विचार

आकार पटेल का लेख: सरकारी निरंकुशता रोकने के लिए विकल्प तो कई हैं, लेकिन मूल बदलाव के लिए चुनाव ही एकमात्र तरीका

2014 के बाद से हमने जो कुछ अपनाया है, उनमें से कई को खत्म करने की जरूरत है। यह सच है कि हमारा लोकतंत्र हमें अन्य तरीकों से उनका मुकाबला करने का विकल्प देता है, लेकिन चुनाव ही एकमात्र तरीका है जिससे संरचनात्मक रूप से बदलाव होते हैं।

चुनाव के आखिरी चरण में बिहार के पटना में मतदाताओं की कतार (फोटो - Getty Images)
चुनाव के आखिरी चरण में बिहार के पटना में मतदाताओं की कतार (फोटो - Getty Images) 

तपती-झुलसती गर्मी में एक जरूरत से ज्यादा लंबे समय तक चलने वाला चुनाव आखिरकार खत्म हो गया। एग्जिट पोल के अनुमानों के एक तस्वीर सामने पेश कर दी गई है, लेकिन यह ध्यान रखना जरूरी है कि ये अनुमान हमेशा सही साबित नहीं हुए हैं। यहां तक कि एक राज्य तक में अनुमान गलत साबित हुए थे। यह राज्य था पश्चिम बंगाल जहां 2021 के विधानसभा चुनाव को लेकर हर चार में से एक अनुमान गलत साबित हुआ था। लोकसभा चुनावों के इस बेहद लंबे दौर से पहले हुए ओपीनियन पोल के आए थे, जिनमें एक सुर में कहा गया था कि बीजेपी को बहुमत मिलने वाला है।

लेकिन आज अभी भी कोई इस बात को लेकर निश्चिंत नहीं है कि ऐसा ही होगा। बिना नतीजा जाने चुनाव के बारे में क्या कहा जा सकता है, वह अभी भी महत्वपूर्ण है। आइए संभावनाओं पर नजर डालते हैं।

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पहली बात तो यह कि कोई भी जीते, लेकिन एक बात तय है कि यह स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव नहीं थे। दो मुख्यमंत्रियों को प्रचार शुरु होने से पहले ही जेल में डाल दिया गया था। उन्हें जेल में इसलिए नहीं डाला गया कि वे दोषी ठहराए जा चुके थे, बल्कि इसलिए जेल भेजा गया क्योंकि बीजेपी ऐसा चाहती थी। इनमें से एक को कुछ दिन के लिए प्रचार के दौरान रिहा किया गया जिन्हें अब जेल वापस जाना है।

विपक्षी दलों के बैंक खाते बीजेपी नियंत्रित एजेंसियों का इस्तेमाल कर जब्त कर लिए गए। चुनाव आयोग खुद सवालों के घेरे में रहा और उसने बीजेपी को चुनावों के चरण और उन्हें अपने तरीके से पूरा करने की छूट दी। विपक्षी सवालों के जवाब न देना, प्रधानमंत्री द्वारा दिए गए नफरती भाषणों पर कोई कार्रवाई न करना और विपक्षी की शिकायतों को अनसुना करना और चुनाव के आंकड़े समय से जारी न कर चुनाव आयोग ने लोकतंत्र को गहरा नुकसान पहुंचाया।

इलेक्टोरल बॉन्ड को हालांकि असंवैधानिक ठहरा दिया गया, लेकिन इसके जरिए हजारों करोड़ रुपए जुटाकर इस चुनाव में इस्तेमाल कर लिए गए, मेर विचार से इससे कभी दुरुस्त न किए जाना वाला नुकसान हुआ।

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अब, नजर डालते हैं कि क्या संभावनाएं बनती हैं। चूंकि ओपीनियन पोल में इस बात पर एक सहमति थी कि नरेंद्र मोदी फिर से उसी बड़े बहुमत के साथ वापस आ रहे हैं। ऐसे में कोई और क्या अपेक्षा कर सकता है? सबकुछ पहले जैसा ही होना है। मोदी ने अभी तक देश को एक राजा की तरह चलाया है और उनके मंत्री दरबारियों की तरह व्यवहार करते रहे हैं (उनके गुणगान करने वाले सोशल मीडिया अकाउंट देखिए)।

विपक्षी दलों पर विभिन्न एजेंसियों का दुरुपोयग कर हमले जारी रहेंगे, सिविल सोसायटी को इस हद तक मजबूर किया जाएगा कि उनका अस्तित्व ही खत्म हो जाएगा और वैश्विक सूचकांकों में भारती की गिरावट बदस्तूर जारी रहेगी। अल्पसंख्यकों, विशेष रूप से मुस्लिमों के खिलाफ खुलेआम शोषण होंगे। संस्थाओं की गिरावट जारी रहेगी। जैसाकि एक पूर्व मुख्य आर्थिक सलाहकार ने संकेत दिया था कि दो ‘ए’ की दौलत बढ़ती रहेगी यानी अर्थव्यवस्था पर पूरी तरह कार्पोरेट का कब्जा हो जाएगा। कुल मिलाकर आज हम अपने चारों ओर जो कुछ देख रहे हैं, वह वैसा ही रहने वाला है।

