विचार

नोटबंदी से मुद्रीकरण तक और सेंट्रल विस्टा प्रोजेक्ट से लेकर जलियांवाला बाग तक, इतिहास मिटाने की कोशिश

आरएसएस/भाजपा की असुरक्षा की भावना की डोर अतीत से जुड़ी है। यह साफ है कि इतिहास उनके प्रति दयालु नहीं रहा है और इसलिए वे समझते हैं कि इतिहास को दोबारा लिखा जाना चाहिए और नहीं तो कम से कम इसे संशोधित तो किया ही जाना चाहिए।

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इतिहास और साहित्य अपवाद रूप से ही गलत होता है। क्या किसी कवि ने नहीं कहा थाः ‘अगर डिमॉनेटाइजेशन (नोटबंदी) आती है, तो क्या मोनेटाइजेशन (मुद्रीकरण) बहुत दूर हो सकता है?’

राष्ट्रीय नोटबंदी के बमुश्किल पांच साल बाद केन्द्रीय वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने राष्ट्रीय मुद्रीकरण पाइपलाइन (एनएमपी) लॉन्च कर उस कवि को सही प्रमाणित कर दिया है। वैसे, यह एनएमपी किसी दुःस्वप्न की तरह हो गया है। इससे अब तक हुए (एयर इंडिया समेत) विनिवेश को धक्का पहुंचेगा और यह मानव-निर्मित आपदा की तरह ही होगा।

लेकिन मुद्रीकरण की वास्तव में कभी भी योजना नहीं थी, इसका उद्देश्य तो एकाधिकार हासिल करना था- अपने कुछ परिचित-दोस्त उद्योगपतियों को कुछ अधिक धनी-मानी बनाना था। इसे राष्ट्रीय एकाधिकार पाइपलाइन कहना बेहतर होगा। मैं इस तरह की सोच के पीछे घात लगाए मनोविज्ञान और रोग- लक्षण विज्ञान की पहचान कर रहा हूं।

एनएमपी एकबारगी नहीं आया है। जैसे कोरोना की लंबी कड़ी में कोविड आया है, इसे भी मानसिक बीमारी के नवीनतम रूप के तौर पर देखा जाना चाहिए। शीर्ष भाजपा-आरएसएस नेतृत्व के बीच यह स्थिति अब घर कर गई है। यह असुरक्षा से पैदा होता है लेकिन वह बढ़-चढ़कर दंभ करने वाला होता है और किसी व्यक्ति को लेकर आत्ममुग्ध होते हुए उसका गुणगान करने लगता है। यह मानसिक उन्माद (पैरनॉइअ) के तौर पर शुरू हुआ लेकिन वास्तविकता में मानसिक रुग्णता तक पहुंच गया।

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एनएमपी पिछले 75 साल के दौरान बहुत मुश्किल से निर्मित किए गए सार्वजनिक इन्फ्रास्ट्रक्चर के बड़े हिस्से- रेलवे, बंदरगाहों, एयरपोर्ट, गोदामों, खानों, पाइपलाइनों, स्टेडियमों का निजीकरण करेगा- यह बहुत हद तक इतिहास के पुनर्लेखन का सिर्फ नवीनतम प्रयास है और यह देश के विकास में पिछली सरकारों की भागीदारी में संशोधन करना है। इससे किसी को आश्चर्य नहीं होना चाहिए क्योंकि यह सब पिछले सात साल से चल रहा है। यहां कुछ उदाहरण दिए जा रहे हैंः

  • योजना आयोग का नाम बदलकर नीति आयोग करना। इसने किसी उद्देश्य को पूरा नहीं किया और इससे कुछ भी हासिल नहीं हुआ लेकिन इसने संघवाद की कड़ी में महत्वपूर्ण सूत्र को समाप्त जरूर कर दिया।

  • नेशनल रिलीफ फंड की जगह पीएम केयर्स। यह सिर्फ खोखला गुमान नहीं बल्कि स्वैच्छिक या किसी नियम के तहत दान या चंदे के किसी भी तरह के ऑडिट से बचने की कपटपूर्ण मोर्चाबंदी है।

  • जम्मू-कश्मीर के विशेष दर्जे/उसके राज्य होने को दर्जे को समाप्त करना जिसे (अटल बिहारी वाजपेयी समेत) सभी पूर्ववर्ती सरकारों ने बहुत मुश्किल कालखंड में भी बनाए रखा था। अब जब तालिबान ने जम्मू-कश्मीर को लेकर अपने खतरनाक इरादे जताए हैं, यह मोदी को खटकता रहेगा लेकिन देश के वृहत्तर हितों को किनारे कर दिया गया हैः 2022 में उत्तर प्रदेश को जीतना अधिक महत्वपूर्ण है!

