लोकतंत्र में विपक्ष की भूमिका महत्वपूर्ण होती है। हमने अपने साप्ताहिक अखबार <b>‘संडे नवजीवन’ </b>के ताजा अंक में इस पर खास तौर पर विचार किया है। दरअसल बात सिर्फ संसद या विधानसभाओं की नहीं है। समाज के हर वर्ग से किस तरह अपेक्षाएं बढ़ गई हैं, यह जानना जरूरी होता गया है। सिविल सोसाइटी आखिर किस तरह की भूमिका निभा सकती है, यह भी हमने जानने की कोशिश की है। कांग्रेस की आने वाले दिनों में क्या भूमिका हो सकती है, इस पर भी हमने बात की है। इस प्रयोजन की तीसरी कड़ी में हम <b>वरिष्ठ पत्रकार और चंपारण सत्याग्रह पर तीन किताबों के लेखक अरविन्द मोहन </b>के विचार आपके सामने रख रहे हैं।
नरेंद्र मोदी की निर्णायक जीत के समय विपक्ष की राजनीति की सीमाओं और संभावनाओं पर बात करने का सामान्य ढंग से कोई मतलब नहीं लगता, लेकिन इस चुनाव में विपक्ष की जो हालत हुई है, खासकर हिंदी पट्टीऔर पश्चिमी भारत में, वह निश्चित रूप से काफी कुछ सोचने का मसाला देती है। उत्तर प्रदेश में बने आधे-अधूरे गठबंधन ने चुनाव के पहले ही माहौल बिगाड़ा तो बिहार में एक गठबंधन फेल हुआ तो दूसरा जबरदस्त रूप से कामयाब। यह भी विश्लेषण का विषय होना चाहिए।
कई बार बदलने वाले नीतीश कुमार और मायावती को पहले इस बात का ‘विलेन’ माना जाता था कि उन्होंने मोदी विरोधी हवा को खराब किया। यूपी में अगर दसेक सीटें देकर भी कांग्रेस को साथ ले लिया गया होता तो हवा बदल जाती। नीतीश के भी फिर पाला बदलने की चर्चा थी, पर अनुभवहीन और अकड़ वाले तेजस्वी यादव अड़ गए। इनसे कितनी हवा बदलती, पता नहीं, पर जो ‘हवा’ चली, वह यही बताती है कि कांग्रेस के आने से भी कोई खास फर्क नहीं पड़ा।
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ऐसा नहीं है कि विपक्ष पहली बार संसद में इतने कमजोर हाल में आया है। पिछली बार से ज्यादा फर्क नहीं है और नेहरू युग को देखें तो विपक्ष की स्थिति बहुत अच्छी लगेगी। पर तब नेहरू थे और आजादी की लड़ाई के संस्कार थे। विपक्ष में भी लोहिया, कृपलानी, किशनपटनायक, पीसी जोशी, मधुलिमये- जैसे लोग थे जिनके लिए विरोध की भी मर्यादाएं थीं।
और तब की स्थिति ऐसी थी कि विजयलक्ष्मी पंडित का यह कथन सही लगता है कि अगर उनके भाई (नेहरू) चाहते तो आराम से तानाशाह बन सकते थे। आज तानाशाही भले न आई हो, तानाशाह-जैसे मोदी जरूर हैं जिनको झूठ बोलने, फरेब रचने, बेहिसाब खर्च करने, जोड़-तोड़ से विपक्षी सरकारों और नेताओं को फांसने में कोई नैतिक परेशानी नहीं होती। ऐसे में विपक्षी राजनीति के लिए अब ज्यादा मुश्किल दिन आते लग रहे हैं।
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लेकिन जिस तरह के नतीजे आए हैं और जैसी स्थितियां हैं, विपक्ष की राजनीति के ढंग से फलने-फूलने के पर्याप्त अवसर दिख रहे हैं, बल्कि मोदी की आंधी में काफी झाड़-झंखाड़ निकल आए हैं और अच्छी तथा संतुलित राजनीति करने के अवसर बन गए हैं। बस, जरूरत इस बात की है कि विपक्ष भी अपना रंग-ढंग बदले और तीस साल से चल रहे ढर्रे को छोड़े क्योंकि नतीजे बताते हैं कि लोग अब इनसे ऊब चुके हैं। मोदी ने मंदिर की रट छोड़ी है और नतीजे बताते हैं कि जाति की रट भी छोड़ने की जरूरत है।
अगर इन दोनों राज्यों के नतीजों पर बारीकी से गौर करें तो साफ लगेगा कि हर सीट पर मुसलमानों के वोट के अलावा बहुत ही कम जोड़ हुआ है- वह भी यादव, जाटव उम्मीदवार की अपनी जाति का कुछ वोट। जी हां, उत्तर प्रदेश में पूरा यादव और दलित ही नहीं, जाटव वोट भी गठबंधन की तरफ नहीं आया है। मुसलमान खौफ में हैं, बीजेपी और मोदी को वोट दे नहीं सकते इसलिए उनका अधिकांश वोट बीजेपी-विरोध में गया है। आप उसे अपनी बिरादरी के साथ जोड़कर चुनाव जीतने का ख्वाब देख रहे हैं तो यह चुनाव ऐसी राजनीति के अंत की घोषणा करता है।
