विचार

विपक्ष और लोकतंत्र- पांचवी कड़ीः कांग्रेस का नए हौसले के साथ खड़ा होना ही भारत के लिए बेहतर है

बीजेपी ने बड़ी होशियारी से अपनी आर्थिक विफलताओं को हाशिए पर खिसकाकर पूरे चुनाव को पुलवामा के बाद राष्ट्रीय सुरक्षा के इर्द-गिर्द कर दिया। पाकिस्तान के भीतर हवाई हमले का आदेश देने के बाद तो राष्ट्रवाद के उभार ने 2019 के चुनाव को ‘खाकी’ चुनाव में बदल डाला।

फोटोः सोशल मीडिया
फोटोः सोशल मीडिया 
लोकतंत्र में विपक्ष की भूमिका महत्वपूर्ण होती है। हमने अपने साप्ताहिक अखबार <b>‘संडे नवजीवन’</b> के ताजा अंक में इस पर खास तौर पर विचार किया है। दरअसल बात सिर्फ संसद या विधानसभाओं की नहीं है। समाज के हर वर्ग से किस तरह अपेक्षाएं बढ़ गई हैं, यह जानना जरूरी होता गया है। सिविल सोसाइटी आखिर किस तरह की भूमिका निभा सकती है, यह भी हमने जानने की कोशिश की है। कांग्रेस की आने वाले दिनों में क्या भूमिका हो सकती है, इस पर भी हमने बात की है। इस प्रयोजन की पांचवी कड़ी में हम <b>जेएनयू के सेंटर फॉर पॉलिटिकल स्टडीज में एसोसिएट प्रोफेसर ज़ोया हसन</b> के विचार आपके सामने रख रहे हैं।

इस लोकसभा चुनाव में कांग्रेस का बुरा हाल हो गया। 18 राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों में उसका खाता भी नहीं खुल सका और लोकसभा के लिए चुनाव लड़ रहे 9 पूर्व कांग्रेसी मुख्यमंत्रियों को हार का सामना करना पड़ा। पूरी हिंदी पट्टी में सफाया हो गया और बीजेपी ने यहां की लगभग सभी सीटें जीत लीं। यही स्थिति मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में भी रही जहां चंद महीने पहले ही कांग्रेस ने विधानसभा के चुनाव जीते थे।

उत्तर प्रदेश में पार्टी का मत प्रतिशत 7.53 से घटकर 6.31 प्रतिशत रह गया। कुछ जगहों को छोड़कर पार्टी पूर्व और उत्तर-पूर्व से गायब हो गई। महाराष्ट्र से लेकर कर्नाटक और पश्चिम बंगाल तक कांग्रेस का प्रदर्शन निराशाजनक रहा। बड़े राज्यों में पंजाब और केरल ही हैं जिन्होंने कांग्रेस के प्रति झुकाव दिखाया है। कांग्रेस का यह खराब प्रदर्शन बताता है कि एक समय की इस प्रभावशाली पार्टी को फिर से मजबूत बनाना एक मुश्किल काम है। कांग्रेस के पास वक्त कम है, काम ज्यादा है। उसे तत्काल एक ठोस रणनीति के साथ जुटना पड़ेगा।

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कांग्रेस के लिए खोई जमीन पाने का रास्ता इसलिए भी जटिल हो गया है कि इसके पराभव के साथ ही क्षेत्रीय पार्टियां मजबूत हुई हैं। इन क्षेत्रीय दलों में से ज्यादातर तो कांग्रेस से ही टूटकर अस्तित्व में आए हैं। कांग्रेस नेतृत्व को अवश्य ही एक दशक पहले के अपने उस फैसले पर अफसोस हो रहा होगा जब उसने जगन मोहन रेड्डी को मुख्यमंत्री बनाने से इनकार कर दिया था और बड़ी कड़वाहट के साथ जगन अलग हो गए थे। इसके बाद कांग्रेस के लिए इस छोर की खोई जमीन वापस पाना लगभग असंभव हो गया, जबकि 2009 में अविभाजित आंध्र में अच्छी-खासी सीटों पर उसका कब्जा था। तेलंगाना को अलग राज्य बनाने में कांग्रेस की ही भूमिका थी, इसके बाद भी वह इसका राजनीतिक लाभ नहीं ले सकी।

