हमारे लोकतंत्र की ताकत पारदर्शिता है। जब किसी देश के लोगों को देश के सामने आई हुई कठिनाइयों की जानकारी होती है तो वे मिलजुलकर उसका सामना कर सकते हैं। वे एक दूसरे के नजदीक आते हैं क्योंकि उन्हें पता है कि संकट और चुनौती सभी पर है। ऐसी भावना, हालांकि संभव है, लेकिन उन देशों में बहुत मुश्किल है जहां किसी तानाशाही और बहुत ही खुफिया तरीके से काम करने वाले नेतृत्व के चलते लोकतंत्र न हो।
इसकी सबसे ताजा मिसाल उस युद्ध से मिलती है जो इस समय यूरोप में चल रहा है। यूक्रेन एकजुट होकर युद्ध का सामना कर रहा है और पूरी दुनिया इस संकट के समय में उसकी भावना देख रही है। वैसे इस बात पर विवाद हो सकता है कि यूक्रेन अपने मौजूदा लोकतांत्रिक स्वरूप में कैसे पहुंचा है, और यही एक कारण है कि रूस ने उस पर धावा बोला है। लेकि इस बात में कोई विवाद नहीं है कि दोनों देश पारदर्शिता के मामले में एक दूसरे से कितना अलग हैं।
यूक्रेन के लोगों को पता है कि उनके सामने क्या संकट और वे मिलजुलकर इसका सामने कर रहे हैं। लेकिन इसी महीने रूस ने अपने नागरिकों के लिए फेसबुक पर पाबंदी लगा दी क्योंकि व्लादिमिर पुतिन नहीं चाहते कि उनके देश के लोगों को पता चले कि आखिर हो क्या रहा है। पुतिन ए कानून के जरिए मीडिया संस्थानों को भी रूसी सेना के बारे में रिपोर्टिंग करने पर 15 साल की सजा देने का प्रावधान कर दिया है। इस सबसे लोगों में एक बेचैनी पैदा हो रही है और दीर्घावधि में इससे देश को नुकसान होगा।
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एक कहावत है कि सूरज की रोशनी सबसे अच्छा कीटाणुनाशक है और संगठनों और सरकार में पारदर्शिता की ओर भी यह कहावत इशारा करती है।
अभी 25 मार्च को चीन के विदेश मंत्री भारत आए। सरकार ने कहा कि यह एक ‘अघोषित’ यात्रा थी, वैसे मीडिया को खबर थी कि चीनी विदेश मंत्री वांग यी भारत आ रहे हैं। उन्होंने हमारे विदेश मंत्री और राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार से मुलाकात की। इसका अर्थ तो यही है कि उनकी यात्रा का जो विषय था वह गोपनीय तो नहीं था। जाहिर है लद्दाख के हालात पर ही चर्चा होनी थी। बताते हैं कि वांग यी ने प्रधानमंत्री मोदी से मुलाकात की इच्छा जाहिर की, लेकिन उन्हें इसकी इजाजत नहीं मिली और कह दिया गया कि प्रधानमंत्री मोदी तो उत्तर प्रदेश में योगी आदित्यनाथ के शपथ ग्रहण समारोह में गए हुए हैं। यह दूसरा संकेत हैं जिससे इशारा मिलता है कि जो भी स्थितियां हैं उससे भारत खुश नहीं है। तो फिर स्थितियां हैं क्या?