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और चुनाव के पहले से ही मोदी का खौफ ऐसा हो गया कि आप इस राजनीति को धर्मनिरपेक्षता बताने से भी डरने लगे, टोपी पहनना भूल गए, हवन करने लगे। बल्कि ऐसा करने और दिखाने की होड़ लग गई। सो, अचरज नहीं कि अपनी जीत के बाद बीजेपी के मुख्यालय से ‘राष्ट्र को धन्यवाद’ देते हुए मोदी अगर धर्मनिरपेक्षता के डिस्कोर्स को ध्वस्त करने को अपनी सबसे प्रमुख उपलब्धि बता रहे थे तो यह बात राजनीति करने वाले और राजनीति पर सोच-समझ रखने वाले सभी लोगों को ध्यान देने वाली थी।
यह सही है कि प्रबंधन और चौकसी में मोदी और उनके पटु शिष्य अमित शाह का कोई जबाब नहीं है, पर लड़ाई सिर्फ इससे नहीं लड़ी गई। संघ परिवार, बीजेपी और मोदी ने पूरा चुनाव बहुत ही साफ-सोची रणनीति और एक लंबी दृष्टि के साथ लड़ा। उनकी तुलना में फुरसत की राजनीति, मतदान से तीन दिन पहले चुनाव प्रचार करने निकली मायावती-अखिलेश की जोड़ी और कभी भी रणनीति तथा सोच न बदलने वाले नेताओं को मिला चुनावी फल लोगों पर चढ़े मोदी रंग का भी नतीजा है।
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इस बार का नतीजा बताता है कि आपके समाजवाद, पिछड़ावाद, दलितवाद से ज्यादा मजबूत आधार मुसलमानों ने उपलब्ध कराया, यादवों ने कराया, एक हद तक दलितों ने कराया। आप न कोई संगठन बना पाए, न कोई वैकल्पिक राजनैतिक डिस्कोर्स। और आपको भ्रम रहा कि मंच पर साथ खड़े होकर हाथ हिला देने भर से फलां-फलां जातियां और सामाजिक समूह आपके पीछे खड़े हो जाएंगे, संघ और बीजेपी कार्यकर्ताओं का मुकाबला कर लेंगे। एक बार मंच पर पैर छूने से चुनावी वैतरिणी पार हो जाएगी।
चुनाव में वैकल्पिक दर्शन की बात भी कोई कर रहा था तो वह राहुल ही थे जिनको अल्पसंख्यकों ने उत्तर प्रदेश में इस भ्रम में छोड़ा कि गठबंधन मजबूत है और वही मुकाबला कर रहा है। कांग्रेस को पिछली संसद में भी विपक्ष का नेता बनने लायक सीटें नहीं मिली थीं, लेकिन असली विपक्ष की भूमिका उसी ने निभाई। जाति और क्षेत्र के आधार पर ठीक-ठाक सीटें पाने वालों ने कब संसद में मुंह भी खोला, याद नहीं। चुनाव में भी सभी को न्याय- जैसे वैकल्पिक कार्यक्रम से ही मोदी को पीटने का भरोसा बना, सिर्फ मोदी विरोध और प्रधानमंत्री पद की पोजीशनिंग ने हवा बिगाड़ी ही है। इसलिए मोदी विरोध की राजनीति के लिए एक टोटल पाॅलिटिक्स पहली जरूरत है।
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ऐसा नहीं है कि ये चीजें पहले न थीं और सिर्फ बिहार और उत्तर प्रदेश में ही यह होता था। पर पिछले तीस सालों से, अर्थात मंडल आने के बाद से इस गणित का जोर कुछ ज्यादा ही हो गया था। इस चुनाव ने न सिर्फ इस अंकगणित वाली राजनीति को खारिज किया है, बल्कि इसका प्रभाव निर्णायक ढंग से खत्म कर दिया है। पर इस बार सामाजिक न्याय और बहुजनवाद के नाम पर तीस-तीस साल से एक जाति या दो-तीन सामाजिक समूहों के नाम पर राज करने या सत्ता सुख भोगने वाले लोगों और परिवारों को पक्का जवाब मिल गया है।
पर इस चुनावी प्रतिक्रिया को पिछड़ों, दलितों, आदिवासियों और अल्पसंख्यकों द्वारा अपने अधिकार, राजनैतिक स्पेस और सत्ता के लिए लड़ने की महत्वाकांक्षा का पटाक्षेप नहीं मानना चाहिए और न उसकी जरूरत का अंत। वह जरूरत तो और बढ़ गई है। पर उसके लिए लड़ने का अलग तरीका ढूंढना होगा, अलग एजेंडा बनाना होगा, अलग तरह का नेतृत्व विकसित करना होगा। इसलिए यह चुनाव अगर राजनीति के इस बड़े बदलाव की शुरुआत करता है और राष्ट्रीय दलों की राजनीति वापस लाता है तो इसका स्वागत करना चाहिए।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)
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