विचार

चुनाव और संख्याओं का खेल नहीं लोकतंत्र, देश को एक अलग राजनीति की कल्पना की जरूरत

हमारा लोकतंत्र दलों की लड़ाई का आह्वान नहीं करता बल्कि यह विचारों, विविधताओं और असहमतियों का एक उत्सव है। लेकिन वर्तमान में लोकतंत्र को एक चुनावी व्यवस्था और संख्याओं के खेल तक सीमित कर दिया गया है। अब लोकतंत्र विविधता या असहमति का आह्वान नहीं रहा है।

फोटोः सोशल मीडिया
फोटोः सोशल मीडिया 

हालिया चुनाव के बारे में सबसे अधिक अतियथार्थवादी चीजों में से एक खुद परिणाम नहीं हैं। संख्या अजीब थी और जिसकी व्याख्या आसान नहीं है। इसका श्रेय अमित शाह की सेफोलॉजी की रहस्यमयी ताकत को देना पर्याप्त नहीं है। इसमें भारतीय अवचेतन की उस समझ को गहरे जानने की आवश्यकता है जिसे अपने पुराने जख्मों को चाटने में आनंद आता है।

इससे भी ज्यादा हैरान करने वाली बात थी लोगों की चुनाव परिणामों के प्रति प्रतिक्रिया। एक या दो दिनों के लिए, असहमति रखने वाले और विपक्षी समूह त्रास में थे। मैं अल्पसंख्यक समूहों में से बहुत सारे लोगों को जानता हूं जो पलायन करना चाहते थे। न तो वे इसके साथ सहज थे और न ही यह उनके सपनों का भारत था। दहशत कुछ दिनों तक चली और फिर स्थिति सामान्य हो गई।

इससे यह समझ में आ गया कि लोगों ने अपनी छोटी सी निजी दुनियाओं में रहने का तथा सार्वजनिक स्थानों से दूर रहते हुए अपने को इसमें ढालने का फैसला कर लिया। अनुपालन का यह युग आ चुका था। लोगों ने सत्ता के साथ सामंजस्य बैठाना बेहतर समझा, क्योंकि इस सत्ता में स्थायित्व था। उनका नियतिवाद और प्रत्यक्ष अनुकूलता भय के एक गहरे भाव को दिखाता है। यह एक भय था जो ‘लोकतंत्र’ शब्द की परिभाषा के साथ शुरू हुआ था।

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भारतीयों को हमेशा अपने लोकतंत्र पर गर्व रहा है और उन्होंने इसे अपनी पहचान के तमगे के रूप में सदा ओढ़े रखा है। हमारा लोकतंत्र पार्टियों की लड़ाई का आह्वान नहीं करता बल्कि यह विचारों, सार्वजनिक स्थानों, विविधता या असहमति का एक उत्सव है। यह एक लोकतंत्र था जो एक चुनावी व्यवस्था की शुष्क यांत्रिकी से कहीं अधिक चीजों से घिरा हुआ था। लेकिन वर्तमान में लोकतंत्र को एक चुनावी व्यवस्था और संख्याओं के खेल तक सीमित कर दिया गया है।

अब लोकतंत्र विविधता या असहमति का आह्वान नहीं रहा है। इसने एक अपरिष्कृत बहुसंख्यकवाद को संदर्भित किया जिसने आगे एक धार्मिक बहुसंख्यता को निर्दिष्ट किया। जिसमें भारतीय लोकतंत्र का आनंद नहीं था, बहुसंख्यकवाद एक जैसा सुर अलापने वालों द्वारा किया जाने वाला शासन है। यह डेमागाग को अनुमति देता है। धमकी द्वारा बदतर शासन हर दिन का मामला बन गया है। अब अल्पसंख्यकों के लिए नागरिकता सर्वसम्मति बनाने के तथाकथित खेल में शामिल होने का एक निमंत्रण है।

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लोकतंत्र का ढांचा न्यूनतावादी और एकांगी हो चुका है। कोई भी इसे मीडिया में छाई दरिद्रता में देख सकता है। मीडिया एक महान उत्सव बन चुका है जहां नरेंद्र मोदी और अमित शाह आइकॉनिक स्टेटस हासिल कर चुके हैं। विपक्ष दयनीय दिखता है। एक समाज के रूप में भारत के सामने लोकतंत्र की गरीबी पहला बड़ा खतरा है।

