प्रशांत भूषण: सुप्रीम कोर्ट की मानहानि में दोषी करार।
जी.एन. साईबाबा: नक्सलियों से संबंध के आरोप में जेल में।
सुधा भारद्वाज: भीमा-कोरेगांव में हिंसा भड़काने का आरोप और जेल में।
गौतम नवलखा: भीमा-कोरेगांव मामले में आरोपी और जेल में।
वरवर राव: भीमा-कोरेगांव मामले में आरोपी और जेल में।
हर्ष मंदर: सुप्रीम कोर्ट की मानहानि के मामले में अदालत में पेश।
कन्हैया कुमार: देशद्रोह के आरोप में जेल भेजा गया, मुकदमा जारी।
अपूर्वानंद: दिल्ली में हुई हिंसा के मामले में पूछताछ।
ऐसे दर्जनों नाम और भी गिनवाए जा सकते हैं जो या तो जेल में हैं या किसी-न-किसी मामले में अदालत या पुलिस थाने के चक्कर काट रहे हैं। इन सभी लोगों पर अलग-अलग मामले चल रहे हैं। लेकिन इन सभी लोगों का दोष यह है कि ये सब ही नरेंद्र मोदी सरकार की नीतियों के विरोधी ही नहीं हैं, बल्कि सरकार का खुलकर विरोध भी करते रहे हैं। स्वयं धरना-प्रदर्शन करते रहे हैं या धरना-प्रदर्शनों में हिस्सा लेते रहे हैं।
तो क्या सरकार के विरोध में धरना-प्रदर्शन करना पाप है! हां, एक समय था कि जब धरना-प्रदर्शन करना घोर पाप था। वह समय अंग्रेजों के राज का था। जब गांधीजी- जैसे लोगों को सरकार के खिलाफ आवाज उठाने पर सालों-साल कारागार में काटने पड़े थे। इसी के विरुद्ध देश ने स्वतंत्रता संग्राम लड़ा। अंततः अंग्रेज भारत से गए और आज से 73 वर्ष पहले भारत स्वतंत्र हुआ जिसका जश्न अभी देश ने 15 अगस्त को स्वतंत्रता दिवस के रूप में मनाया है। यह जश्न इसी बात का था कि अब हम आजाद हैं। हम एक लोकतांत्रिक संविधान के तहत चलने वाले देश हैं। यह संविधान देश को बिना हानि पहुंचाए हर भारतीय को बोलने या विरोध करने की स्वतंत्रता प्रदान करता है।
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परंतु पिछले छह वर्षों में पता नहीं इस देश में कैसा लोकतंत्र चल रहा है कि यदि कोई व्यक्ति या संस्था सरकार के खिलाफ तनिक भी सक्रिय हुई तो वह देखते-देखते देशद्रोही हो जाती है। हद यह है कि केवल विरोध करने वाले व्यक्ति, संस्थाएं एवं सिविल सोसायटी के कार्यकर्ता या तो अब शांत हैं या सक्रिय होने पर जेल, अदालत या फिर पुलिस थाने के चक्कर लगा रहे हैं। क्या अब आपको तीस्ता सीतलवाड़ की गूंज सुनाई पड़ती है, अरुणा राय या शबनम हाशमी की ललकार सुनाई पड़ती है! क्या अब जेएनयू छात्र संघ के पूर्व अध्यक्ष कन्हैया कुमार की ‘आजादी’ की ललकार दिखाई पड़ती है!