  • विरासत में पाए गए नामों को महज बदलने के नाम पर शहरों और नगरों का नया नामकरण। यह ऐतिहासिकता को ढंक देना भर है।

  • दिल्ली के हृदयस्थल को तहस-नहस कर इसके मूलतत्व को मिटा देना- इसके 4.58 लाख वर्ग मीटर को- इस हद तक तो मुगलों ने भी प्रयास नहीं किया था। सेंट्रल विस्टा प्रोजेक्ट अपनी कुछ सबसे प्रतिष्ठित संरचनाओं को स्थायी तौर पर ढहा देगी या ऐसा कर देगी कि वे किसी काम लायक नहीं रहें। ये देश की स्मृतियों से जुड़ी रही हैंः संसद भवन, राष्ट्रीय संग्रहालय, इंदिरा गांधी कला केन्द्र, राष्ट्रीय अभिलेखागार, विज्ञान, कृषि भवन, निर्माण भवन, शास्त्री भवन, उद्योग भवन। वे नए नेतृत्व के सामने तनकर खड़े रहे क्योंकि वे इस बात की याद दिलाने वाले हैं कि किस तरह इस छोटी पार्टी ने आजादी और आधुनिक भारत के विकास में क्या भूमिका निभाई है इसलिए उन्हें तो हटना ही पड़ेगा।

  • भारत की आजादी के 75वीं वर्षगांठ के उत्सव के लिए बनाए गए पोस्टर से आईसीएचआर ने जवाहरलाल नेहरू का नाम जिस तरह हटाया है, वह धक्का पहुंचाने वाला और बचकाना है जबकि अन्य लोगों के नाम और चित्र वहां हैं। यह नेहरू के नाम और उनकी विरासत का लगभग जातीय संहार है।

  • महात्मा गांधी के अंतरराष्ट्रीय तौर पर प्रसिद्ध साबरमती आश्रम का उसके ट्रस्टियों, कर्मचारियों और निवासियों की सलाह के बिना ही नवीनीकरण। यह इस स्थान की उस सादगी और गंभीरता को सब दिन के लिए नष्ट कर देगी जो वस्तुतः महात्मा गांधी के मूल्यों और आस्थाओं का सच्चा प्रतिबिंब था। लेकिन यह सब इस सरकार के लिए मूल्यहीन है। वे चाहते हैं कि उनका नाम हो और यह किसी पसंदीदा आर्टिटेक्ट के जरिये हो।

  • इतिहासकारों, मारे गए स्वतंत्रता सेनानियों के रिश्तेदारों और यहां तक कि नाराज वैश्विक समुदाय के विरोध के बावजूद जलियांवाला बाग को जिस तरह विकृत कर दिया गया, वह दुखदायी ही है। यह ऐसी जगह है जहां हजारों निश्छल लोगों के सामने मौत अचानक आ गई और इसे उसी तरह याद किए जाने की जरूरत थी- ठहर गए समय के तौर पर संरक्षण की ताकि देश अपने रक्त रंजित इतिहास को कभी नहीं भुलाएः संकरा रास्ता जिससे सैनिक अपनी बंदूकों के साथ घुसे, दीवारों पर गोलियों के दाग, मौत का कुआं, हर जगह खून के धब्बे।

  • पिछली सरकारों द्वारा शुरू किए गए एक-एक कल्याण/ सामाजिक कार्यक्रम का नाम बदल दिया गया है ताकि उनका बीते समय से रिश्ता खत्म हो जाए, वे पिछली सरकारों की याद न दिलाएं। इनमें शामिल हैं: निर्मल भारतअभियान (जिसे बदलकर ‘स्वच्छ भारत मिशन’ कर दिया गया), राष्ट्रीय विनिर्माण नीति (मेक इन इंडिया), राष्ट्रीय कौशल विकास कार्यक्रम (स्किल इंडिया), बीपीएल परिवारों को मुफ्त एलपीजी कनेक्शन (प्रधानमंत्री उज्ज्वला योजना), राष्ट्रीय ई-गवर्नेंस योजना (डिजिटल इंडिया), मूल बचत बैंक जमा खाता (जन धन योजना)। यह तो नई बोतल में पुरानी शराब भी नहीं, बल्कि पुरानी बोतल में पुरानी शराब का सिर्फ लेबल बदला हुआ है। अब तक तो यह सूची और भी लंबी हो चुकी होगी।