दुखद यह है कि विनाश यहीं नहीं रुकता। त्रासदी बहुत गहरे जाती है। नागरिक समाज और सामाजिक आंदोलनों को पूरी तरह से प्रभावहीन कर दिया गया है। यह केवल मजदूर संगठनों की मौत की बात नहीं है। बहस के विचारों के एक क्षेत्र के रूप में विश्वविद्यालय का अपरिहार्य अंत सभी देख सकते हैं। प्रमाणपत्र देने के रूप में विश्वविद्यालय बना रह सकता है, लेकिन असहमति की अकादमियों के रूप में विश्वविद्यालय समाप्त हो चुका है।

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आज आरएसएस और बजरंग दल सरोगेट सिविल सोसाइटियां बन चुकी हैं और उनका जमीनी स्तर का प्रभाव अक्सर बहुसंख्यकवादी राज्य को बिना रोक-टोक के संचालित करता है। इसके दो दिलचस्प संकेतक हैं। पहला, पर्यावरणवाद- जो विकास के लिए आसक्त समाज में असहमति का प्रमुख केंद्र है उसे आज उपेक्षापूर्ण तरीके से एक राष्ट्र विरोधी के रूप में देखा जाता है।

दूसरा, असहमति को आज बहुसंख्यकवाद की ताकतों द्वारा काननू-व्यवस्था की समस्या के रूप में समझा जाता है। हाशिये पर रहने वाले साधारण लोग, अल्पसंख्यकों या प्रताड़ित समाज द्वारा असहमति को एक वैकल्पिक कल्पना के रूप में त्याग दिया गया है। बहुसंख्यकवाद का कठोर तथ्य हमें अपनी सहोदर उपस्थिति- हिंसा की भी याद दिलाता है।

भ्रष्टाचार से भी ज्यादा हिंसा, भारत में सबसे आविष्कारशील ताकतों में से एक बन चुकी है। भीड़ की हिंसा ने आज एक निर्वाचित मत की सामान्य स्थिति हासिल कर ली है। हिंसा वास्तव में बहुत सारे क्षेत्रों में चुनावों का एक अनुष्ठान उपक्रम है। हम जिसका सामना कर रहे हैं वे हिंसा की परतें हैं। इन परतों का समाजशास्त्रीकरण किया जाए, तो सामने नरसंहार, पारिस्थिकीय विस्थापन और अपने लोगों की राष्ट्रीय रजिस्टरों के जरिए घेराबंदी किए जाने जैसे तथ्य सामने आएंगे।

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हमको विलुप्त होने, अप्रचलित होने, भाषाओं की मृत्यु और बढ़ते भीड़तंत्र का सामना करना है। हमारे सामने जो चुनौती है वो दुर्जेय है। हम एक बहसंख्यकवाद समाज का सामना कर रहे हैं, जो एक राष्ट्र-राज्य के रूप में अनियंत्रित है। पर एक सभ्यता के रूप में निहायत ही गरीब और दरिद्र हैं। हम ऐसी दुनिया में हैं जहां नागरिक समाज को नपुंसक बना दिया गया है और हिंसा ने एक ऐसी साधारणता का रूप ले लिया है जो भयावह है।

जो भी हो, हमें यह समझना होगा कि लोकतंत्र मात्र ऐसी दीवार नहीं है जिसके सहारे हम मातम मनाएं, जहां हम बहुसंख्यकवाद की अनिवार्यता का शोक मनाएं। लोकतंत्र सृजनात्मक असहमति के आविष्कार को निमंत्रण भी है। यह तो स्पष्ट है कि हम इस युद्ध को पार्टी के पारंपरिक तरीकों यानी औपचारिक विपक्ष के तर्क या यहां तक कि मानवाधिकार की अपील से भी पुनः शुरू नहीं कर सकते। हमें विकल्पों की दुनिया में झांकना होगा, ऐसे नैतिक स्टार्टअप पैदा करने होंगे जो विकल्प की नई कल्पनाओं को पेश करे।

मध्यवर्गीय भारत को यह अहसास होने में समय लगेगा कि गतिशीलता और महत्वाकांक्षा इसे धारण नहीं कर सकती। हमें संस्थागत सत्यनिष्ठा के साथ लोकतंत्र की आवश्यकता है, जहां पारिस्थितिकी (इकोलॉजी) जीवन-यापन का आधार बने, संविधान ऐसा हो जो हाशिये पर रह रहे लोगों, नागरिक-समाज का ट्रस्टी हो और जहां असहमति जीने के तरीके के रूप में स्वीकृत हो। लोकतंत्र को स्वयं के नवीनीकरण के लिए एक अलग राजनीति की नई कल्पना और नई आविष्कारशीलता की आवश्यकता है। संघर्ष यहीं से शुरू होता है।

(ये लेखक के अपने विचार हैं)

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