कांग्रेस की हार की तमाम रणनीतिक वजहें तो हैं ही, लेकिन हमें सबसे पहले समझना होगा कि संसाधन के मामले में बीजेपी और कांग्रेस में बड़ी असमानता रही। सरकार द्वारा सत्ता की ताकत का दुरुपयोग, दिमाग चकरा देने वाला धन-बल और मोदी की बखान करता कारपोरेट स्वामित्व वाला मीडिया, ये सब बीजेपी के पक्ष में गए। मोदी ने प्रचार में अपने करिश्मा का इस्तेमाल तो किया ही, पानी की तरह पैसे भी बहाए। इनके अलावा मीडिया कवरेज के मामले में असमानता तो रही ही। मोदी की छवि चमकाने के लिए पूरे पांच साल तक पार्टी, आरएसएस से लेकर तकनीक और मीडिया भी काम करता रहा।

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इसमें संदेह नहीं कि मोदी चतुर और करिश्माई नेता हैं। यह चुनाव मोदी और विभाजित विपक्ष के बीच था। राहुल गांधी एक नरम और भद्र व्यक्ति हैं, लेकिन ऐसा लगता है कि‘नए भारत’ में मोदी के आक्रामक नेतृत्व से मुकाबले में यही उनका दोष भी बन गया। इसलिए हार की व्याख्या का एक हिस्सा तो बीजेपी की चकित कर देने वाली कामयाबी में मोदी की भूमिका और उनका आक्रामक नेतृत्व है। कुछ वर्ष पहले की तुलना में आज बीजेपी के वफादार समर्थकों की संख्या कहीं अधिक है और इसे पार्टी के मत प्रतिशत का 31 फीसदी (2014) से बढ़कर 38 प्रतिशत (2019) हो जाने में भी देखा जा सकता है।

मोदी की यह महाविजय विकास के झूठे दिखावे पर नहीं, बल्कि घृणा और अलगाववाद के सियासी इस्तेमाल से हिंदू वोट के ध्रुवीकरण पर आधारित है। हिंदू राष्ट्रवाद को मिले अभूतपूर्व समर्थन को देखते हुए कहा जा सकता है कि यह रणनीति काम कर गई और लोगों ने बीजेपी को एक ऐसे दल के रूप में देखा जो उनका प्रतिनिधित्व करता है, उनकी रक्षा करता है और हिंदू हितों का संरक्षक है। कुल मिलाकर बीजेपी के लगातार दूसरी बार जीतने के पीछे हिंदू एकजुटता है।

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कांग्रेस के लिए बड़े फायदे की बात होती अगर आर्थिक मोर्चे पर सरकार की विफलता से निराश लोगों ने अपने ही हितों को ध्यान में रखकर मत दिया होता, लेकिन हैरान करने वाली बात है कि ऐसा नहीं हुआ। कांग्रेस इस स्थिति का फायदा नहीं उठा सकी और अपनी आर्थिक मुश्किलों के लिए लोगों ने बीजेपी को दोषी नहीं माना।

इसकी वजह यह रही कि बीजेपी ने बड़ी होशियारी से अपनी आर्थिक विफलताओं को हाशिए पर खिसकाकर पूरे चुनाव प्रचार को पुलवामा के बाद राष्ट्रीय सुरक्षा के इर्द-गिर्दकर दिया। पुलवामा के बाद मोदी द्वारा पाकिस्तान के भीतर हवाई हमले का आदेश देने के बाद तो राष्ट्रवाद के उभार ने 2019 के चुनाव को ‘खाकी’ चुनाव में बदल डाला। पूरा विमर्श मोदी के भूत से हटकर पाकिस्तान को सबक सिखाने वाले शख्स पर केंद्रित हो गया। इसी वजह से आर्थिक मुश्किलों और घटते रोजगार अवसर जैसी चिंताएं मुद्दा नहीं बन पाए।

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कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने पूरी ताकत से मोर्चा थामा, लेकिन मोदी के वेग को थामने के लिए इतना ही काफी नहीं था। पार्टी का प्रचार अभियान काफी सोच-समझकर तैयार किया गया और इसका साथ देने के लिए नौकरी और न्यूनतम आय के वादे वाला एक बढ़िया घोषणापत्र भी था, लेकिन इसका भी जनता पर असर नहीं हुआ। पार्टी का अध्यक्ष बनने के पहले से ही बहुत ही तीखे नकारात्मक प्रचार झेल रहे राहुल ने इसके बाद भी अकेले बड़े हौसले के साथ मोदी का सामना किया। बीजेपी की पूरी मशीनरी ने पूरी ताकत के साथ राहुल को चुनौती देने, उनका उपहास करने और उनके कद को छोटा करने की कोशिश के साथ उनकी नेतृत्व क्षमता और यहां तक कि उनकी राष्ट्रीयता पर भी सवाल उठाया। फिर भी वह डटे रहे।