  • संघवाद, धर्मनिरपेक्षता, नागरिकता जैसे असुविधाजनक तथ्यों के संदर्भों को हटाने के लिए नई शिक्षा नीति की आड़ में कॉलेजों और स्कूलों के पाठ्यक्रम को संशोधित किया जा रहा है क्योंकि ऐसे शब्द भाजपा के वैचारिक आख्यान से मेल नहीं खाते। हालांकि, निश्चिंत रहें, ये केवल तब तक के लिए हैं जब तक कि पार्टी के पास संविधान में संशोधन करने और इन परेशानियों से स्थायी रूप से छुटकारा पाने के लिए बहुमत है।

  • देश की प्रीमियर सिविल सेवा- अखिल भारतीय सेवाओं (आईएएस)- के चरित्र को मौलिक रूप से बदलने का प्रयास। सरदार पटेल और नेहरू ने बड़ी सूझ-बूझ और मेहनत से संघ और राज्यों को एकजुट रखते हुए उनके बीच शक्ति संतुलन बनाए रखने की व्यवस्था बनाई जबकि मोदी संघीय संरचना को खत्म करने के पीछे हाथ धोकर पड़े हुए हैं; लैटरल एंट्री के जरिये भर्ती की निष्पक्ष चयन प्रक्रिया से समझौता किया जा रहा है; इन सेवाओं के लोगों को डराया जा रहा है कि वे सरकार के खिलाफ न जाएं। शायद इसके पीछे एक सोच यह भी है कि आजादी के बाद कांग्रेस ने राष्ट्र निर्माण के जो काम किए, उसमें ये सबसे अधिक दिखाई देने वाली प्रभावशाली उपलब्धि हैं, इसलिए इन्हें खत्म कर दिया जाना चाहिए।

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आरएसएस/भाजपा की असुरक्षा की भावना की डोर अतीत से जुड़ी है। यह साफ है कि इतिहास उनके प्रति दयालु नहीं रहा है और इसलिए वे समझते हैं कि इतिहास को दोबारा लिखा जाना चाहिए और नहीं तो कम से कम इसे संशोधित तो किया ही जाना चाहिए। (जैसे राफेल पर सीएजी की रिपोर्ट!)

डॉ. परकला प्रभाकर ने अपने साप्ताहिक वीडियो में शानदार ढंग से समझाया है कि नेहरू आखिर क्यों भाजपा के लिए खतरा और जरूरत दोनों हैं। भाजपा बेशक नेहरू की स्मृति को खत्म करना चाहती है लेकिन उसे उनकी जरूरत भी है। डॉ. प्रभाकर के अनुसार, भाजपा को नेहरू की जरूरत है जिससे वह अपनी विफलताओं और अक्षमता के लिए उन्हें दोषी ठहरा सके; लेकिन उसके लिए नेहरू का सार्वजनिक स्मृति को नष्ट करना भी जरूरी है ताकि आधुनिक भारत में उनके योगदान को मिटा सके और भारत के स्वतंत्रता संग्राम में अपनी अनुपस्थिति को छिपा सके। यह स्किजोफ्रेनिया या खंडित मानसिकता की बीमारी जैसी है।

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यह बीमारी तब शुरू होती है जब आप किसी विचार को किसी नेता से जोड़कर देखने लगते हैं, जैसा कि तरुण तेजपाल ने ‘ऐनिमल फार्म’ पर अपने हालिया आलेख में कहा है: नेता अब एक जीवित अवतार है जो स्वयं ही उस विचार का प्रतिनिधित्व करता है। ‘और वह विचार जो नेता है, वह मूर्ति, भवन, सड़क, अस्पताल, हवाई अड्डा के रूप में आसपास मौजूद है। उसके नाम पर एक हजार फूल खिलते हैं।’ इसमें किसी और के लिए या किसी अन्य विचार के लिए कोई जगह नहीं हो सकती, ऐसे सोचना आडंबर, पागलपन और असुरक्षा की भावना का मिला जुला नतीजा है, लेकिन यह राजनीति नहीं है।

महानता के लिए एक सपने की जरूरत होती है, न कि द्वेष की; दूरदृष्टि की जरूरत होती है, न कि अतीत में दीवार बनाने की; यह सृजन पर आधारित है, न कि विनाश पर।

लेकिन ये ऐसे भेद हैं जिन्हें वे सबसे ऊपर बैठे नेता शायद समझ पाने में असमर्थ हैं।

(लेखक रिटायर्ड आईएएस अफसर और ब्लॉगर हैं। लेख में विचार उनके निजी हैं। इस लेख को उनके ब्लॉगपोस्ट से लिया गया है)

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