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किसी भी एक दल के वर्चस्व वाली सरकार होना लोकतंत्र के लिए स्वस्थ परंपरा नहीं है, जैसा कि हमने गुजरात में देखा है। विपक्ष है तो, लेकिन सिर्फ जुल्म झेलने के लिए। सूरत और वाराणसी में विरोधियों और संभावित उम्मीदवारों के साथ जो हुआ, वह और भी जगहों पर दोहराया जाएगा।

इस बात को मान लेना चाहिए कि अगर वह दोबारा जीतते हैं तो मोदी हमारे इतिहास के सबसे सफल नेताओं में होंगे जिन्होंने लगातार तीन विधानसभा चुनाव जीतने के बाद लगातार तीन लोकसभा चुनाव जीते हैं, वह स्पष्ट बहुमत के साथ। और उनकी यही एकमात्र उपलब्धि होगी।

दूसरी संभावना है कि बीजेपी को सीटें सबसे ज्यादा मिलें, लेकिन बहुमत से दूर हो। मान लें कि उसे 250 सीटें हासिल हों और वह फिर भी सरकार बना ले। ऐसी स्थिति में हालात हर तरह से बदल जाएंगे। सबसे पहले तो बीजेपी के सहयोगी दल ही अपनी ताकत दिखाने लगेंगे और राजा को किसी भी तरह उन्हें या दरबारियों की अनदेखी करना मुश्किल होगा। क्या मोदी में लोकतांत्रिक तरीके से काम करने की कोई क्षमता है? नहीं...ऐसी सरकार बहुत अधिक स्थिर नहीं होगी।

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पार्टी के भीतर ही ऐसे लोग होंगे जो अपनी बात दम के साथ कहेंगे। नागपुर के बुजुर्ग तो वैसे भी दूर की सोच वाले हैं, वह अपना सिर उठाएंगे और ज्यादा दिखाई-सुनाई देंगे।

कुछ चीजें बदल जाएंगी, लेकिन अल्पसंख्यकों पर हमले जारी रहेंगे क्योंकि यह राज्यों के स्तर पर होता है, जहां कई जगहों पर बीजेपी को अपनी कट्टरता के कारण एक निश्चित लोकप्रियता हासिल है। संघवाद पर हमला कम हो जाएगा। आज भारत सिर्फ़ नाम का संघीय देश रह गया है। जीएसटी के बाद राज्यों के पास टैक्स लगाने का कोई अधिकार नहीं रह गया है और कई लोगों की नाराज़गी खुलकर सामने आ गई है। कानून और व्यवस्था राज्य का विषय है, लेकिन दिल्ली से लेकर झारखंड, कर्नाटक और बंगाल तक, केंद्र ने राज्य सरकारों और मुख्यमंत्रियों को कमज़ोर करने के लिए अपनी एजेंसियों को खुली छूट दे रखी है।

केंद्र सरकार इतनी मजबूत है कि वह अपने रवैये में किसी बदलाव के लिए तैयार नहीं है, इसलिए इस समस्या के समाधान के लिए कोई ठोस प्रयास नहीं किया गया है। गठबंधन सरकार से शायद इसमें बदलाव आगा और यह हमारे देश के लिए अच्छा होगा।

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और आखिरी संभावना यह है कि बीजेपी चुनाव हार ही जाए। ओपीनियन पोल के आधार पर तो ऐसा कम ही होता दिख रहा है, लेकिन संभावना तो है ही जिसे ध्यान में रखना चाहिए। मेरे विचार से ऐसा होना एक अच्छा नतीजा होगा और यह सिर्फ मेरी निजी चाहत नहीं है। सरकारों में बदलाव से ही लोकतंत्र तरोताजा रहता है और उसका नवीनीकरण होता है। सिर्फ एक ही व्यक्ति अगर दशकों तक सत्ता में रहे तो पुतिन, शी और किम की मिसालें देखकर साफ है कि इसके नतीजे कुछ अच्छे नहीं होते।

2014 के बाद से हमने जो कुछ अपनाया है, उनमें से कई को खत्म करने की जरूरत है। यह सच है कि हमारा लोकतंत्र हमें अन्य तरीकों से उनका मुकाबला करने का विकल्प देता है, मसलन अदालतों के माध्यम से या विरोध के माध्यम से। लेकिन चुनाव ही एकमात्र तरीका है जिससे संरचनात्मक रूप से बदलाव होते हैं।

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