मंगलवार को जब बिहार में वोटों की गिनती शुरु हुई तो रुझान वैसी ही तस्वीर दिखा रहे थे जैसा कि आखिरी दौर की वोटिंग के बाद एग्जिट पोल के अनुमान में सामने आई थी। यानी तेजस्वी यादव की अगुवाई वाला महागठबंधन आगे था। आरजेडी समर्थक और प्रवक्ता खुश थे और जश्न की तैयारियां शुरु हो गई थीं। लेकिन दोपहर ढलते-ढलते माहौल बदल गया। एनडीए ने बढ़त बना ली, और आगे-पीछे की रेस देर रात तक जारी रहने के बाद आखिरकार नतीजे एनडीए के पक्ष में घोषित कर दिए गए।
लेकिन इस हार के बावजूद अगर बिहार चुनाव का कोई मैन ऑफ द मैच है तो वह वही तेजस्वी यादव हैं जिन्हें एक महीने पहले तक कोई गंभीरता से लेने के तैयार नहीं था। माना जा रहा था कि इस बार का चुनाव तो एनडीए बहुत ही आसानी से जीत जाएगा। बातें केक वॉक जैसी हो रही थीं। लेकिन जैसे-जैसे बिहार में चुनावी पारा चढ़ा, और तेजस्वी की एक दो रैलियों में भीड़ उमड़ी, राजनीतिक समीक्षकों को राय बदलना पड़ी। कहा जाने लगा कि बिहार में जब भी दो या अधिक पार्टियों ने मिलकर चुना लड़ा है, उन्होंने मौजूदा सत्ता को उखाड़ फेंका है।
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वैसे बीजेपी-जेडीयू के एक साथ चुनाव लड़ने के कारण यह माना जा रहा था कि आरजेडी की तो कोई संभावना ही नहीं है, क्योंकि उसके पास बिहार में कांग्रेस और वामदलों के साथ गठबंधन के अलावा कोई विकल्प ही नहीं था। वैसे भी इस बार महागठबंधन के साथ लालू यादव नहीं थे, जो बिहार की नब्ज को किसी भी अन्य के मुकाबले बेहतर समझते हैं। ऐसे में महागठबंधन की नैया खेने की जिम्मेदारी 31 साल के तेजस्वी के ही कंधों पर थी।
और, अक्टूबर का दूसरा सप्ताह शुरु होते-होते तेजस्वी ने इस जिम्मेदारी को हकीकत में बदलने की संभावना पैदा कर दी। उनकी रैलियों में जबरदस्त भीड़ उमड़ने लगी और मुख्यधारा का मीडिया भी उन्हें नजरंदाज़ करने की हिम्मत नहीं जुटा पाया। उनकी रैलियों में युवाओं के उत्साह से उम्मीद मजबूत होने लगीं। तेजस्वी की रैलियों में उमड़ती भीड़ के साथ ही यह बात भी बड़े पैमाने पर चर्चा का हिस्सा बनने लगी कि बिहार में इस समय जबरदस्त सत्ताविरोधी लहर है।
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बात यहीं नहीं रुकी, और बीते करीब 15 साल से बिहार के मतदाताओं ने जिन नीतीश कुमार को सिर आंखों पर बिठा रखा था, उन्हें एनडीए की सबसे कमजोर कड़ी बताया जाने लगा। लोगों में उन्हें लेकर गुस्सा इतना अधिक दिखने लगा कि उनकी रैलियों में कभी विरोधी नारे लगते तो कभी उन पर प्याजा और चप्पलें फेंकी जाने लगीं। नीतीश भी हताश दिखने लगे और ऐसे-ऐसे शब्दों का इस्तेमाल करने लगे जिसकी कम से कम उनसे तो किसी ने उम्मीद नहीं की थी। एक तरह से नीतीश एनडीए पर बोझ दिखने लगे।
दूसरी तरफ तेजस्वी ने एक नया राजनीतिक सूत्र गढ़ दिया था। उन्होंने एक तरह से एनडीए के लिए चुनावी एजेंडा तय कर दिया, नतीजतन एनडीए नेता, वह बीजेपी के हों या जेडीयू के, परेशान ही नहीं बल्कि रक्षात्मक भी दिखने लगे। यही कारण था कि जब तेजस्वी यादव ने ऐलान किया कि सत्ता संभालते ही पहली बैठक में वह 10 लाख नौकरियां देगें, तो पूरे बिहार में यह चर्चा का विषय बना और एनडीए नेताओं के पास इसकी काट ही नहीं दिखी। कशमकश में पड़े एनडीए की तरफ से उपमुख्यमंत्री सुशील कुमार मोदी ने इस घोषणा का मजाक तक उड़ाया।। लेकिन तेजस्वी की इस घोषणा के राजनीतिक अर्थों को समझते हुए बीजेपी को अगले ही दिन 19 लाख रोजगार का वादा करना पड़ा।