कटु सत्य यह है कि अब हर जुबान पर ताला है। क्योंकि तीस्ता सीतलवाड़ बोले तो कैसे बोले! महीने में पच्चीस दिन उन्हें किसी-न-किसी अदालत के या ईडी ऑफिस के या इनकम टैक्स कार्यालय के चक्कर लगाने होते हैं। अगर अभी कोई हर्ष मंदर अथवा उन जैसा सिरफिरा इंसान ‘शाहीन बाग’ धरने में सक्रिय नजर आता है तो, या तो उसको अदालत का नोटिस आ जाता है या उसको थाने में हाजिरी देनी पड़ती है। इस प्रकार वह ‘सिविल सोसायटी’ जो यूपीए के शासनकाल में अति सक्रिय थी वह या तो चुप है या जेल एवं अदालतों के चक्कर लगा रही है।
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यह हाल केवल सिविल सोसायटी का ही नहीं है। आप किसी भी जगह देश के हालात पर चर्चा कीजिए तो एक प्रश्न अवश्य उठता है कि आखिर, विपक्ष क्यों शांत है! लोग प्रश्न करते हैं कि मुलायम और मायावती गए कहां! और फिर विभिन्न ‘कॉन्सपिरेसी थ्योरी’ पर चर्चा शुरू हो जाती है। फाइलों को दिखाकर विपक्ष को चुप कराने की बात छिड़ जाती है। स्पष्ट है कि कुछ-न-कुछ तो जरूर ऐसा है कि विपक्ष में होते हुए भी मायावती- जैसी दिग्गज नेता इन दिनों बहुत सारे मुद्दों पर विपक्ष की तो कम बल्कि सरकार की सहयोगी अधिक दिखाई पड़ती हैं।
लब्बोलुआब यह है कि विपक्ष भी खामोश है। यदि राहुल गांधी और प्रियंका गांधी- जैसे नेता चीन या बेरोजगारी के मामले में सरकार से प्रश्न करें तो बीजेपी और टीवी पर बैठे ‘देशप्रेमी’ उनको देश विरोधी ठहराने को तैयार बैठे हैं। एक तो कोरोना महामारी के चलते सारे देश में यूं ही राजनीतिक गतिविधियां ठप थीं। अगर विपक्ष कुछ सक्रिय होता भी तो उसको विभिन्न प्रकार के ‘मैनेजमेंट’ की रणनीति के जरिये चुप करवा दिया जाता है।
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जब सभी चुप तो फिर मीडिया से आशा होती है कि वह विपक्ष की भूमिका निभाएगा। यही कारण है कि उसको लोकतंत्र का चौथा स्तंभ कहा जाता है। परंतु मीडिया पर जितने भी आंसू बहाइए, कम हैं। सच तो यह है कि आज भारतीय मीडिया सत्ता पक्ष का सहयोगी हो चुका है। मुख्यधारा के मीडिया की हालत तो बुरी थी ही, अब तो सोशल मीडिया पर भी सवाल उठ खड़े हुए हैं। फेसबुक और वाट्सएप पर भी यह आरोप लग रहा कि वे भी बीजेपी के सहयोगी हैं। एक न्यायपालिका से उम्मीद कर सकते थे तो उसकी यह स्थिति है कि हजारों वकील बार एसोसिएशन की ओर से प्रशांत भूषण के मामले में सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर ‘बेंच’ को समझा रहे हैं कि भूषण को सजा मत दीजिए।
अब बताइए, यह कौन-सा लोकतंत्र है जिसमें हम जी रहे हैं। सिविल सोसायटी को चुप करवा दिया गया। विपक्ष खामोश। मीडिया अब ‘गोदी मीडिया’ कहलाता है। न्यायपालिका पर भी प्रश्नचिह्न है। उधर, संसद पर ताले पड़े हैं। यदि संसद चले भी तो सरकार पर भारी बहुमत के चलते कुछ असर नहीं है। स्थिति यह है कि लोकतांत्रिक प्रणाली में सरकार के विरोध के सारे रास्ते बंद हैं। या बकौल उर्दू शायर अली सरदार जाफरी:
काम अब कोई न आएगा बस इक दिला के सिवा, रास्ते बंद हैं सब कूचा-ए-कातिल के सिवा।
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देश में इस समय ऐसी ही कुछ स्थिति है। कुछ लोग यदि विरोध करते हैं तो वे जेल, अदालत और पुलिस के चक्कर में पड़ जाते हैं। बाकी चारों ओर अंधकार है। भारतीय लोकतंत्र किसी भी नुक्ताचीनी के बगैर चल रहा है। परंतु यह संभव नहीं कि विपक्ष हो और विरोध हो ही नहीं और लोकतंत्र चलता रहे। कहीं, भारतीय लोकतंत्र ‘लॉकडाउन’ में तो नहीं चला गया है। हालात तो कुछ ऐसे ही दिखाई पड़ते हैं।
परंतु क्या लगभग सात दशकों की लोकतांत्रिक प्रणाली और परंपरा को इस प्रकार लॉकडाउन में लंबे अरसे के लिए रखा जा सकता है? इस प्रश्न का कोई स्पष्ट उत्तर अभी तो नहीं है। क्योंकि फिलहाल तो चारों ओर अंधकार ही अंधकार है। परंतु यह स्थिति भारतीय राजनीतिक और लोकतांत्रिक परंपराओं के विपरीत है। धर्म की अफीम देकर बीजेपी भले ही देश में किसी प्रकार की विस्फोटक स्थिति से बचने में भी सफल हो लेकिन जरा भी नशा उतरा तो याद रखिए कि बस, एक ऐसा तूफान उठेगा कि सरकार की नींद उड़ जाएगी। इतिहास साक्षी है कि राजनीतिक ‘मैनेजमेंट’ कुछ समय तक तो सफल हो सकता है परंतु वह जनता की अंगड़ाई को सदैव नहीं रोक सकता है। यदि ऐसा होता तो हम भारतीय पिछले सप्ताह स्वतंत्रता दिवस पर हर्ष और उल्लास न मना रहे होते।
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