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दरअसल यही तो समस्या है। प्रधानमंत्री ने तो खुद देशवासियों को बताया था कि कोई समस्या नहीं है और हमारे इलाके में कोई नहीं आया है। रक्षा मंत्री ने कहा कि हमारे सैनिकों को उन जगहों पर गश्त करने से कोई नहीं रोक रहा, जहां वे ऐतिहासिक तौर पर दशकों से गश्त करते आए हैं।
अगर ऐसा है तो फिर चीन के साथ किन मुद्दों पर चर्चा हो रही है? यह बात सरकार देशवासियों को नहीं बता रही है। वैसे जिन मीडिया संस्थानों को गोदी मीडिया कहा जाता है वे हमें बता रहे हैं कि दरअसल चीनी पक्ष ही पीछे हटना चाह रहा है और ऐसा इसलिए क्योंकि ‘मौजूदा स्थिति आपसी हित में नहीं है।‘
किस बात से पीछे हटना? अगर चीन अपने ही क्षेत्र में है, तो फिर कोई समस्या ही नहीं है। 11 मार्च को भारतीय और चीनी सेना के जनरलों के बीच 15वें दौर की बातचीत हुई। यानी 2020 की झड़प के बाद यह 15वां मौका था जब दोनों देशों के सैन्य जनरल एक दूसरे से मिले। अगर कोई घुसपैठ हुई ही नहीं तो फिर इनके बीच किस मुद्दे पर बातचीत हो रही है? हमारी सरकार ने इस पर कुछ नहीं कहा है।
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इस बातचीत के अगले दिन इंडियन एक्स्प्रेस ने खबर दी कि, ‘दोनों पक्षों ने प्लाटून आकार की सैन्य टुकड़ियां हॉट स्प्रिंग में तैनात कर रखी हैं, लेकिन चीनी सैनिक वास्तविक नियंत्रण रेखा के भारतीय क्षेत्र में है।’ सरकार ने इस रिपोर्ट का खंडन नहीं किया और ही इस पर कोई टिप्पणी की। बहुत से विशेषज्ञ और सेवानिवृत्त जनरल जो लेख लिखते रहते हैं. उनकी राय है कि भारतीय भूमि पर अतिक्रमण हुआ है और चीन उसे खाली करने से इनकार कर रहा है, और यही सबसे बड़ी समस्या है।
कुछ ने लिखा है कि इससे तनाव और बढ़ सकता है और इसे बढ़ाने का काम चीन की ही तरफ से होगा। इसके अलावा अरुणाचल प्रदेश के कुछ और इलाकों में चीनी अतिक्रमण की भी खबरें हैं। (वैसे चीन दावा करता है कि ये उसके इलाके हैं क्योंकि तिब्बत के छठे दलाई लामा का जन्म 1683 में तवांग में हुआ था)
रूस की तरह, चीन भी एक तानाशाही राजतंत्र है और दोनों जगह पारदर्शित को पसंद नहीं किया जाता। पर भारत तो एक लोकतंत्र है, फिर भी इस मुद्दे पर (अन्य मुद्दों के साथ ही) हम पारदर्शी नहीं हैं, भले कारण कोई भी हो। मैं कोई कयास नहीं लगाना चाहता कि ऐसा क्यों है, वैसे कारण बहुत हद तक मुझे समझ आता है।
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हमें यह मानना चाहिए कि भारत में तानाशाही नहीं है और भारत एक लोकतंत्र के नाते अपनी इस स्वाभावित ताकत का इस्तेमाल करेगा। लेकिन कुछ कारणों से हम ऐसा नहीं नहीं कर पा रहे और असल में तो हम खुद को ही गुमराह करते हुए दिख रहे हैं। और इस तरह हम चीन को मौका दे रहे हैं। बीजिंग में बैठे विदेश नीति के विशेषज्ञों को वह असमंजस साफ दिखा होगा जो भारत सरकार ने पैदा किया। और मानना चाहिए कि उन्होंने इसका आंकलन भी कर लिया होगा कि इस असमंजस को वे अपने हित में किस तरह इस्तेमाल कर सकते हैं। आखिर चीन चाहता क्या है और क्यों लद्दाख सीमा का मुद्दा दो साल से गर्म है और अरुणाचल प्रदेश में क्या हो रहा है? इस सबका उस सड़क मार्ग से क्या लेना-देना है जो चीन पाकिस्ता के कब्जे वाले कश्मीर में बना रहा है और जो पश्चिमी चीन को बलूचिस्तान से जोड़ता है।
श्रीलंका के एक पोर्ट पर चीन का नियंत्रण है और बांग्लादेश के अखबार उन पॉजिटिव खबरों से भरे पड़े हैं कि बांग्लादेश किस तरह चीन के बेल्ट एंड रोड प्लान का हिस्सा बनना चाहता है। नेपालभी इस प्लान का हिस्सा है। दक्षिण एशिया में भारत और भूटान अकेले देश हैं जिन्होंने इस योजना का हिस्सा बनने से इनकार किया है। दीर्घावधि में भारत के भविष्य पर इस सबका क्या असर होगा और आने वाले कल में हमें किन खतरों और चुनौतियों का सामना करना पड़ेगा?
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लोकतांत्रिक व्यवस्था में संकट और कठिनाई के समय राहत का रास्ता निकाला जा सकता है क्योंकि उसमें पारदर्शिता होती है और पूरे राजनीतिक व्यवस्था, नागरिकों, विपक्ष और नागरिक समाज एकजुट होकर ऐसे वक्त में सरकार के साथ होते हैं। लेकिन ऐसा होने के लिए ईमानदारी और पारदर्शिता की जरूरत होती है। लेकिन यह साफ है कि चीन के साथ जारी मुद्दे पर दुर्भाग्य से कोई पारदर्शिता दिखाई नहीं देती।
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