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कमाई, पढ़ाई, दवाई और सिंचाई के तेजस्वी के नारे ने बिहार के लोगों के बीच एक तरह का रिश्ता बना दिया, जिससे हमेशा जातीय समीकरणों का शिकार रहे बिहार का राजनीतिक विमर्श ही बदल गया। इतना ही नहीं तेजस्वी ने पूरे चुनाव में अपने पिता लालू यादव और मां राबड़ी देवी को एक तरह से किनारे ही रखा, यह हिम्मत वाला काम था। हालांकि तेजस्वी जानते थे कि मंडल की राजनीति के प्रमुख नायकों में से एक लालू यादव ने बिहार के दबे-कुचले तबके को सम्मान से जीना सिखाया था। यह एक बड़ा दांव था, इससे आरजेडी का अपना जनाधार खिसक सकता था, लेकिन तेजस्वी ने यह दांव खेला। हालांकि प्रधानमंत्री मोदी तेजस्वी को जंगलराज का युवराज कहकर चिढ़ाते रहे, लेकिन तेजस्वी विचलित हुए बिना ही रोजगार, नौकरी, शिक्षा, स्वास्थ्य जैसे बुनियादी मुद्दों पर डटे रहे।
तेजस्वी भले ही चुनाव हार गए और अपनी संभावनाओं के लिए उन्हें अब अगले पांच साल इंतजार करना पड़ेगा, लेकिन उन्होंने एक लकीर जरूर खींच दी है। यही कारण था कि संघ की मजबूत मदद, एलजेपी के खुलकर नीतीश का विरोध कर बीजेपी को फायदा पहुंचाने की कोशिशों और धनबल के बाद भी तेजस्वी यादव की अगुवाई वाले महागठबंधन में अनुशासन और गंभीरता नजर आई।
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बीते कुछेक सालों में होता यही रहा है कि हर चुनाव का एजेंडा पीएम मोदी ही तय करते रहे हैं। 2014 और 2019 के लोकसभा चुनाव से लेकर इस दौरान हुए राज्यों के विधानसभा चुनावों तक यह बात साफ रही है। लेकिन इस बार बिहार में चुनाव का एजेंडे तेजस्वी ने तय किया और जेडीयू-बीजेपी नेता ही नहीं खुद पीएम मोदी भी महज तेजस्वी के एजेंडे का जवाब दीही देते नजर आए।
यहां यह नहीं भूलना चाहिए कि तेजस्वी के मुकाबले में दो कद्दावर नेता खड़े थे, एक तरफ नीतीश कुमार थे तो दूसरी तरफ प्रधानमंत्री मोदी। लेकिन तेजस्वी नर्भसाए नहीं, उनसे घबराए नहीं, वे मजबूती से डटे रहे। अपने भाषणों और प्रचार में आक्रामकता तो दिखाई उन्होंने लेकिन हमेशा ध्यान रखा कि उनके एक-एक कदम पर, एक-एक शब्द पर गहरी नजर है। यहां तक कि जब उन पर निजी आक्षेप लगाए गए, तेजस्वी ने धैर्य नही खोया।
एक और रोचक और तेजस्वी की राजनीतिक परिपक्वता का संकेत देती बात सामने आई। तेजस्वीय यादव को एहसास था कि उन्हें अपनी पार्टी आरजेडी का जनाधार यादव-मुस्लिम वोटों से आगे बढ़ाना है, इसीलिए उन्होंने नारा दिया कि उनकी पार्टी ए टू जेड की पार्टी है सिर्फ एम-वाई की नहीं। एक तरह से तेजस्वी ने इस चुनाव में आरजेडी को लालू यादव की पार्टी के बजाए तेजस्वी यादव की पार्टी बना दिया।
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तेजस्वी के इस नए रूप से आरजेडी में नई ऊर्जा भरी है, और वह बीते कल को भुलाकर आगे बढ़ने को तैयार दिखती है। आरजेडी पर कभी गुंडों-बदमाशों की पार्टी होने का दाग था, जिसे विरोधी दल जंगलराज कहते रहे हैं, लेकिन पार्टी इससे आगे बढ़ गई है, जो अपना जनाधार बढ़ा रही है, आर्थिक न्याय की बात कर रही है, रोजगार की बात कर रही है।
ये सबकुछ शायद चुनाव जीतने के लिए पर्याप्त साबित नहीं हो पाया। लेकिन तेजस्वी यादव ने जो संभावनाएं सामने रखी हैं, उससे राजनीतिक विश्लेषक भी मुस्कुरा रहे हैं। वह हारे जरूर हैं, लेकिन आखिर तक लड़कर हारे हैं। सुपर ओवर तक पहुंचा चुनावी मैच भले ही एनडीए ने जीता हो, और सीएम की कुर्सी पर नीतीश फिर से बैठें, लेकिन मैन ऑफ दि मैच ही नहीं मैन ऑफ दि मोमेंट भी तेजस्वी यादव ही हैं।
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