर्जी एनकाउंटर है और इसमें उनका मुकाबला कोई मुख्यमंत्री नहीं कर सकता। इसमें उनका परफार्मेंस देश में 'सर्वश्रेष्ठ' है!
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हद से हद उनकी आलोचना राज्य में बलात्कार, हत्या और दमन के 'विकास' लिए की जा सकती है, जो सजायोग्य अपराध है। किसी बेवकूफ ने भी शायद उन पर 'विकास' करने या न करने की तोहमत लगाई हो, तो विपक्ष भी क्यों लगाएगा! समस्या यह है कि उन्होंने 'विकास' के जो प्रतिमान स्वयं स्थापित किए हैं, उनकी खुद वह चर्चा करना पसंद नहीं करते। वैसे सामान्यतः राजनीति में यह अच्छी बात नहीं मानी जाती, मगर योगी होने का मतलब भी यही है कि अपने मुंह मियां मिट्ठू न बनो!
ऐसा भी नहीं है कि जिसे 'विकास' कहते हैं, उसके दावे उन्होंने पहले कभी नहीं किये, मगर किसी ने न उनका खंडन किया, न मंडन। इस पर सर्वसम्मति है कि इस ओर उनका ध्यान भटकाकर न उनका समय बर्बाद करना चाहिए, न अपना!
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