बालाकोट हवाई हमले के बाद बीजेपी ने विमर्श को बदलकर राष्ट्रवाद और राष्ट्रीय सुरक्षा पर केंद्रित कर दिया और इसके जरिये मोदी ने खुद को एक मजबूत नेता के तौर पर प्रचारित किया और इससे विपक्ष के पैर पूरी तरह उखड़ गए। कांग्रेस इस रणनीति का तोड़ नहीं निकाल सकी। उसने जनसमस्याओं की बात करते हुए प्रचार का विमर्श बदलने की कोशिश की और न्यूनतम आय योजना (न्याय) इसी रणनीति का हिस्सा था, लेकिन इसे लाने में काफी देरी हो गई और पार्टी इसे लोगों तक नहीं ले जा सकी।

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कांग्रेस ने पूरी तरह मोदी के खिलाफ आक्रामक होने की रणनीतिक गलती भी की। तब तमाम लोग यह कहते थे कि उन्हें इस बात का अहसास तो है कि मोदी ने अपने वादे पूरे नहीं किए, लेकिन वे वोट उन्हें ही देंगे क्योंकि उनका मानना है कि कड़े फैसले लेने वाला एक नेता देश की तमाम समस्याओं को हल कर सकता है।

अब बात कांग्रेस की विचारधारा और संगठन की। पिछले पांच साल के दौरान भारतीय धर्मनिरपेक्षता के भाव को सियासी हाशिए पर डाल दिया गया, लेकिन कांग्रेस ने इसका प्रतिकार नहीं किया। पार्टी धर्मनिरपेक्षता और अल्पसंख्यकों के अधिकारों पर लगभग खामोश रही। हालांकि, राहुल गांधी ने हिंदू राष्ट्रवाद का उल्लेख किए बिना हमेशा नफरत की सियासत पर हमले किए, लेकिन विचारधारा की इस लड़ाई में हिंदू राष्ट्रवाद का वैचारिक विरोध करने के लिए कांग्रेस आगे नहीं आई।

कांग्रेस के साथ बड़ी दिक्कत यह है कि उसका विशेष सामाजिक आधार नहीं और लगातार चुनावी हार के कारण अपने समर्थकों को जोड़े रखने की उसकी ताकत हिल गई है। अपने प्रभुत्व को फिर से पाने के लिए उसे विकेंद्रीकरण पर ध्यान देने के साथ राज्य स्तर पर सामाजिक गठजोड़ तैयार करने होंगे। इसके अलावा कांग्रेस की बड़ी दिक्कत यह भी है कि ज्यादातर राज्यों में इसका संगठनात्मक ढांचा छिन्न-भिन्न हो गया है और इसके बावजूद यूपीए शासन (2004-14) के बीच इसने संगठन को दुरुस्त नहीं किया।

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इतना ही नहीं, विपक्ष में रहते हुए भी उसने इस ओर ध्यान नहीं दिया। कांग्रेस के पास बूथ और मंडल स्तर पर काम करने वाले कार्यकर्ताओं की कमी है और चुनाव जीतने में इनकी भूमिका अहम होती है। जबकि इसके उलट, बीजेपी के पास एक सक्रिय संगठन है और उसकी मदद के लिए राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ और उसके सहयोगी संगठन हैं जो जमीनी स्तर पर सक्रिय हैं। इसी कारण मोदी लहर पैदा हो सकी।

ऐसा नहीं कि कांग्रेस की इस पराभव को सिर के बल खड़ा नहीं किया जा सकता, लेकिन इसके लिए उसे लंबा रास्ता तय करना होगा और उसे तय करना होगा कि आखिर उसके सिद्धांत हैं क्या और उसे मोदी की बीजेपी का मुकाबला करने के लिए क्या करना है। पार्टी में जान फूंकने की कुंजी जनसंपर्क में है। कांग्रेस के पास वक्त की कमी है, उसे तुरंत सक्रिय हो जाना चाहिए।

(ये लेखक के अपने विचार हैं)

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